सारथी

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sweta gupta

16 Aug 20241 min read

Published in poetry

सारथी

जीत भी तुम हो, हार भी तुम, 
जो ना मिल सके वो अधूरा ख़्वाब भी तुम, 
यश भी तुम हो, अपयश भी तुम,
उस प्रेम का मीठा एहसास भी तुमI

रिश्ते ना खींच पाने का इलज़ाम भी तुम,
चुप रहने कि वजह भी तुम
मान भी तुम हो, अपमान भी तुम,
खुद को खाली करने का राह भी तुम I

सृष्टि भी तुम, रचयिता भी तुम,
संसार से मिले वो विज्ञान भी तुम,
बैरागी भी तुम हो, बैराग भी तुम,
इस जीवन में समाया ज्ञान भी तुम I

राह भी तुम हो, राही भी तुम,
मन का भारी हो जाना भी तुम,
जो फिर डूब जाए, किनारा भी तुम,
उस ग़म से बाहर निकलने का सहारा भी तुम I

दर्पण भी तुम हो, प्रतिबिम्ब भी तुम,
इस छलावा को समझने का विवेक भी तुम,
जब सब उस सारथी ने हैं लिखा, ये जानते हो तुम,
तब क्यों कर लिया हैं अपनी खुशी को कम ?

रचायिता

स्वेता गुप्ता

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सारथी

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sweta gupta

16 Aug 20241 min read

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सारथी

जीत भी तुम हो, हार भी तुम, 
जो ना मिल सके वो अधूरा ख़्वाब भी तुम, 
यश भी तुम हो, अपयश भी तुम,
उस प्रेम का मीठा एहसास भी तुमI

रिश्ते ना खींच पाने का इलज़ाम भी तुम,
चुप रहने कि वजह भी तुम
मान भी तुम हो, अपमान भी तुम,
खुद को खाली करने का राह भी तुम I

सृष्टि भी तुम, रचयिता भी तुम,
संसार से मिले वो विज्ञान भी तुम,
बैरागी भी तुम हो, बैराग भी तुम,
इस जीवन में समाया ज्ञान भी तुम I

राह भी तुम हो, राही भी तुम,
मन का भारी हो जाना भी तुम,
जो फिर डूब जाए, किनारा भी तुम,
उस ग़म से बाहर निकलने का सहारा भी तुम I

दर्पण भी तुम हो, प्रतिबिम्ब भी तुम,
इस छलावा को समझने का विवेक भी तुम,
जब सब उस सारथी ने हैं लिखा, ये जानते हो तुम,
तब क्यों कर लिया हैं अपनी खुशी को कम ?

रचायिता

स्वेता गुप्ता

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