भारतीय सिनेमा में गुम होता संगीत: ग़ज़ल, कव्वाली और भजन की सांस्कृतिक विरासत

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rakhi sunil kumar

17 Jul 20253 min read

Published in storiesperspectiveslatest

संगीत जो कहीं खो गया है: एक विचार की तरह

कभी-कभी जब रात के सन्नाटे में पुरानी कोई फिल्मी ग़ज़ल कानों में उतरती है, तो लगता है जैसे समय थम गया हो। कोई भूली-बिसरी सी आवाज़, कोई मुलायम-सा सुर मन के दरवाज़े पर दस्तक देता है और कहता है—"याद है वो दौर?"
वो दौर, जब संगीत सिर्फ कानों से नहीं, दिल से सुना जाता था। जब ग़ज़लें केवल गीत नहीं थीं, एहसास थीं। कव्वालियाँ सिर्फ मंच की चीज़ नहीं थीं, रूह की तसल्ली थीं। और भजन? भजन तो जैसे आत्मा की भाषा होते थे, जो परदे पर गूंजते हुए सीधे अंतर्मन को छू लेते थे।

पर अब... कुछ खो गया है।

हिंदी सिनेमा जो कभी भारत की विविधता का रंगमंच हुआ करता था, उसने जैसे इन आत्मीय संगीत विधाओं को धीरे-धीरे ओझल कर दिया। समय बदला, स्वाद बदले, और वो ग़ज़लें, कव्वालियाँ, भजन—जिनमें शब्दों की गहराई और सुरों का जादू था—फिल्मों से हटते चले गए। अब ज़्यादातर फिल्मों में संगीत "तेज़" चाहिए, "हिट" चाहिए, "ट्रेंडिंग" चाहिए।

ग़ज़ल की वो मद्धम रोशनी, ग़ज़ल कोई शोर मचाने वाला माध्यम नहीं है। वह धीमे से दिल में उतरती है—जैसे रात की चुप्पी में कोई पुराना ख़त खुल रहा हो। पर आज की फिल्मों में उसके लिए वक़्त ही कहाँ है? न तलत महमूद की रेशमी आवाज़ है, न जगजीत सिंह की सादगी। ग़ज़लें अब यूट्यूब चैनलों में कोनों में सजी मिलती हैं, जैसे कोई पुरानी तस्वीर जिसे अब कोई देखता नहीं, पर फेंकने का मन भी नहीं होता।

कव्वाली: जो थी जश्न भी, इबादत भी, कव्वाली तो जैसे परदे पर एक उत्सव होती थी—एक साथ उठती आवाज़ें, तालियों की गूंज, और सूफियाना रंग। "बरसात की रात", "मुग़ल-ए-आज़म", "अमर अकबर एंथनी"—इन फिल्मों ने कव्वालियों को संस्कृति बना दिया था।
पर आज? ग्राफिक्स हैं, डांस हैं, चमक है, पर वो सामूहिकता, वो आध्यात्मिकता, वो सुरों का मेल कहाँ है? अब ‘सूफी’ शब्द केवल गीत के शीर्षक में होता है, आत्मा में नहीं।

भजन: जो कहानी का आत्मा होते थे, भजन तो जैसे परदे की शांति हुआ करते थे। जब कोई चरित्र संकट में होता, माँ के आँसू बहते, या किसी को जीवन का रास्ता दिखाना होता—भजन आते थे, और चुपचाप सारा दृश्य गूंज उठता था।
"मन तड़पत हरि दर्शन को आज", "ओ पालनहारे", "इतनी शक्ति हमें देना दाता"—ये सिर्फ गीत नहीं, पीढ़ियों की प्रार्थनाएँ बन गए।
पर अब? फिल्मों में अगर कोई भजन आता भी है, तो या तो "बैकग्राउंड स्कोर" में छिपा रहता है या "डिजिटल रीमिक्स" बनकर खो जाता है।

तो क्या ये सब सच में खो गया है?

शायद नहीं। शायद ये संगीत किसी कोने में इंतज़ार कर रहा है—किसी ऐसे फिल्मकार का, जो शोर से परे जाकर सादगी की बात करे। किसी ऐसे संगीतकार का, जिसे ‘राग’ याद हो, न कि सिर्फ ‘बीट’।
शायद ये सब कुछ खत्म नहीं हुआ, सिर्फ हमारी नज़र से ओझल हो गया है। क्योंकि जब भी कोई अकेले में "चिट्ठी न कोई सन्देश..." गुनगुनाता है, जब भी कोई "दमादम मस्त कलंदर" पर थिरकता है, जब भी किसी माँ के होठों से "शुभं करोति कल्याणम्..." निकलता है—ये संगीत फिर से जीवित हो उठता है।

शायद हमें ही बदलना होगा, हमें ही कहना होगा कि हमें फिर से वैसा ही संगीत चाहिए—जो जल्दी नहीं, गहराई से सुनाया जाए। जो हमें महसूस कराए, न कि बस झूमने पर मजबूर करे। हमें फिर से अपने संगीत को खोजने की ज़रूरत है—वो जो हमारे भीतर था, है, और हमेशा रहेगा।

क्योंकि संगीत कभी मरता नहीं।

राखी सुनील कुमार

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भारतीय सिनेमा में गुम होता संगीत: ग़ज़ल, कव्वाली और भजन की सांस्कृतिक विरासत

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संगीत जो कहीं खो गया है: एक विचार की तरह

कभी-कभी जब रात के सन्नाटे में पुरानी कोई फिल्मी ग़ज़ल कानों में उतरती है, तो लगता है जैसे समय थम गया हो। कोई भूली-बिसरी सी आवाज़, कोई मुलायम-सा सुर मन के दरवाज़े पर दस्तक देता है और कहता है—"याद है वो दौर?"
वो दौर, जब संगीत सिर्फ कानों से नहीं, दिल से सुना जाता था। जब ग़ज़लें केवल गीत नहीं थीं, एहसास थीं। कव्वालियाँ सिर्फ मंच की चीज़ नहीं थीं, रूह की तसल्ली थीं। और भजन? भजन तो जैसे आत्मा की भाषा होते थे, जो परदे पर गूंजते हुए सीधे अंतर्मन को छू लेते थे।

पर अब... कुछ खो गया है।

हिंदी सिनेमा जो कभी भारत की विविधता का रंगमंच हुआ करता था, उसने जैसे इन आत्मीय संगीत विधाओं को धीरे-धीरे ओझल कर दिया। समय बदला, स्वाद बदले, और वो ग़ज़लें, कव्वालियाँ, भजन—जिनमें शब्दों की गहराई और सुरों का जादू था—फिल्मों से हटते चले गए। अब ज़्यादातर फिल्मों में संगीत "तेज़" चाहिए, "हिट" चाहिए, "ट्रेंडिंग" चाहिए।

ग़ज़ल की वो मद्धम रोशनी, ग़ज़ल कोई शोर मचाने वाला माध्यम नहीं है। वह धीमे से दिल में उतरती है—जैसे रात की चुप्पी में कोई पुराना ख़त खुल रहा हो। पर आज की फिल्मों में उसके लिए वक़्त ही कहाँ है? न तलत महमूद की रेशमी आवाज़ है, न जगजीत सिंह की सादगी। ग़ज़लें अब यूट्यूब चैनलों में कोनों में सजी मिलती हैं, जैसे कोई पुरानी तस्वीर जिसे अब कोई देखता नहीं, पर फेंकने का मन भी नहीं होता।

कव्वाली: जो थी जश्न भी, इबादत भी, कव्वाली तो जैसे परदे पर एक उत्सव होती थी—एक साथ उठती आवाज़ें, तालियों की गूंज, और सूफियाना रंग। "बरसात की रात", "मुग़ल-ए-आज़म", "अमर अकबर एंथनी"—इन फिल्मों ने कव्वालियों को संस्कृति बना दिया था।
पर आज? ग्राफिक्स हैं, डांस हैं, चमक है, पर वो सामूहिकता, वो आध्यात्मिकता, वो सुरों का मेल कहाँ है? अब ‘सूफी’ शब्द केवल गीत के शीर्षक में होता है, आत्मा में नहीं।

भजन: जो कहानी का आत्मा होते थे, भजन तो जैसे परदे की शांति हुआ करते थे। जब कोई चरित्र संकट में होता, माँ के आँसू बहते, या किसी को जीवन का रास्ता दिखाना होता—भजन आते थे, और चुपचाप सारा दृश्य गूंज उठता था।
"मन तड़पत हरि दर्शन को आज", "ओ पालनहारे", "इतनी शक्ति हमें देना दाता"—ये सिर्फ गीत नहीं, पीढ़ियों की प्रार्थनाएँ बन गए।
पर अब? फिल्मों में अगर कोई भजन आता भी है, तो या तो "बैकग्राउंड स्कोर" में छिपा रहता है या "डिजिटल रीमिक्स" बनकर खो जाता है।

तो क्या ये सब सच में खो गया है?

शायद नहीं। शायद ये संगीत किसी कोने में इंतज़ार कर रहा है—किसी ऐसे फिल्मकार का, जो शोर से परे जाकर सादगी की बात करे। किसी ऐसे संगीतकार का, जिसे ‘राग’ याद हो, न कि सिर्फ ‘बीट’।
शायद ये सब कुछ खत्म नहीं हुआ, सिर्फ हमारी नज़र से ओझल हो गया है। क्योंकि जब भी कोई अकेले में "चिट्ठी न कोई सन्देश..." गुनगुनाता है, जब भी कोई "दमादम मस्त कलंदर" पर थिरकता है, जब भी किसी माँ के होठों से "शुभं करोति कल्याणम्..." निकलता है—ये संगीत फिर से जीवित हो उठता है।

शायद हमें ही बदलना होगा, हमें ही कहना होगा कि हमें फिर से वैसा ही संगीत चाहिए—जो जल्दी नहीं, गहराई से सुनाया जाए। जो हमें महसूस कराए, न कि बस झूमने पर मजबूर करे। हमें फिर से अपने संगीत को खोजने की ज़रूरत है—वो जो हमारे भीतर था, है, और हमेशा रहेगा।

क्योंकि संगीत कभी मरता नहीं।

राखी सुनील कुमार

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