सफ़र, प्यार और एक अधूरी दास्ताँ (Part 8)

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sagar gupta

28 Jul 202411 min read

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सफ़र, प्यार और एक अधूरी दास्ताँ 

कुछ कहानियों में अनेकों कहानियां छिपी होती। शायद मेरी कहानी भी इन्हीं में से एक है।

click here to read all episodes https://www.storyberrys.com/category/series/safar/

 

 

 

अध्याय 8- रात गई, बात गई

पिछले अध्याय में आपने पढ़ा कि कैसे हेरा-फेरी की घटना ने ये तो साबित कर दिया कि वंशिका, अंशुमन से ज्यादा देर गुस्सा नहीं रह सकती है। शायद उसका गुस्सा करना उसके प्यार दिखाने का ही एक तरीका है। क्या वंशिका और अंशुमन एक-दूसरे के प्यार को समझ पाएंगे, आइए देखते है…

अंशुमन- कल से हमलोग ट्रैन में है, अब तो स्कार्फ़ खोल दो।

वंशिका- मेरी मर्जी, तुम्हें क्या।

अंशुमन- सुनो, कैटरीना कैफ नहीं हो तुम, जो स्कार्फ़ खोलते ही लोग ऑटोग्राफ़ लेने के लिए तुम्हारे पास दौड़ पड़ेंगे।

वंशिका(मुंह बिचकाते हुए)- मैं कैटरिना कैफ से कम भी नहीं हूँ।

अंशुमन को वंशिका का ऐसा शरारतपूर्ण बात करना बहुत पसंद था।

अंशुमन- बहुत गंदा मज़ाक था। हँसी नहीं आई।

वंशिका- हुँह.. आईफोन वाली आंटी से जैसे सब जलते है, वैसे ही तुम मेरे अदाओं से जल रहे हो।

ये सुनकर अंशुमन को हँसी आ गई। इस हँसी में वंशिका भी उसका साथ निभा रही थी।

अंशुमन(उत्सुकता से)- बताओ न। क्यों स्कार्फ़ पहनी हो? क्या कारण है?

वंशिका- क्यों जानना है?

वंशिका के जवाब में बेरुखीपन साफ-साफ नज़र आ रही थी।

अंशुमन- बस तुम्हें देखना है।

अंशुमन ने जिद्द पकड़ ली थी।

वंशिका- क्यों देखना है? होते कौन हो, तुम मुझे देखने वाले।

अंशुमन- तेरा पति।

अंशुमन ने बिना कुछ सोचे-समझे कह दिया। पर इस पर वंशिका की प्रतिक्रिया देख वो अचंभित हो गया था। वंशिका की आँखें अचानक से नम हो गई। अंशुमन को उसकी गलती का एहसास हो गया था।

 

अंशुमन- मजाक कर रहा था वंशु।  अब तुमसे मजाक भी नहीं कर सकता?

वंशिका ने कुछ न कहा।

अंशुमन(कान पकड़ते हुए)- अच्छा सॉरी। माफ कर दो बाबा।

वंशिका(धीरे से)- कोई बात नहीं।

थोड़े देर तक वंशिका एक दम शांत हो गई थी। मानो वो शून्य में कहीं लुप्त हो गयी हो। अंशुमन को समझ नहीं आ रहा था कि वंशिका से उसने इतना मजाक किया। पर इस छोटे-से मजाक से वो इतनी क्यों विचलित हो उठी?

क्या राज है उसके चेहरे का? क्या वो कहीं से भाग कर आई है? अगर भागना ही होता, तो किसी लड़के साथ भागती। अकेला कौन भागता है, भला! तो आखिर बात क्या है? क्यों वो चेहरा दिखाने को राजी नहीं थी?

अंशुमन इन उधेड़बुन में फँसा हुआ था। तभी वंशिका की आवाज़ उसके कानों में पड़ी।

वंशिका(हँसते हुए)- अब इतना मत सोचो। मैं भूल चुकी हूँ, जो तुमने कहा। रोतलूमल…

अंशुमन- मैं रो नहीं रहा। मर्द रोते नहीं है।

वंशिका- हाँ, जैसे नारी तो हरेक बात में अश्रुवन की झड़ी लगा देती है। वैसे भी रोने या न रोने से कोई मर्द नहीं कहलाता। अगर दिल में किसी बात का दुःख हो, तो उसे अश्रु के माध्यम से बाहर निकालने में ही भलाई है। नहीं तो वो छोटा-सा ज़ख्म नासूर बन जाता है।

अंशुमन- उफ़.. तुम और तुम्हारी डायलॉगबाजी…

वंशिका ने इस पर कुछ न कहा।

अंशुमन(एक रैप गाने का बोल बोलकर)- फिर गुस्सा गई क्या? फ़ोन काट दी, मम्मी आ गयी क्या?

तभी किसी की थपकी उसके बांए हाथ में पड़ी।

अंशुमन- हाथ तोड़ दिया रे। हाथ है या हथौड़ा?

वंशिका- हा हा…थॉर का हथौड़ा है। बच के रहना।

अंशुमन (गंभीरतापूर्वक)- वंशिका, मुझे इतना तो समझ आ गया है कि तुम्हारे अंदर विचारों का समुंद्र बवंडर की तरह तबाही मचा रहा है, जिसे तुमने अपने अंदर ही कहीं दबा रखा है। मैं चाहता हूँ कि तुम उसे बयाँ कर दो क्योंकि अभी तुमने ही कहा न कि अगर किसी चीज़ का दुख-दर्द अपने अंदर दबा दिया जाए तो वो छोटा-सा ज़ख्म नासूर बन जाता है।

वंशिका- ऐसी कोई बात नहीं है अंशुमन। मेरी बातों को इतना मत पकड़ा करो।

अंशुमन- झूठ मत बोलो। तुम्हारे अदंर जो दर्द दफन है, वो कहीं न कहीं मुझे महसूस हो रहा है। पर जब तक तुम बताओगी नहीं कि बात क्या है, तो मैं तुम्हारी मदद कैसे कर पाऊंगा?

वंशिका(हँसते हुए)- मैंने तुमसे मदद माँगा क्या? वैसे भी ऐसी कोई बात नहीं है। तुम बेकार में सेंटी हो रहे हो।

अंशुमन- तुम्हें बताना ही होगा।

वंशिका- कुछ रहे तो बताऊँ न, या कोई भी मंग्रहन्त बात बना दूँ।

अंशुमन- पक्का कोई बात नहीं है, वंशु?

वंशिका(झिझकते हुए)- हाँ जी, पक्का…

अंशुमन को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। पर उसने कुछ न कहना मुनासिब समझा। कुछ देर तक किसी ने कुछ न कहा। फिर वंशिका ने ही बात शुरू की।

वंशिका- देखो! सच बात तो ये है कि कल में इतनी गहरी नींद में थी कि अगर ट्रैन देरी से चल नहीं रही होती तो मैं ट्रैन पकड़ ही नहीं पाती। हड़बड़ाहट में मैं मेकअप करना ही भूल गई। इसलिए मैंने स्कार्फ़ पहना है कि लोग मुझे बिना मेकअप के देख डर न जाएं।

अंशुमन को पता था कि वो बात बदलने के लिए ये सब बोल रही है। पर उसने भी नासमझ बनने का बहाना किया।

अंशुमन- तो तुम मेकअप किट ले आती और वाशरूम जाकर मेकअप कर लेती तो कोई न डरता।

वंशिका-  अगर कोई मेरे चेहरे में पानी डालकर देख लिया होता तो..

अंशुमन (नासमझ बनते हुए)- तो?

वंशिका (चुटकी लेते हुए)- तो कुछ नहीं। सुनो मिस्टर, मैं ऐसे भी अनजान लोगों से बात नहीं करती।

अंशुमन- अच्छा! मुझसे तो कर रही बात।

वंशिका- इसको अपनी खुशनसीबी समझो। वैसे भी हम तो कल ही मिले है।

अंशुमन- इतने कम समय में ऐसा लगा, मानो कितने साल की दोस्ती हो।

वंशिका- देखा, कितनी प्यारी हूँ मैं।

अंशुमन- कुछ भी। प्यारी-व्यारी कुछ न हो तुम। मैं तो बस लड़की देखकर फ़्लर्ट करने की कोशिश कर रहा था। एम आई सक्सेसफुल?

वंशिका (बात बदलते हुए)- अच्छा अंशु, मैं तुम्हें ज्यादा तो नहीं पका रही हूँ न?

अंशुमन (आँख मारते हुए)- अब तक तो नहीं पका। आगे का पता नहीं।

वंशिका- पक भी जाओ तो क्या? सह लेना थोड़ा।

अंशुमन- तुम्हारे लिए चाँद-तारे भी ले आऊँ। पकना कौन-सी बड़ी चीज है?

वंशिका- कौन से चाँद-तारे? स्टीकर वाले?

अंशुमन- हा हा.. तो और क्या लगा तुम्हें?

वंशिका (गुस्से में) – हुँह…

अंशुमन को कुछ देर तक समझ नहीं आया कि क्या बोले? लेकिन वो अपनी वंशु से बात करते ही रहना चाहता था। वो चाहता था कि वो पल वही रुक जाए, जहाँ वो और उसकी वंशु ढेर सारी बातें करें और बस करते रहे।

अंशुमन(थोड़ी देर बाद)- अच्छा तुम्हें घर में किस नाम से बुलाया जाता है?

वंशिका-अचानक से ये सवाल कहाँ से आ गया?

अंशुमन- इतना कठिन सवाल भी नहीं है।

वंशिका- बहुत सारे नामों से। माँ ‘स्वीटू’ बुलाती थी।

अंशुमन(हँसते हुए)- आज से तुम मेरी भी स्वीटू।

वंशिका- चुप। चेप मत हो। और भी सुनो। नानी घर में बचपन में ‘कुच्चू’ और ‘कुन्नू’ बुलाया जाता था। पापा मुझे ‘बबली’ बुलाते थे।

अंशुमन- लगता है तुम्हारे घर वालों को खाना खाने का काफी शौक था।

वंशिका(संदेह में)- वो कैसे?

अंशुमन(हँसते हुए)- तुम्हारे नाम सुन कर ऐसा लग रहा जैसे किसी पकवान और मिठाई का नाम सुन रहा हूँ। हा हा..

वंशिका(गुस्से में)- चुप रहो। अच्छा, तुम्हें घर में किस नाम से पुकारा जाता है?

अंशुमन(गर्व से)- मेरे दादा मुझे राम बुलाते थे और मेरा छोटा भाई बहुत उत्पाद मचाता था, इसलिए उसको बलराम कहते थे।

वंशिका(हँसते हुए)- तुम्हारे दादू को पता नहीं था कि जिसे वो ‘राम’ समझ रहे है, वो आगे जाकर ‘रावण’ निकलेगा। हा हा..

अंशुमन- अच्छा जी, ऐसा क्या?

वंशिका- हाँ न।

अंशुमन(असमंजय में)- हाँ या न?

वंशिका(आँख मारते हुए)- हाँ…न…

अंशुमन- और माँ मुझे बचपन में ‘रानी’ बुलाती थी।

ये सुनकर वंशिका जोर-जोर से हँसने लगी और न चाहते हुए भी उसका हँसना बंद ही नहीं हो रहा था।

वंशिका(तोतलाते हुए)- ओ.. लानी हो आप..  लानी ने फ़्रॉक तो नहीं पहना न बचपन में।

अंशुमन(गुस्से में)- हुँह… इसलिए नहीं बताना चाह रहा था तुम्हें।

वंशिका(तोतलाते हुए)- ओ मेला बच्चा लूठ गया।

अंशुमन भी तोतला कर बात करने लगा।

अंशुमन(तोतलाते हुए)- मालूँगा तुम्हें।

वंशिका- मालना मत प्लीज़।

अंशुमन- नहीं मैं तो मालूँगा अब।

वंशिका(हँसते हुए)- भाग..तोतला कहीं का।

अंशुमन-अच्छा, सुनो न वंशु।

वंशिका(प्यार से)- बोलो न अंशु।

अंशुमन- एक गाना सुनाओ न।

वंशिका- उफ। सुनो, कम पिया कर।

अंशुमन(नशे में धुत शराबी की आवाज़ में) – बिना पिये काम नहीं चलता मेरा।

वंशिका- बेवड़ा कहीं का।

अंशुमन- पियोगी वंशु? एक पउवा?

वंशिका- एक से क्या होगा मेरा? पिलाओगे वो भी एक?

अंशुमन- ये लड़की तो मेरे से भी ज़्यादा बेवड़ी निकली।

वंशिका(तोतलाते हुए)- पिलाओ न लानी।

अंशुमन- आओ मेरे घर कभी। दारू की नदियाँ बहा दूँगा।

वंशिका- नदियों को बोल दो आ जाएं बहते-बहते मेरे घर की ओर।

 

बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मानो उनकी ऊर्जा हरेक ओर से वहाँ एकत्रित हो रही हो।

 

अंशुमन- अच्छा सुनो, तुम्हारे घर अगर जाऊँगा तो साथ में पिया जाएगा।

वंशिका- भाग.. तुझे पानी भी न पिलाऊँ मैं।

अंशुमन(कबीरजी का दोहा दुहराते हुए)- प्यासे को पानी पिलाया नहीं, अब अमृत पिलाकर क्या फायदा।

वंशिका(भौं उठाते हुए)- संस्कार या आस्था चैनल?

अंशुमन(हँसते हुए)- आशा राम बापू चैनल…

वंशिका(टूटी-फूटी भाषा में) – हा हा… हमरा लागत है कि तुम उसी का शिष्य बा।

अंशुमन(अपना दायाँ हाथ को आशीर्वाद देने की मुद्रा में ऊपर उठाते हुए)- जी हाँ। मी.. माइसेल्फ.. परम योगी अंशुमन उर्फ ‘पहाड़ी बाबा‘।

 

इस बात पर वंशिका, अंशुमन का बायां हाथ पकड़ कर जोर-जोर से हँसने लगी। क्षण भर में ही वंशिका को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने अपना हाथ, अंशुमन के हाथ से ढीला कर दिया।

 

अंशुमन(अचानक से)- वंशिका, मुझे इतना तो समझ आ गया है कि तुम्हारे चेहरे में कोई दाग या कुछ तो है, जो तुम छुपा रही। नहीं तो इतनी देर कोई स्कार्फ़ क्यों पहनेगा भला?

कहाँ हँसी-खुशी की बात चल रही थी और अचानक से अंशुमन का ऐसा कहना, वंशिका को मानो साँप सूंघ गया। वो भौंचक थी। पर उसने कुछ न कहा।

अंशुमन- पर मुझे कोई फर्क़ नहीं पड़ता। तुम जैसी भी दिखती हो, मुझे कोई दिक्कत नहीं। मैं तुम्हारा साथ जिंदगी भर निभाने को तैयार हूँ।

ये कहकर अंशुमन ने वंशिका के हाथों पर अपना हाथ रख दिया।

इस बार वंशिका ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और न उसका हाथ अपने हाथों से हटाया।

 

थोड़ी देर में अंशुमन की हाथों को अश्रुओं की हल्की बूँदा-बाँदी महसूस होने लगी। अंशुमन ने उस बारिश को रोकना मुनासिब नहीं समझा। वो चाहता था कि अंदर का तूफान तबाही मचाकर उस जगह को फिर शांत कर दे। लेकिन जब कुछ देर के बाद भी वो बारिश न रुकी तो अंशुमन ने वंशिका को अपने बाहुपाश में धीरे से कहीं छुपा लिया। उस सुकून से भरी जगह को पाकर वंशिका धीरे-धीरे शांत होने लगी। कई सालों के बाद उसे स्थिरता का अनुभव हो रहा था। इतने सालों तक दमन करने से जो भावनाएं कुंठित हो चुकी थी, वो खुद-ब-खुद सरल और शुद्ध होने लगी थी।

समय थम-सा गया था। ऐसा लग रहा था कि मानो वो दोनों ट्रैन में नहीं बल्कि कहीं दूर किसी वीरान से जगह में बैठे हुए हो, जहाँ उन दोनों के सिवा कोई भी न हो।  न तो उन्हें बाहर का कोई शोरगुल सुनाई दे रहा था और न ही किसी के वहाँ होने की फिक्र। वे दोनों अपनी अलग दुनिया में ही कहीं खो चुके थे। दोनों का हृदय मानो एक-दूसरे में प्रवेश कर चुका था। तारे भी इस प्यार भरे माहौल को देख खुशी से टिमटिमाने लगे थे और वे दोनों धीरे-धीरे एक गहरी निद्रा में प्रवेश कर चुके थे…

xxxxxx

 

सागर गुप्ता

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कुछ कहानियों में अनेकों कहानियां छिपी होती। शायद मेरी कहानी भी इन्हीं में से एक है।

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अध्याय 8- रात गई, बात गई

पिछले अध्याय में आपने पढ़ा कि कैसे हेरा-फेरी की घटना ने ये तो साबित कर दिया कि वंशिका, अंशुमन से ज्यादा देर गुस्सा नहीं रह सकती है। शायद उसका गुस्सा करना उसके प्यार दिखाने का ही एक तरीका है। क्या वंशिका और अंशुमन एक-दूसरे के प्यार को समझ पाएंगे, आइए देखते है…

अंशुमन- कल से हमलोग ट्रैन में है, अब तो स्कार्फ़ खोल दो।

वंशिका- मेरी मर्जी, तुम्हें क्या।

अंशुमन- सुनो, कैटरीना कैफ नहीं हो तुम, जो स्कार्फ़ खोलते ही लोग ऑटोग्राफ़ लेने के लिए तुम्हारे पास दौड़ पड़ेंगे।

वंशिका(मुंह बिचकाते हुए)- मैं कैटरिना कैफ से कम भी नहीं हूँ।

अंशुमन को वंशिका का ऐसा शरारतपूर्ण बात करना बहुत पसंद था।

अंशुमन- बहुत गंदा मज़ाक था। हँसी नहीं आई।

वंशिका- हुँह.. आईफोन वाली आंटी से जैसे सब जलते है, वैसे ही तुम मेरे अदाओं से जल रहे हो।

ये सुनकर अंशुमन को हँसी आ गई। इस हँसी में वंशिका भी उसका साथ निभा रही थी।

अंशुमन(उत्सुकता से)- बताओ न। क्यों स्कार्फ़ पहनी हो? क्या कारण है?

वंशिका- क्यों जानना है?

वंशिका के जवाब में बेरुखीपन साफ-साफ नज़र आ रही थी।

अंशुमन- बस तुम्हें देखना है।

अंशुमन ने जिद्द पकड़ ली थी।

वंशिका- क्यों देखना है? होते कौन हो, तुम मुझे देखने वाले।

अंशुमन- तेरा पति।

अंशुमन ने बिना कुछ सोचे-समझे कह दिया। पर इस पर वंशिका की प्रतिक्रिया देख वो अचंभित हो गया था। वंशिका की आँखें अचानक से नम हो गई। अंशुमन को उसकी गलती का एहसास हो गया था।

 

अंशुमन- मजाक कर रहा था वंशु।  अब तुमसे मजाक भी नहीं कर सकता?

वंशिका ने कुछ न कहा।

अंशुमन(कान पकड़ते हुए)- अच्छा सॉरी। माफ कर दो बाबा।

वंशिका(धीरे से)- कोई बात नहीं।

थोड़े देर तक वंशिका एक दम शांत हो गई थी। मानो वो शून्य में कहीं लुप्त हो गयी हो। अंशुमन को समझ नहीं आ रहा था कि वंशिका से उसने इतना मजाक किया। पर इस छोटे-से मजाक से वो इतनी क्यों विचलित हो उठी?

क्या राज है उसके चेहरे का? क्या वो कहीं से भाग कर आई है? अगर भागना ही होता, तो किसी लड़के साथ भागती। अकेला कौन भागता है, भला! तो आखिर बात क्या है? क्यों वो चेहरा दिखाने को राजी नहीं थी?

अंशुमन इन उधेड़बुन में फँसा हुआ था। तभी वंशिका की आवाज़ उसके कानों में पड़ी।

वंशिका(हँसते हुए)- अब इतना मत सोचो। मैं भूल चुकी हूँ, जो तुमने कहा। रोतलूमल…

अंशुमन- मैं रो नहीं रहा। मर्द रोते नहीं है।

वंशिका- हाँ, जैसे नारी तो हरेक बात में अश्रुवन की झड़ी लगा देती है। वैसे भी रोने या न रोने से कोई मर्द नहीं कहलाता। अगर दिल में किसी बात का दुःख हो, तो उसे अश्रु के माध्यम से बाहर निकालने में ही भलाई है। नहीं तो वो छोटा-सा ज़ख्म नासूर बन जाता है।

अंशुमन- उफ़.. तुम और तुम्हारी डायलॉगबाजी…

वंशिका ने इस पर कुछ न कहा।

अंशुमन(एक रैप गाने का बोल बोलकर)- फिर गुस्सा गई क्या? फ़ोन काट दी, मम्मी आ गयी क्या?

तभी किसी की थपकी उसके बांए हाथ में पड़ी।

अंशुमन- हाथ तोड़ दिया रे। हाथ है या हथौड़ा?

वंशिका- हा हा…थॉर का हथौड़ा है। बच के रहना।

अंशुमन (गंभीरतापूर्वक)- वंशिका, मुझे इतना तो समझ आ गया है कि तुम्हारे अंदर विचारों का समुंद्र बवंडर की तरह तबाही मचा रहा है, जिसे तुमने अपने अंदर ही कहीं दबा रखा है। मैं चाहता हूँ कि तुम उसे बयाँ कर दो क्योंकि अभी तुमने ही कहा न कि अगर किसी चीज़ का दुख-दर्द अपने अंदर दबा दिया जाए तो वो छोटा-सा ज़ख्म नासूर बन जाता है।

वंशिका- ऐसी कोई बात नहीं है अंशुमन। मेरी बातों को इतना मत पकड़ा करो।

अंशुमन- झूठ मत बोलो। तुम्हारे अदंर जो दर्द दफन है, वो कहीं न कहीं मुझे महसूस हो रहा है। पर जब तक तुम बताओगी नहीं कि बात क्या है, तो मैं तुम्हारी मदद कैसे कर पाऊंगा?

वंशिका(हँसते हुए)- मैंने तुमसे मदद माँगा क्या? वैसे भी ऐसी कोई बात नहीं है। तुम बेकार में सेंटी हो रहे हो।

अंशुमन- तुम्हें बताना ही होगा।

वंशिका- कुछ रहे तो बताऊँ न, या कोई भी मंग्रहन्त बात बना दूँ।

अंशुमन- पक्का कोई बात नहीं है, वंशु?

वंशिका(झिझकते हुए)- हाँ जी, पक्का…

अंशुमन को अब भी विश्वास नहीं हो रहा था। पर उसने कुछ न कहना मुनासिब समझा। कुछ देर तक किसी ने कुछ न कहा। फिर वंशिका ने ही बात शुरू की।

वंशिका- देखो! सच बात तो ये है कि कल में इतनी गहरी नींद में थी कि अगर ट्रैन देरी से चल नहीं रही होती तो मैं ट्रैन पकड़ ही नहीं पाती। हड़बड़ाहट में मैं मेकअप करना ही भूल गई। इसलिए मैंने स्कार्फ़ पहना है कि लोग मुझे बिना मेकअप के देख डर न जाएं।

अंशुमन को पता था कि वो बात बदलने के लिए ये सब बोल रही है। पर उसने भी नासमझ बनने का बहाना किया।

अंशुमन- तो तुम मेकअप किट ले आती और वाशरूम जाकर मेकअप कर लेती तो कोई न डरता।

वंशिका-  अगर कोई मेरे चेहरे में पानी डालकर देख लिया होता तो..

अंशुमन (नासमझ बनते हुए)- तो?

वंशिका (चुटकी लेते हुए)- तो कुछ नहीं। सुनो मिस्टर, मैं ऐसे भी अनजान लोगों से बात नहीं करती।

अंशुमन- अच्छा! मुझसे तो कर रही बात।

वंशिका- इसको अपनी खुशनसीबी समझो। वैसे भी हम तो कल ही मिले है।

अंशुमन- इतने कम समय में ऐसा लगा, मानो कितने साल की दोस्ती हो।

वंशिका- देखा, कितनी प्यारी हूँ मैं।

अंशुमन- कुछ भी। प्यारी-व्यारी कुछ न हो तुम। मैं तो बस लड़की देखकर फ़्लर्ट करने की कोशिश कर रहा था। एम आई सक्सेसफुल?

वंशिका (बात बदलते हुए)- अच्छा अंशु, मैं तुम्हें ज्यादा तो नहीं पका रही हूँ न?

अंशुमन (आँख मारते हुए)- अब तक तो नहीं पका। आगे का पता नहीं।

वंशिका- पक भी जाओ तो क्या? सह लेना थोड़ा।

अंशुमन- तुम्हारे लिए चाँद-तारे भी ले आऊँ। पकना कौन-सी बड़ी चीज है?

वंशिका- कौन से चाँद-तारे? स्टीकर वाले?

अंशुमन- हा हा.. तो और क्या लगा तुम्हें?

वंशिका (गुस्से में) – हुँह…

अंशुमन को कुछ देर तक समझ नहीं आया कि क्या बोले? लेकिन वो अपनी वंशु से बात करते ही रहना चाहता था। वो चाहता था कि वो पल वही रुक जाए, जहाँ वो और उसकी वंशु ढेर सारी बातें करें और बस करते रहे।

अंशुमन(थोड़ी देर बाद)- अच्छा तुम्हें घर में किस नाम से बुलाया जाता है?

वंशिका-अचानक से ये सवाल कहाँ से आ गया?

अंशुमन- इतना कठिन सवाल भी नहीं है।

वंशिका- बहुत सारे नामों से। माँ ‘स्वीटू’ बुलाती थी।

अंशुमन(हँसते हुए)- आज से तुम मेरी भी स्वीटू।

वंशिका- चुप। चेप मत हो। और भी सुनो। नानी घर में बचपन में ‘कुच्चू’ और ‘कुन्नू’ बुलाया जाता था। पापा मुझे ‘बबली’ बुलाते थे।

अंशुमन- लगता है तुम्हारे घर वालों को खाना खाने का काफी शौक था।

वंशिका(संदेह में)- वो कैसे?

अंशुमन(हँसते हुए)- तुम्हारे नाम सुन कर ऐसा लग रहा जैसे किसी पकवान और मिठाई का नाम सुन रहा हूँ। हा हा..

वंशिका(गुस्से में)- चुप रहो। अच्छा, तुम्हें घर में किस नाम से पुकारा जाता है?

अंशुमन(गर्व से)- मेरे दादा मुझे राम बुलाते थे और मेरा छोटा भाई बहुत उत्पाद मचाता था, इसलिए उसको बलराम कहते थे।

वंशिका(हँसते हुए)- तुम्हारे दादू को पता नहीं था कि जिसे वो ‘राम’ समझ रहे है, वो आगे जाकर ‘रावण’ निकलेगा। हा हा..

अंशुमन- अच्छा जी, ऐसा क्या?

वंशिका- हाँ न।

अंशुमन(असमंजय में)- हाँ या न?

वंशिका(आँख मारते हुए)- हाँ…न…

अंशुमन- और माँ मुझे बचपन में ‘रानी’ बुलाती थी।

ये सुनकर वंशिका जोर-जोर से हँसने लगी और न चाहते हुए भी उसका हँसना बंद ही नहीं हो रहा था।

वंशिका(तोतलाते हुए)- ओ.. लानी हो आप..  लानी ने फ़्रॉक तो नहीं पहना न बचपन में।

अंशुमन(गुस्से में)- हुँह… इसलिए नहीं बताना चाह रहा था तुम्हें।

वंशिका(तोतलाते हुए)- ओ मेला बच्चा लूठ गया।

अंशुमन भी तोतला कर बात करने लगा।

अंशुमन(तोतलाते हुए)- मालूँगा तुम्हें।

वंशिका- मालना मत प्लीज़।

अंशुमन- नहीं मैं तो मालूँगा अब।

वंशिका(हँसते हुए)- भाग..तोतला कहीं का।

अंशुमन-अच्छा, सुनो न वंशु।

वंशिका(प्यार से)- बोलो न अंशु।

अंशुमन- एक गाना सुनाओ न।

वंशिका- उफ। सुनो, कम पिया कर।

अंशुमन(नशे में धुत शराबी की आवाज़ में) – बिना पिये काम नहीं चलता मेरा।

वंशिका- बेवड़ा कहीं का।

अंशुमन- पियोगी वंशु? एक पउवा?

वंशिका- एक से क्या होगा मेरा? पिलाओगे वो भी एक?

अंशुमन- ये लड़की तो मेरे से भी ज़्यादा बेवड़ी निकली।

वंशिका(तोतलाते हुए)- पिलाओ न लानी।

अंशुमन- आओ मेरे घर कभी। दारू की नदियाँ बहा दूँगा।

वंशिका- नदियों को बोल दो आ जाएं बहते-बहते मेरे घर की ओर।

 

बातें खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मानो उनकी ऊर्जा हरेक ओर से वहाँ एकत्रित हो रही हो।

 

अंशुमन- अच्छा सुनो, तुम्हारे घर अगर जाऊँगा तो साथ में पिया जाएगा।

वंशिका- भाग.. तुझे पानी भी न पिलाऊँ मैं।

अंशुमन(कबीरजी का दोहा दुहराते हुए)- प्यासे को पानी पिलाया नहीं, अब अमृत पिलाकर क्या फायदा।

वंशिका(भौं उठाते हुए)- संस्कार या आस्था चैनल?

अंशुमन(हँसते हुए)- आशा राम बापू चैनल…

वंशिका(टूटी-फूटी भाषा में) – हा हा… हमरा लागत है कि तुम उसी का शिष्य बा।

अंशुमन(अपना दायाँ हाथ को आशीर्वाद देने की मुद्रा में ऊपर उठाते हुए)- जी हाँ। मी.. माइसेल्फ.. परम योगी अंशुमन उर्फ ‘पहाड़ी बाबा‘।

 

इस बात पर वंशिका, अंशुमन का बायां हाथ पकड़ कर जोर-जोर से हँसने लगी। क्षण भर में ही वंशिका को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने अपना हाथ, अंशुमन के हाथ से ढीला कर दिया।

 

अंशुमन(अचानक से)- वंशिका, मुझे इतना तो समझ आ गया है कि तुम्हारे चेहरे में कोई दाग या कुछ तो है, जो तुम छुपा रही। नहीं तो इतनी देर कोई स्कार्फ़ क्यों पहनेगा भला?

कहाँ हँसी-खुशी की बात चल रही थी और अचानक से अंशुमन का ऐसा कहना, वंशिका को मानो साँप सूंघ गया। वो भौंचक थी। पर उसने कुछ न कहा।

अंशुमन- पर मुझे कोई फर्क़ नहीं पड़ता। तुम जैसी भी दिखती हो, मुझे कोई दिक्कत नहीं। मैं तुम्हारा साथ जिंदगी भर निभाने को तैयार हूँ।

ये कहकर अंशुमन ने वंशिका के हाथों पर अपना हाथ रख दिया।

इस बार वंशिका ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और न उसका हाथ अपने हाथों से हटाया।

 

थोड़ी देर में अंशुमन की हाथों को अश्रुओं की हल्की बूँदा-बाँदी महसूस होने लगी। अंशुमन ने उस बारिश को रोकना मुनासिब नहीं समझा। वो चाहता था कि अंदर का तूफान तबाही मचाकर उस जगह को फिर शांत कर दे। लेकिन जब कुछ देर के बाद भी वो बारिश न रुकी तो अंशुमन ने वंशिका को अपने बाहुपाश में धीरे से कहीं छुपा लिया। उस सुकून से भरी जगह को पाकर वंशिका धीरे-धीरे शांत होने लगी। कई सालों के बाद उसे स्थिरता का अनुभव हो रहा था। इतने सालों तक दमन करने से जो भावनाएं कुंठित हो चुकी थी, वो खुद-ब-खुद सरल और शुद्ध होने लगी थी।

समय थम-सा गया था। ऐसा लग रहा था कि मानो वो दोनों ट्रैन में नहीं बल्कि कहीं दूर किसी वीरान से जगह में बैठे हुए हो, जहाँ उन दोनों के सिवा कोई भी न हो।  न तो उन्हें बाहर का कोई शोरगुल सुनाई दे रहा था और न ही किसी के वहाँ होने की फिक्र। वे दोनों अपनी अलग दुनिया में ही कहीं खो चुके थे। दोनों का हृदय मानो एक-दूसरे में प्रवेश कर चुका था। तारे भी इस प्यार भरे माहौल को देख खुशी से टिमटिमाने लगे थे और वे दोनों धीरे-धीरे एक गहरी निद्रा में प्रवेश कर चुके थे…

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सागर गुप्ता

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