संबंध और संवाद

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धनेश परमार

16 Aug 20242 min read

Published in perspectives

संबंध और संवाद

संबंध की लाइफलाइन का ऑक्सिजन यानि संवाद। भौतिकता और यंत्रों पर आधारित जिंदगी में मनुष्य की आवाज कम और यंत्रों की बीप ज्यादा सुनाई देती है। आज सभी अपने में व्यस्त और अपनी दुनिया में मस्त है। बाहर की स्वस्थ दुनिया के पीछे अकेलापन, भ्रम, तनाव बढ़े हैं और उस बारे में बात न करता मनुष्य ज्यादा से ज्यादा अकेलापन महसूस करता है।

कम होते संवाद संबंध को पतला करता है। अपनी बात कहनी होती है, किंतु उनके पास ऐसी जगह नहीं है। घर में संरक्षण, मित्रों में मस्ती और समाज में बड़प्पन की प्रवृत्ति। इसमें मनुष्य “स्वयं क्या है ?” यह भूल गया है और अन्य को पसंद आए ऐसा आभासी व्यक्तित्व अपना रहा है। बातचीत ही मनुष्य को हल्कापन दे सकती है। जो पसंद हो और जैसा आता हो वैसा बोलकर अंदर के धुंध को बिखरने देना है।

अपने पास जीवन की जरूरतों को पूरा करने, शरीर की तकलीफ कम करने के लिए बहुत से साधन हैं। यह सब शारीरिक स्वस्थता देता है, लेकिन मानसिक प्रसन्नता यानि मनुष्य का मनुष्य से संवाद, हम अपने घर में, परिवार में, निकट के लोगों के साथ लगातार बात करते रहते हैं तब घर में अपने आप मैत्री का वातावरण बनता है। संबंधों की सच्ची पहचान उस संबंध में खिले हुए मैत्री-पुष्प में होती है। माता-पिता से लेकर पति-पत्नी के अन्य सर्व के साथ के संबंधों में से सहजता सूख गई है। संबंध यानि एक की सत्ता और दूसरे की मजबूरी नहीं। मनुष्य समाज ऐसा कैसे हो सकता है ?

मनुष्य का मूल स्वभाव तो सहकार, सहचर्य, समभाव और संवेदना का है और उसी दिशा में आगे बढ़ते रहना है। आप घर में हो तब आपकी चुपकीदी नहीं पर आपकी एक दूसरे के साथ बातों से निकटता और भाव बढ़ता है और ऐसा होने से उन संबंधों में आगे जाकर मैत्री के पुष्प खिलेंगे और मनुष्य अपने दुख के समय परिवार के साथ ही बात करे और अकेलापन की खाई से बच सके।

परस्पर एक-दूसरे का मूल्यांकन करने के लिए नहीं, किंतु एक दूसरे से जुड़ने के लिए ‘संवाद’ बढ़ाने की अत्यंत आवश्यकता है।  

 

धनेश रा. परमार ‘परम’

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धनेश परमार

16 Aug 20242 min read

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संबंध और संवाद

संबंध की लाइफलाइन का ऑक्सिजन यानि संवाद। भौतिकता और यंत्रों पर आधारित जिंदगी में मनुष्य की आवाज कम और यंत्रों की बीप ज्यादा सुनाई देती है। आज सभी अपने में व्यस्त और अपनी दुनिया में मस्त है। बाहर की स्वस्थ दुनिया के पीछे अकेलापन, भ्रम, तनाव बढ़े हैं और उस बारे में बात न करता मनुष्य ज्यादा से ज्यादा अकेलापन महसूस करता है।

कम होते संवाद संबंध को पतला करता है। अपनी बात कहनी होती है, किंतु उनके पास ऐसी जगह नहीं है। घर में संरक्षण, मित्रों में मस्ती और समाज में बड़प्पन की प्रवृत्ति। इसमें मनुष्य “स्वयं क्या है ?” यह भूल गया है और अन्य को पसंद आए ऐसा आभासी व्यक्तित्व अपना रहा है। बातचीत ही मनुष्य को हल्कापन दे सकती है। जो पसंद हो और जैसा आता हो वैसा बोलकर अंदर के धुंध को बिखरने देना है।

अपने पास जीवन की जरूरतों को पूरा करने, शरीर की तकलीफ कम करने के लिए बहुत से साधन हैं। यह सब शारीरिक स्वस्थता देता है, लेकिन मानसिक प्रसन्नता यानि मनुष्य का मनुष्य से संवाद, हम अपने घर में, परिवार में, निकट के लोगों के साथ लगातार बात करते रहते हैं तब घर में अपने आप मैत्री का वातावरण बनता है। संबंधों की सच्ची पहचान उस संबंध में खिले हुए मैत्री-पुष्प में होती है। माता-पिता से लेकर पति-पत्नी के अन्य सर्व के साथ के संबंधों में से सहजता सूख गई है। संबंध यानि एक की सत्ता और दूसरे की मजबूरी नहीं। मनुष्य समाज ऐसा कैसे हो सकता है ?

मनुष्य का मूल स्वभाव तो सहकार, सहचर्य, समभाव और संवेदना का है और उसी दिशा में आगे बढ़ते रहना है। आप घर में हो तब आपकी चुपकीदी नहीं पर आपकी एक दूसरे के साथ बातों से निकटता और भाव बढ़ता है और ऐसा होने से उन संबंधों में आगे जाकर मैत्री के पुष्प खिलेंगे और मनुष्य अपने दुख के समय परिवार के साथ ही बात करे और अकेलापन की खाई से बच सके।

परस्पर एक-दूसरे का मूल्यांकन करने के लिए नहीं, किंतु एक दूसरे से जुड़ने के लिए ‘संवाद’ बढ़ाने की अत्यंत आवश्यकता है।  

 

धनेश रा. परमार ‘परम’

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