सदविप्र समाज का संकल्प- रामराज्य

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30 Jul 202423 min read

Published in spiritualism

||श्री सद्गुरवे नमः||

‘समय के सद्गुरु’ स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत….

 

सदविप्र समाज का संकल्प- रामराज्य

आज का विश्व मानव एक ऐसे मुहाने पर खड़ा है जहाँ से वह आतुर दृष्टि से सद्विप्र द्वारा दिशा निर्देशन चाहता है। वह विज्ञान की भोगवादी संस्कृति से ऊब चुका है। विज्ञान के विनाशकारी आविष्कार से भयभीत है। राजनीति के पासा फेंकनेवाले सेवकों से निराश हो चुका है। समाज के साधु, संत, पादरी, मौलाना की ललचाई आँखों से व्यथित हो उठा है। वह किस पर विश्वास करे। एक-एक कर सभी पर विश्वास कर चुका है। जैसे ही वह श्रद्धासुमन विश्वस्त के चरणों में अर्पित करता है-उसका चिरपरिचित रक्षित विश्वास क्षीण होना शुरु हो जाता है। वह पथराई आँखों से अपना ही अस्तित्व लुटते देखने को बाध्य हो जाता है।

साधारण जनता कोल्हू के बैल की तरह आँख पर पट्टी बाँध कर एक ही जगह घूम रही है। तेली की मर्जी पर ही उसे भूख-प्यास लगती है। अपनी इच्छा से कुछ भी करने पर डंडे की चोट जो पड़ती है उसे भी खुशी-खुशी अनुशासित दास की तरह सहती है।

सर्वत्र शोषण का चक्र चल रहा है। सभी का खोल एवं सेवा करने का ढंग भाषण में एक-दूसरे से अच्छा है। सभी समाज के लिए ही जी रहे हैं। सभी सेवक का उद्देश्य गरीब दबे कुचले लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठाना है। सेवक ने ऊपर से तो नैतिकता की चादर ओढ़ रखी है। राम नाम की चादर ओढ़ रखी है। परन्तु जैसे ही दलित, उपेक्षित, पीड़ित उसकी शरण में जाता है वह अपना ऊपर का खोल उतार देता है। ऊपर का रहा-सहा शब्द भूल जाता है। अपने वास्तविक भेड़िए के रूप में खड़ा हो जाता है। बेचारा-बेसहारा का दिल धक्-धक् करते हुए रुक जाता है। वह अपने ऊपर विश्वास करना ही छोड़ देता है। सोचता है परमात्मा ने हमें इसी के लिए ही बनाया है। हमें इसके भाल के गोश्त के रूप में ही रहना है। इसकी इच्छा में अपनी इच्छा को समाहित कर देता है। अपना अस्तित्व उसकी खुशी के लिए सौंप देता है। अब वह भी बन जाता है उसकी दुकान का क्रेता-विक्रेता।

 

जनता की स्थिति कूड़े-कचरे की तरह-

साधारण जनता की स्थिति कूड़े-कचरे से ज्यादा नहीं है। उन्हीं के वोट से जीत कर नेता बनते हैं। बड़े-बड़े आश्वासन देकर जाते हैं। और रातों-रात देवता बन जाते हैं। अब इस कूड़े में बदबू आने लगती है। ये अछूत हो जाते हैं। इनसे दूर रहने के लिए अपने चारों तरफ कमांडो खड़े कर लेते हैं। अपना घर तथाकथित रईसों के मध्य बनाते हैं। अपनी शादी-विवाह भी अछूतों से दूर समाज के तथाकथित उच्च व्यक्ति से करते हैं। कल तक का अछूत राजनीति के शिखर पर आते ही सवर्ण बन जाता है। शादी-विवाह भी सवर्ण में करता है। अपने पूर्व के अछूत पत्नी, माता-पिता सभी का बहिष्कार कर देता है। उनसे मिलने में अपना अपमान समझता है। उसे मिल जाते हैं-नए सवर्ण माँ-बाप एवं पत्नी भी।

सवर्ण- अछूत और सवर्ण सनातन हैं, ऐसा सुनने में आता है। इनकी परिभाषा समय के अनुसार बदलती रहती है। आज जो भ्रष्ट है, चोर है, लुटेरा है, बलात्कारी है। येन केन प्रकारेण शक्ति-सम्पत्ति अधिग्रहण कर लेता है- वही सवर्ण है। वह श्रेष्ठ है। वही शासक है। वही पूज्य है। वही अनुकरणीय है। जिन्हें इसका अवसर नहीं मिला है। इसकी तलाश में हैं। दल बना रहे हैं। संगठन खड़ा कर रहे हैं। घोटाले का पर्दाफाश कर रहे हैं। जनता को जनार्दन की संज्ञा दे रहे हैं। उन्हें विभिन्न प्रकार से सब्जबाग दिखा रहे हैं-वही है विद्रोही समाज सुधारक। भेद खुलने के भय से सवर्ण इनका मुँह बंद करने का प्रयास करता है। कुछ देता है। इनके मुँह में कुछ भरता है। ये विद्रोही रातों रात अपना बयान बदल देते हैं या अज्ञात वास में अन्यत्र चले जाते हैं। यह सौदा ही वणिक् सौदा हो गया है। इनका एप्रोच निरंतर सवर्ण की तरफ बढ़ता जाता है। एक दिन सवर्ण पद को प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन पांच वर्ष के बाद अपने भाषण से अपने को अछूत, दलित ही साबित करने में लग जाते हैं। जिसमें इन्हें सफलता भी मिल जाती है।

अछूत एवं क्षत्रिय – अछूत अर्थात् साधारण वोटर वोट देते-देते अर्थात् ठगाते-ठगाते ऊब जाता है। वह सोचने लगता है सभी ठग ही हैं। किसे वोट दें, किसे न दें। तब वही सवर्ण सहारा लेता है क्षत्रियों का। आज का क्षत्रिय है-लठैत, गुंडा, पॉकेटमार, अपहरणकर्ता, देशद्रोही। जो इनके लिए बूथ कैप्चर करता है। बैलट पेपर से पेटी भरता है। शूद्र पाषाणवत खड़े-खड़े मात्र देखता है। कभी-कभी हिम्मत करके कहता है-भाई साहब आप हमारे रिश्तेदार लगते हैं-हमारे दादा जी और आपके पिताजी साथ थे। वह सवर्ण कहता है-जरा अपने को गौर से देखो, तब मुझे देखना। तुम्हारी हैसियत के मेरे नौकर भी नहीं हैं। तुम पूर्व की बातें याद रखे हुए हो, इसी से तो शूद्र हो। मेरी शादी-विवाह, माँ-बाप सभी बदल गए। भविष्य में इस तरह की बातें बोलने एवं सोचने की धृष्टता पुनः मत करना।

श्मशान – सच में देखा जाए तो पूरा देश ही लोक-सभा, विधान सभा के रास्ते से जा रहा है। जिसका अन्तिम बिन्दु है-श्मशान। आदमी मर रहे हैं। भूत-प्रेत, चुड़ैल उसे नोंच रहे हैं। खा रहे हैं। रक्त पी रहे हैं। कोई हड्डियाँ चबा रहा है। कोई मांस नोंच रहा है। सभ्यता के नाम पर नग्न लड़कियों का नृत्य हो रहा है। यह सब सरकारी लाइसेंस, परमिट लेकर सवर्ण लोग कर रहे हैं। विष (शराब, हेरोइन, चरस) बेचने वालों से सरकार टैक्स वसूलती है। इस तरह शारीरिक विष, मानसिक विष, चारित्रिक विष फैलाने वाले ही सरकार के विशिष्ट सवर्ण लोग हैं।

ईमानदारी, परिश्रम तथा त्याग का रूपातंरण हो गया है। इनकी कुर्सी पर बैठे हैं-बेईमानी, मूर्खता, आलस्य और स्वार्थ। राजनेता जनता को सामयिक नारों में उलझा कर रखने में ही अपने को चतुर समझते हैं। अभी का आलोचना का विषय है-सामाजिक न्याय, वर्ण व्यवस्था, मनु-वादी विचार धारा जिससे जनता का ध्यान अपने अधिकार से हट जाए। तभी तो सरकारी तंत्र ने अपने लिए फाइव-स्टार होटल, रेस्तरां, डिस्कोथेक, नग्न नृत्य, अशिष्ट प्रेम दृश्य, शराब के ठेके, मल्टी स्टोरी मकान, नेताओं की आलीशान समाधियाँ, विदेशी टूरिस्ट, नशा, व्याभिचार, चाकू और छुरे, बंदूक एवं तोपधारी गुंडे पाल रखे हैं।  जो जनता को पाप-पुण्य के आधार पर सुख-दुःख का निर्धारण करते हैं। उनकी क्रान्ति को धर्म की अफीम पिलाकर कुचलते हैं। जिनसे पलते हैं-चोर, डाकू, पुलिस, मंत्री, काला बजारिया, व्यापारी, जमाखोर, जे.वी.जी. जैसी धूर्त सैकड़ों सेविंग कम्पनियाँ।

स्कूल कॉलेज में हत्याएँ होती हैं। शिक्षक, रीडर, प्रोफेसर सरकार से मोटी तनख्वाह वसूलते हैं-पढ़ाने के नाम पर, प्राईवेट कोचिंग चलाते हैं। विद्यार्थी-गुरु का सम्बन्ध घिनौना हो गया है। जिस पर सरकार संसद में बहस करती है। जनता का ध्यान बहस की तरपफ आकृष्ट करती है। सतयुग का विष्णु, त्रोता का राम, द्वापर का कृष्ण ही आजकल के प्रधानमंत्री, मंत्री बन गए हैं। इन्द्रादि देवता ही सलाहकार हैं। उनके पूज्य ऋषि-मुनि ही आज के साधु महात्मा हो गए हैं। यही कारण है कि अवतारों की बाढ़ आ गई है। जिस बाढ़ में साधारण जनता डूब रही है। मर रही है। रावण-तंत्र अट्टहास कर रहा है।

त्रेता युग में आर्यावर्त की दशा

आर्यावर्त के दो राजा थे-एक दशरथ, दूसरे जनक। दोनों में दूर-दूर तक संबंध नहीं था। दोनों अपने में मस्त थे। रावण का राज्य आर्यावर्त में निःशंक विस्तार पा रहा था। दो राज्य मलद, करुष शक्तिशाली एवं समृद्ध थे। दोनों को रावण उसी तरह आत्मसात कर गया जैसे चीन तिब्बत को। भारतीय ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दे रहे हैं। जिसके एवज में हजारों वर्ग मील अपनी जमीन देनी पड़ी। ये मौनी बाबा बन गए हैं| संत में पात्रता खोजी जाती है। पात्र अर्थात् बर्तन। जो चाहो उसमें रखो। उसकी अपनी नीति नहीं है। यही हालत है आज भारत की एवं भारतीय संतों की। दोनों राज्य रावण के द्वारा अपने में मिला लिए गए। जिसका शासक ताड़का को नियुक्त किया गया। उसके सेनापति मारीच एवं सुबाहु थे। जो बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश एवं नेपाल तक शासन करते थे।

यहां शराब एवं वेश्यावृत्ति के सहारे आर्यावर्त की संस्कृति को भ्रष्ट किया जा रहा था। अधिकांश तंत्र ऋषि, देवता या दानव संस्कृति से पोषित थे। उनका मुँह बंद हो गया था। बाकी ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को राज-काज से पुफर्सत कहाँ थी। इसी तरह गौतम ने अपनी पत्नी अहिल्या के साथ इन्द्र के द्वारा बलात्कार की घटना को देखा ही नहीं बल्कि उस तरफ से आँख मूंद कर उसका परित्याग कर दिया। स्वयं राजा जनक के विद्यालय का कुलपति बनकर मिथिला के लिए प्रस्थान कर गए। साथ में अपने शैशव पुत्र शतानन्द को भी लेते गए। बेचारी अहिल्या का दोष ही क्या था? यही न गौतम की पत्नी होना। वह अकेली उपेक्षित, तिरस्कृत पाषाणवत जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो गई। कोई देवराज इन्द्र के खिलाफ बोला तक नहीं। यह कौन सा न्याय है?

सामान्य जन की चिन्ता – त्रेता में भी अवतारों की कमी नहीं थी। एक अवतार थे भगवान परशुराम जो क्षत्रियों से नाराज थे। उन्हें अपने फावड़े से मारते एवं तप करने चले जाते। जब तप से ध्यान टूटता तो धनुष-बाण उठाते एवं पुनः क्षत्रियों को मार गिराते। फिर समाधि में चले जाते। यह कौन सी भगवत्ता है। यह कौन सी सामाजिक व्यवस्था का परिवर्तित रूप है! उनके पौरुष ने इन्द्र को क्यों नहीं दंडित किया? क्यों नहीं रावण के खिलाफ खड़े हुए? जो सारे दोषों की जड़ था| आर्यावर्त को ध्वस्त करते हुए ताड़का को क्यों नहीं दंडित किया? ये तमाम प्रश्न उठ खड़े होते हैं। सामान्य जन की चिन्ता किसी-किसी में बहुत समय के अन्तराल में होती है। जो स्वयं तपयुक्त हो, त्यागी हो, करुणावान हो, ज्ञानी हो, सहज समाधि के आनन्द में हो, राजपोषित न हो, वही इस विराट कार्य को ग्रहण कर सकता है। जो राजा, वैश्य, पाशी (अर्थात् शराब या ड्रग्स का धंधा करता हो) का अन्न ग्रहण करेगा, उसकी छत्रछाया में पलेगा; उसके सम्मान की आकांक्षा करेगा, वह भीरू, कायर, डरपोक एवं राजा का चाटुकार होकर रह जाता है। सामान्य जन के प्रति उसकी संवेदना समाप्त हो जाती है। वह जाने-अनजाने अय्याश, सत्ता-लोलुप, अहंकारी बन शतरंज की चाल चलने में माहिर हो जाता है। वह सदैव राजनीतिक जोड़-तोड़ के द्वारा अपनी कुर्सी की रक्षा करने में ही तल्लीन रहेगा।

शोषितों के लिए न कभी सोचेगा न बोलने की हिम्मत जुटा पाएगा। चूंकि राजा का नमक खाकर जैसे ही खड़ा होकर बोलने की चेष्टा करेगा तब तक उसकी कुर्सी खिसक जाएगी। कौन चाहता है कुर्सी छोड़ना?

त्रेता युग में एकमात्र विश्वमित्र को चिन्ता हुई। इस पृथ्वी पर मात्र वे ही एक ऋषि थे जो राक्षस वृत्ति को देखकर अत्यन्त चिन्तित हो उठे। उन्होंने उसे कार्यरूप देने के लिए आश्रम की स्थापना की। जिसमें बच्चों को पढ़ाना शुरु किया। उनको अपने कर्त्तव्य चेतना का ज्ञान देने लगे। दो-चार विद्यार्थी से प्रारम्भ हुए विद्यालय ने आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया। उस समय मात्र राज परिवार के ही बच्चे राजर्षियों द्वारा पढ़ाए जाते थे। इस पृथ्वी पर पहले ऋषि हुए विश्वमित्र जिन्होंने सामान्य जन के लिए विद्यालय की स्थापना बिना किसी राजा की मदद के की। जिसमें चौरासी हजार विद्यार्थी विद्या ग्रहण करने लगे। सम्भवतः यह आज तक का इस सृष्टि का सबसे विशाल विश्वविद्यालय हुआ।

इस विश्वविद्यालय में विभिन्न प्रकार के शोध कार्य प्रारम्भ हुए। जो सामान्य जन के लिए उपयोगी थे। विशेष जानकारी के लिए मेरी पुस्तक ‘शिवतंत्र’, ‘कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै’ को देख सकते हैं। इनके विद्यालय में ही रावण वध का संकल्प लिया गया। राक्षस संस्कृति को समाप्त करने के लिए नीति निर्धारित की गई। रामराज्य का उद्घोष किया गया। इसे मूर्त रूप देने के लिए इनके शिष्य जगह-जगह विद्यालय खोलने लगे। जिसमें आत्मरक्षार्थ युद्ध की शिक्षा दी जाने लगी। उस समय का सबसे बड़ा आविष्कार धनुष-बाण ही था। जो मात्र राक्षस राज, आर्यावर्त के राजा तथा देवताओं के पास था। वानर, रीछ, केवटराज के पास नहीं था। उन लोगों में किसी-किसी के पास मात्र गदा थी। विश्वमित्र ने विभिन्न प्रकार के आयुध से सम्बन्धित अस्त्र-शस्त्र का आविष्कार कर दिया। जब कोई नया आविष्कार होता तब ये गायत्री मंत्र का हवन करते। स्तुति करते। जिससे राक्षस संस्कृति बेचैन हो जाती। वह ऋषि के आविष्कार में विघ्न डालती। उस समय के सर्वशक्तिमान ऋषि विश्वमित्र थे। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में वशिष्ठ जी कहते हैं- ‘ये श्रेष्ठ शक्ति, सामर्थ्यवान, ऐश्वर्यवान ऋषि  हैं। इनके साथ राम उसी तरह सुरक्षित रहेंगे जैसे अग्नि के मध्य में अमृत। इनके समान शक्तिशाली, पौरुषवान, नीतिवान, अन्वेषक, तपस्वी इस पृथ्वी पर कोई नहीं है। जिसे मैं जानता हूँ|’

 

विश्वमित्र द्वारा सद्विप्र समाज सेवा की स्थापना

विश्वमित्र ने ‘सद्विप्र समाज सेवा’ नामक संस्था स्थापित की। जिसके लिए ऋषिगण-शिष्य मंडली, पंचवटी-किष्किंधा तक फ़ैल गई। सभी अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देते। जगह-जगह एस.वी.एस.एस. के  युवा संगठन को खड़ा करते। जो स्वशासित, स्वपोषित, स्वसंचालित शिक्षा संस्थान के रूप में बदल गए। धुन के पक्वे, इच्छा शक्ति के धनी थे-विश्वमित्र। इतना होने पर भी बेचैन रहने लगे। रात-रातभर बेचैनी से आश्रम के प्रांगण में टहलते रहते। शिक्षक गण इनकी बेचैनी से उद्विग्न हो गए। राक्षसों का अत्याचार बढ़ने लगा। निरीह जनता की हत्या, लूट-पाट, बलात्कार आम बात हो गई। शराब के लिए मांस चाहिए। जीभ बढ़ गई। मदिरा-मांस का स्वाद लग गया। मन को रंगीन करने के लिए कुल पुत्रियों, कुलवधुओं के अपहरण की घटना सहज हो गई। देव एवं दानव शक्ति मिल गई। रक्षक-भक्षक बन गए। पुजारी चोर हो गया। आम जनता दमन की चक्की में पिसने को विवश हो गई। झोंपड़ी उजड़ने लगी। राजमहल पसरने लगे। फाइव स्टार होटल, कैबरे डांस धूम मचाने लगे। अधिकारी वर्ग लालची, लोभी, कपटी हो गया। झूठ बोलकर जनता को भरमाना ही इनकी विद्वता हो गई।

विश्वमित्र की आँख के सामने सारा दृश्य घूमने लगता। वे आतुर हो उठे। वे ऋषि हैं। क्रोध कब का विदा हो गया था। करुणा से भर गए। करुणा एवं ज्ञान के सम्मिलित रूप का नाम ही समाधि है। परंतु इनकी व्यथा बढ़ गई है। चांदनी रात्रि है। पूर्णिमा की छटा है। सर्वत्र प्रकाश की शीतलता है। विश्वमित्र का अन्तरतम् जल रहा है। आश्रम के ऋषिगण सो गए हैं। सारी पृथ्वी शान्त है। अशान्त है विश्वमित्र। अचानक करुण चीत्कार इनके कानों से टकराई। उस तरफ मुखातिब हुए-यह चीत्कार किसी अबला की है। ऋषिवर आश्रम के एक शिक्षक को जगाते हैं। एस.वी.एस.एस. के युवकों को शिक्षक के साथ उसी दिशा में जाने का निर्देश देते हैं।

अर्द्धरात्रि ढलने वाली है। एस.वी.एस.एस. के सेवी युवक अपने साथ एक नारी एवं दो शव लाते हैं। ऋषि का हृदय तप्त हो जाता है। दौड़ते हुए पूछते हैं-क्या हुआ? युवक बताते हैं-गुरुवर, इस अबला के साथ राजपुरुष ने बलात्कार किया है। इसकी युवा पुत्री का अपहरण किया गया है। यह लाश इसके पति की है। दूसरी इसके पुत्र की। दोष मात्र यही है कि ये लोग राजपुरुष से निवेदन कर रहे थे कि इनकी पुत्री को छोड़ दिया जाए। कल ही इसकी शादी होने वाली थी। ये लोग निषाद जाति के हैं। विश्वमित्र की आँखें आकाश की तरफ देखने लगीं। कुछ देर तक देखते रहे। मानो पत्थर हो गए। अचानक आँख नीचे की और बोले- पुत्रों! तुम लोग इस औरत को अस्पताल में ले जाओ। आश्रम के चिकित्सकों से कहो, इसकी मातृवत सेवा करें। इन लाशों का क्रियाकर्म करें। साथ ही प्रभात होते ही इसके परिवार के सदस्यों को आश्रम में लाकर उनकी उचित सुरक्षा एवं सेवा करो। एस.वी.एस.एस. के प्रमुख से कहो, मेरी यात्रा का प्रबन्ध शीघ्र करें।

विश्वमित्र का अयोध्या प्रयाण- राम-लक्ष्मण का नायक के रूप में चयन-

विश्वमित्र प्रातः तीन बजे ही अज्ञात स्थान की तरफ प्रस्थान कर गए। अयोध्या में पहुँचने पर ही ज्ञात हुआ, विश्वमित्र राम-लक्ष्मण को अपने साथ लेने आए हैं। उन्हें जल्दी है। अतएव रात्रि में ही सई नदी पर विश्राम करते हैं। राम से पूछते हैं-‘बेटा राम! आज से तुम हमारी इच्छा के अनुसार कार्य सम्पादन करोगे या अपनी इच्छा के अनुसार|’ राम यज्ञरक्षा का वचन देते हैं। विश्वमित्र कहते हैं- ‘राम! यज्ञ मेरा बहाना है। विश्वामित्र को व्यक्तिगत कोई कठिनाई नहीं है। न ही विश्व की कोई शक्ति उससे टकराने का दुस्साहस करती है। साधारण जन की समस्या ही हमारी समस्या है। यदि मेरे कार्य में मेरी इच्छा के अनुसार मदद करनी हो तो मेरे साथ चलो, अन्यथा तुम यहाँ से अयोध्या लौट जाओ। आराम से तुम भी राजमहल में सो जाओ। विश्वमित्र किसी दूसरे राम को खोजेगा। उसी में रामत्व की शक्ति भरेगा। उसी से आर्यावर्त का उद्धार कराएगा। उसी से नारीत्व की प्रतीक अहिल्या का उद्धार कराएगा|’

राम सोच में पड़ गए। लक्ष्मण उनके चिन्तन को तोड़ते हुए कहता है-‘भैया राम! मेरी माँ सुमित्रा कहती थी- विश्वमित्र को साधारण राजपोषित ऋषि ही मत समझना। त्रैलोक्य में इनसे श्रेष्ठ अभी कोई नहीं है। तुमलोग अपना भाग्य समझो जो स्वयं ये चलकर तुम लोगों को लेने आ गए। इन्हें अपना माँ-पिता, गुरु, सद्गुरु, भाग्य सृष्टा सभी कुछ समझना। इनसे तर्क कर अपना समय व्यर्थ मत करना। जो कहे उसे झट कर देना। तुम लोगों की कीर्ति इन तीनों लोकों में अमर हो जाएगी|’ राम को समझते देर नहीं लगी वे जानते थे कि सुमित्रा से ज्यादा नीतिज्ञ अयोध्या में कोई नहीं था। झट गुरुदेव के चरणों में अपने को अर्पित करते हुए बोले-‘आप जो कहें-वही करूँगा। आपकी आज्ञा का पालन करना ही मेरे जीवन का अभीष्ट है|’ विश्वमित्र बोले- ‘शीघ्र आचमन करो, एस.वी.एस.एस. के उद्देश्य को पूरा करने का संकल्प लो|’

राम को रास्ते की यात्रा में ही दिव्यास्त्र देना प्रारम्भ कर दिया। चूंकि सद्गुरु को जल्दबाजी होती है। उचित शिष्य मिलते ही बिना विलम्ब किए सभी कुछ उड़ेल देना चाहता है। सिद्धाश्रम पहुँचने से पहले ही विश्वमित्र ताड़िका को मरवा कर राक्षस राज को चुनौती देते हैं। उसके संविधान को जलाते हैं। मलद एवं करुष राज्य को मुक्त कराते हैं। मारीच-सुबाहु को खदेड़ते हैं। एक ही झटके में बिहार, उत्तर प्रदेश तथा नेपाल तक का भू-भाग मुक्त हो जाता है। जहाँ का शासन विश्वमित्र द्वारा रचित संविधान के अनुसार सद्विप्र समाज सेवा को सौंपा जाता है। सृष्टि के प्रथम गणतंत्र राज्य की स्थापना होती है। जहाँ कर्म के अनुसार वर्ण की व्यवस्था होती है। आवश्यकतानुसार साधन एवं सामर्थ्य के अनुसार काम मुहैया किया गया। हर हाथ को काम, हर शरीर को उचित सम्मान दिया गया।

एस.वी.एस.एस. का प्रमुख पद राम को सौंपना –

निषाद परिवार के साथ अन्याय करने वाले राजपुरुष को राम के हाथों कठोर दण्ड दिलवाया गया। (विशेष जानकारी के लिए मेरी पुस्तक ‘मेरे राम’ देखें) जिसका परिणाम था-आर्यावर्त के समग्र उपेक्षित जनता के हृदय के सम्राट बन गए राम। ये एस.वी.एस.एस. सेवा के प्रमुख हो गए। जिसकी शपथ गुरुदेव के द्वारा करा दी गई। साथ ही विश्व से राक्षस राज्य की समाप्ति का इनसे संकल्प ले गुरुदेव ने गुरु दक्षिणा वसूल कर ली।

राम की पूरी यात्रा का दिशा-निर्देश गुरुवर के द्वारा अभी ही निर्धारित करना अत्यावश्यक हो गया। अन्यथा बिना उद्देश्य के समाज सेवा एवं सेवक भटक जाते हैं। राजसत्ता के मद में चूर हो जाते हैं।

देवता तथा अहंकारियों को चुनौती-

ब्रह्मर्षि गौतम की पत्नी अहिल्या के यहाँ गुरुदेव राम-लक्ष्मण को ले जाते हैं। उस उपेक्षित महिला का अपनी उपस्थिति में राम के द्वारा उद्धार कराते हैं। इसका उद्धार कराकर गुरुदेव के द्वारा देवताओं के  खिलाफ सविनय अवज्ञा संग्राम छेड़ दिया गया। गौतमी को लेकर सीधे ऋषिवर मिथिला पहुँच गए। जहाँ कुलपति गौतम को अहिल्या को स्वीकार करने का कठोर आदेश दिया। साथ ही देवराज इन्द्र की शक्ति को देखने की चुनौती दे दी। उन्होंने कहा- ‘ऋषिवर! आपके जैसा ऋषि, कुलपति नारी को सम्मान नहीं देगा, तब औरों से क्या उम्मीद की जा सकती है? आप अपने कर्त्तव्यों से च्युत न हों। देवताओं एवं राक्षसों की मन-मानी अब और नहीं चलेगी। इनके उद्दण्ड होने पर कठोर दण्ड का प्रावधान ऋषि ही करता है|’

विश्वमित्र धनुर्यज्ञ की तरफ बढ़ जाते हैं। जहाँ राजा जनक स्वागत करते हैं। राम से परिचय कराते हैं। रात्रि में राम को धनुष भंग करने की तकनीक बताते हैं। सुबह यह कार्य पूर्ण कर एक तरफ क्रोधी अहंकारी तथाकथित अवतारों को चुनौती देते हैं। दूसरी तरफ जगत के समस्त दंभी, अय्याश, भ्रष्ट राक्षस एवं देव समाज के सामने शक्ति प्रदर्शन करते हैं। उचित समय पर अपने उद्देश्य से जगत को परिचित कराते हैं। जगत के सारे राजा श्री विहीन होकर शृंगाल की तरह अपने-अपने मांद में भागते हैं। वहीं एक अवतार जो विश्वमित्र की भगिनी का पुत्र अर्थात् इनका भांजा है जो नीति विरुद्ध आचरण करता है। ये मौन हैं। नीति के विरुद्ध चलने वाला न अपना होता है न पराया। वह समाज को अग्रगति देने वालों का अवरोधक होता है। जिसे शक्ति से सम्प्रेषित करना ही उचित है। ऋषि की मौनता राम के समझ में आ गई। समाज हित में स्व एवं स्वार्थ को तो बलि देना ही होगा। यह कार्य गुरुदेव अपने से ही प्रारम्भ कर मेरी अन्तिम परीक्षा लेना चाहते हैं। राम के अन्दर गुरु आज्ञा की शक्ति का संचार होता है। वे तुरंत सजग हो जाते हैं। परशुराम का परशु ग्रहण कर लेते हैं। उनका मान-मर्दन कर सद्विप्र का प्रथम पाठ पढ़ाते हैं। उन्हें आदिवासी पिछड़े, जंगली भू-भाग में जाकर उनकी सेवा करने का यज्ञ प्रारम्भ करने का आदेश देते हैं।

विश्वमित्र आश्वस्त हो जाते हैं। राम अन्तिम परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। जनता ही जनार्दन है। यह समझ गया। अपना स्वार्थ ही इसमें अवरोध है जिसे त्याग के प्रबल वेग से शमन किया जा सकता है।

राम को दिशा-निर्देश

विश्वमित्र अपनी चिन्ता से कुछ मुक्त हुए। उन्हें उचित समय पर उचित दिशा में यात्रा प्रारंभ करने की आज्ञा दी। यह भी बताया कि राम इस कार्य में तुम्हारे प्रिय से बिछुड़न हो सकती है। तुम्हारी सुख- शान्ति छीनी जा सकती है। घर मरघट बन सकता है। परन्तु तुम्हें दृढ़ प्रतिज्ञ हिमालय की भांति निरंतर आगे बढ़ना है। तुम्हारे हर कदम का मैं अवलोकन करूंगा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। जन समर्थन तुझे मिलेगा। तुम निरंतर अपने उद्देश्य की तरपफ बढ़ते जाओ।

राम! त्याग, तप, चरित्रा, चाल चिंतन ही तुम्हारी पूंजी होगी। वही तुम्हारा अस्त्र-शस्त्र होगा। सेवा ही तुम्हारा उद्देश्य होगी। समग्र की प्रसन्नता ही तुम्हारी प्रसन्नता होगी। इतना कहकर विश्वमित्र ने राम से विदा ले ली।

राम उचित समय पर गुरु के आदेशानुसार पिता की इच्छा के विरुद्ध, माँ कैकेयी का बहाना लेकर गृह त्याग करते हैं। जंगल का रास्ता लेते हैं। प्रयाग से पंचवटी तक सद्विप्र समाज सेवा रूपी संगठन तैयार करते हैं। जगह-जगह विश्वमित्र परम्परा के ऋषि इनके स्वागत में मिलते हैं। इनके संगठन के लिए संसाधन मुहैया करते हैं। कुछ विरोध भी करते हैं।

पंचवटी में सीता का रावण के द्वारा अपहरण होता है। राम-लक्ष्मण विचलित हो जाते हैं। राम विलाप करने लगते हैं। अर्धरात्रि में अपनी झोंपड़ी में बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोने लगते हैं। मानव मन हताश हो जाता है।

गुरुदेव की छाया प्रगट होती है। दृढ़ स्वर में कठोरता से कहती है- राम! तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। क्या सोच रखा है-सदा तुम ही प्रहार करोगे। तुम्हीं नाक-कान काटोगे। क्या युद्ध एकतरफा होता है! युद्ध में दोनों तरफ की क्षति होती है। वीर पुरुष का चिंतन नित्य नया होता है। आगे देखता है। भूत पर तो मृतक सोचता है। यह सेवक धर्म है राम! यदि तुम राजकुमार धर्म अपनाना चाहते हो तो लौट जाओ अयोध्या, लगभग तेरह वर्ष बीत गए हैं। आराम से महल में अय्याशी का जीवन व्यतीत करना। अथवा इन तथाकथित कायर ऋषियों से समझौता कर लो। रावण भी स्वयं चलकर तुम्हारे आश्रम में आ जाएगा। सीता को सम्मान से वापस कर देगा। सुख का संसाधन भी मुहैया करेगा। तुम उससे विद्रोह छोड़कर उससे समझौता कर लो। उसकी संस्कृति को स्वीकार कर लो। बिना झंझट के सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो। मैं किसी अन्य राम की प्रतीक्षा करूंगा। मैं अपने उद्देश्य से समझौता नहीं कर सकता पुत्र।

राम गुरुदेव के चरणों में लोट जाते हैं। अपनी मानव जनित भूल के लिए क्षमा मांगते हैं। प्रातःकाल अपने उद्देश्य की दिशा में गमन करते हैं। किष्किंधा में गौतमी का भागिनेय हनुमान मिलता है। वह भी गुरु आज्ञा में तत्पर है। दोनों में मित्रता होती है। वही हनुमान सुग्रीव से मित्रता कराता है। बाली को मारकर राम के द्वारा विश्वमित्र के सिद्धान्तानुसार प्रथम गणराज्य की स्थापना करता है। राम हनुमान को सद्विप्र समाज सेवा का प्रमुख बनाते हैं। जिनके नेतृत्व में वानर, कोल, भील, रीछ आदि जातियों में क्रान्ति का बिगुल फूंका जाता है। सभी का समग्र रूपेण परिवर्तन होता है।

हनुमान का संगठन

हनुमान और अंगद के नेतृत्व में सद्विप्र समाज सेवा सशक्त एवं संगठित होता है। लक्ष्मण का अथक परिश्रम चार चांद लगाता है। राम के दिशा निर्देशन में सेवक-समाज रावण राज की तरफ कूच कर जाता है।

रावण के वेतन भोगी अय्याश सैनिक स्वयं सेवी संगठन के सामने घुटने टेक देते हैं। अनाचार, भ्रष्टाचार, व्याभिचार अनीति पर टिका साम्राज्य चरमराकर गिर जाता है। हनुमान के द्वारा दीक्षित सद्विप्र विभीषण को गणाधिपति नियुक्त किया जाता है।

राम को संगठन के कार्य में तेरह वर्ष, ग्यारह माह, बारह दिन लगते हैं। रावण राज्य मात्र अठारह दिन में ध्वस्त हो जाता है। संगठन ही वास्तविक रूप है। इसे खड़ा करना ही कला है। जैसे मंदिर बनाने में ही कलाकारी है। प्राण प्रतिष्ठा तो अल्पकाल में हो जाती है। मंदिर के निर्माण एवं तकनीक पर ही उसका पूरा भविष्य निर्भर करता है।

आप ही सूर्य हो!

विश्व मानव आज राक्षस संस्कृति के आगोश में है| अभी पूरा भारतवर्ष राक्षस वृत्ति के अंक में फंसा है। वह कराह रहा है। यदि इससे भी ऊपर उठकर देखें तो यह आर्यावर्त का लघु रूप है। वृहद् आर्यावर्त तो पूरा विश्व है। पूरे विश्व में शंख नाद करना होगा एक छोर से दूसरे छोर तक। खाट एक तरफ ही बुना जाता है। दूसरी तरफ अपने आप बुन जाता है। आपको उठ खड़ा होना है।

रात्रि का अंधकार विशाल अवश्य दिखाई देता है। परन्तु साहसी युवक एक लघु टॉर्च के सहारे यात्रा पूरी कर लेता है। वह टॉर्च अंधेरे को तोड़ने में समर्थ होता है, जिसका स्वागत प्रभात का सूर्य अपने स्वर्ण रश्मि से मुस्कुराते हुए करता है। प्रभात की लाली लिए सूर्य भी छोटा ही प्रतीत होता है। परन्तु जैसे-जैसे उसकी प्रचण्ड किरणें बिखरती हैं वैसे-वैसे तिमिर अन्तर्ध्यान होने लगता है। फिर खोजने पर भी नहीं दिखाई देता है। तुम ही सूर्य हो। अपने अन्दर से प्रखर ज्योति को निकलने का अवसर प्रदान करो। गुरु तत्त्व तुझे आशीर्वाद देने को तत्पर है। आप मात्र माध्यम बनो। जागो-उठो| अपने स्वार्थ से अपने को मुक्त करो। जगत आतुर दृष्टि से तुम्हारी तरफ देख रहा है। मात्र तुम्हें अवसर देना है।

 

।। हरि ॐ ।।

 


‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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सदविप्र समाज का संकल्प- रामराज्य

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30 Jul 202423 min read

Published in spiritualism

||श्री सद्गुरवे नमः||

‘समय के सद्गुरु’ स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत….

 

सदविप्र समाज का संकल्प- रामराज्य

आज का विश्व मानव एक ऐसे मुहाने पर खड़ा है जहाँ से वह आतुर दृष्टि से सद्विप्र द्वारा दिशा निर्देशन चाहता है। वह विज्ञान की भोगवादी संस्कृति से ऊब चुका है। विज्ञान के विनाशकारी आविष्कार से भयभीत है। राजनीति के पासा फेंकनेवाले सेवकों से निराश हो चुका है। समाज के साधु, संत, पादरी, मौलाना की ललचाई आँखों से व्यथित हो उठा है। वह किस पर विश्वास करे। एक-एक कर सभी पर विश्वास कर चुका है। जैसे ही वह श्रद्धासुमन विश्वस्त के चरणों में अर्पित करता है-उसका चिरपरिचित रक्षित विश्वास क्षीण होना शुरु हो जाता है। वह पथराई आँखों से अपना ही अस्तित्व लुटते देखने को बाध्य हो जाता है।

साधारण जनता कोल्हू के बैल की तरह आँख पर पट्टी बाँध कर एक ही जगह घूम रही है। तेली की मर्जी पर ही उसे भूख-प्यास लगती है। अपनी इच्छा से कुछ भी करने पर डंडे की चोट जो पड़ती है उसे भी खुशी-खुशी अनुशासित दास की तरह सहती है।

सर्वत्र शोषण का चक्र चल रहा है। सभी का खोल एवं सेवा करने का ढंग भाषण में एक-दूसरे से अच्छा है। सभी समाज के लिए ही जी रहे हैं। सभी सेवक का उद्देश्य गरीब दबे कुचले लोगों का जीवन स्तर ऊपर उठाना है। सेवक ने ऊपर से तो नैतिकता की चादर ओढ़ रखी है। राम नाम की चादर ओढ़ रखी है। परन्तु जैसे ही दलित, उपेक्षित, पीड़ित उसकी शरण में जाता है वह अपना ऊपर का खोल उतार देता है। ऊपर का रहा-सहा शब्द भूल जाता है। अपने वास्तविक भेड़िए के रूप में खड़ा हो जाता है। बेचारा-बेसहारा का दिल धक्-धक् करते हुए रुक जाता है। वह अपने ऊपर विश्वास करना ही छोड़ देता है। सोचता है परमात्मा ने हमें इसी के लिए ही बनाया है। हमें इसके भाल के गोश्त के रूप में ही रहना है। इसकी इच्छा में अपनी इच्छा को समाहित कर देता है। अपना अस्तित्व उसकी खुशी के लिए सौंप देता है। अब वह भी बन जाता है उसकी दुकान का क्रेता-विक्रेता।

 

जनता की स्थिति कूड़े-कचरे की तरह-

साधारण जनता की स्थिति कूड़े-कचरे से ज्यादा नहीं है। उन्हीं के वोट से जीत कर नेता बनते हैं। बड़े-बड़े आश्वासन देकर जाते हैं। और रातों-रात देवता बन जाते हैं। अब इस कूड़े में बदबू आने लगती है। ये अछूत हो जाते हैं। इनसे दूर रहने के लिए अपने चारों तरफ कमांडो खड़े कर लेते हैं। अपना घर तथाकथित रईसों के मध्य बनाते हैं। अपनी शादी-विवाह भी अछूतों से दूर समाज के तथाकथित उच्च व्यक्ति से करते हैं। कल तक का अछूत राजनीति के शिखर पर आते ही सवर्ण बन जाता है। शादी-विवाह भी सवर्ण में करता है। अपने पूर्व के अछूत पत्नी, माता-पिता सभी का बहिष्कार कर देता है। उनसे मिलने में अपना अपमान समझता है। उसे मिल जाते हैं-नए सवर्ण माँ-बाप एवं पत्नी भी।

सवर्ण- अछूत और सवर्ण सनातन हैं, ऐसा सुनने में आता है। इनकी परिभाषा समय के अनुसार बदलती रहती है। आज जो भ्रष्ट है, चोर है, लुटेरा है, बलात्कारी है। येन केन प्रकारेण शक्ति-सम्पत्ति अधिग्रहण कर लेता है- वही सवर्ण है। वह श्रेष्ठ है। वही शासक है। वही पूज्य है। वही अनुकरणीय है। जिन्हें इसका अवसर नहीं मिला है। इसकी तलाश में हैं। दल बना रहे हैं। संगठन खड़ा कर रहे हैं। घोटाले का पर्दाफाश कर रहे हैं। जनता को जनार्दन की संज्ञा दे रहे हैं। उन्हें विभिन्न प्रकार से सब्जबाग दिखा रहे हैं-वही है विद्रोही समाज सुधारक। भेद खुलने के भय से सवर्ण इनका मुँह बंद करने का प्रयास करता है। कुछ देता है। इनके मुँह में कुछ भरता है। ये विद्रोही रातों रात अपना बयान बदल देते हैं या अज्ञात वास में अन्यत्र चले जाते हैं। यह सौदा ही वणिक् सौदा हो गया है। इनका एप्रोच निरंतर सवर्ण की तरफ बढ़ता जाता है। एक दिन सवर्ण पद को प्राप्त कर लेते हैं। लेकिन पांच वर्ष के बाद अपने भाषण से अपने को अछूत, दलित ही साबित करने में लग जाते हैं। जिसमें इन्हें सफलता भी मिल जाती है।

अछूत एवं क्षत्रिय – अछूत अर्थात् साधारण वोटर वोट देते-देते अर्थात् ठगाते-ठगाते ऊब जाता है। वह सोचने लगता है सभी ठग ही हैं। किसे वोट दें, किसे न दें। तब वही सवर्ण सहारा लेता है क्षत्रियों का। आज का क्षत्रिय है-लठैत, गुंडा, पॉकेटमार, अपहरणकर्ता, देशद्रोही। जो इनके लिए बूथ कैप्चर करता है। बैलट पेपर से पेटी भरता है। शूद्र पाषाणवत खड़े-खड़े मात्र देखता है। कभी-कभी हिम्मत करके कहता है-भाई साहब आप हमारे रिश्तेदार लगते हैं-हमारे दादा जी और आपके पिताजी साथ थे। वह सवर्ण कहता है-जरा अपने को गौर से देखो, तब मुझे देखना। तुम्हारी हैसियत के मेरे नौकर भी नहीं हैं। तुम पूर्व की बातें याद रखे हुए हो, इसी से तो शूद्र हो। मेरी शादी-विवाह, माँ-बाप सभी बदल गए। भविष्य में इस तरह की बातें बोलने एवं सोचने की धृष्टता पुनः मत करना।

श्मशान – सच में देखा जाए तो पूरा देश ही लोक-सभा, विधान सभा के रास्ते से जा रहा है। जिसका अन्तिम बिन्दु है-श्मशान। आदमी मर रहे हैं। भूत-प्रेत, चुड़ैल उसे नोंच रहे हैं। खा रहे हैं। रक्त पी रहे हैं। कोई हड्डियाँ चबा रहा है। कोई मांस नोंच रहा है। सभ्यता के नाम पर नग्न लड़कियों का नृत्य हो रहा है। यह सब सरकारी लाइसेंस, परमिट लेकर सवर्ण लोग कर रहे हैं। विष (शराब, हेरोइन, चरस) बेचने वालों से सरकार टैक्स वसूलती है। इस तरह शारीरिक विष, मानसिक विष, चारित्रिक विष फैलाने वाले ही सरकार के विशिष्ट सवर्ण लोग हैं।

ईमानदारी, परिश्रम तथा त्याग का रूपातंरण हो गया है। इनकी कुर्सी पर बैठे हैं-बेईमानी, मूर्खता, आलस्य और स्वार्थ। राजनेता जनता को सामयिक नारों में उलझा कर रखने में ही अपने को चतुर समझते हैं। अभी का आलोचना का विषय है-सामाजिक न्याय, वर्ण व्यवस्था, मनु-वादी विचार धारा जिससे जनता का ध्यान अपने अधिकार से हट जाए। तभी तो सरकारी तंत्र ने अपने लिए फाइव-स्टार होटल, रेस्तरां, डिस्कोथेक, नग्न नृत्य, अशिष्ट प्रेम दृश्य, शराब के ठेके, मल्टी स्टोरी मकान, नेताओं की आलीशान समाधियाँ, विदेशी टूरिस्ट, नशा, व्याभिचार, चाकू और छुरे, बंदूक एवं तोपधारी गुंडे पाल रखे हैं।  जो जनता को पाप-पुण्य के आधार पर सुख-दुःख का निर्धारण करते हैं। उनकी क्रान्ति को धर्म की अफीम पिलाकर कुचलते हैं। जिनसे पलते हैं-चोर, डाकू, पुलिस, मंत्री, काला बजारिया, व्यापारी, जमाखोर, जे.वी.जी. जैसी धूर्त सैकड़ों सेविंग कम्पनियाँ।

स्कूल कॉलेज में हत्याएँ होती हैं। शिक्षक, रीडर, प्रोफेसर सरकार से मोटी तनख्वाह वसूलते हैं-पढ़ाने के नाम पर, प्राईवेट कोचिंग चलाते हैं। विद्यार्थी-गुरु का सम्बन्ध घिनौना हो गया है। जिस पर सरकार संसद में बहस करती है। जनता का ध्यान बहस की तरपफ आकृष्ट करती है। सतयुग का विष्णु, त्रोता का राम, द्वापर का कृष्ण ही आजकल के प्रधानमंत्री, मंत्री बन गए हैं। इन्द्रादि देवता ही सलाहकार हैं। उनके पूज्य ऋषि-मुनि ही आज के साधु महात्मा हो गए हैं। यही कारण है कि अवतारों की बाढ़ आ गई है। जिस बाढ़ में साधारण जनता डूब रही है। मर रही है। रावण-तंत्र अट्टहास कर रहा है।

त्रेता युग में आर्यावर्त की दशा

आर्यावर्त के दो राजा थे-एक दशरथ, दूसरे जनक। दोनों में दूर-दूर तक संबंध नहीं था। दोनों अपने में मस्त थे। रावण का राज्य आर्यावर्त में निःशंक विस्तार पा रहा था। दो राज्य मलद, करुष शक्तिशाली एवं समृद्ध थे। दोनों को रावण उसी तरह आत्मसात कर गया जैसे चीन तिब्बत को। भारतीय ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दे रहे हैं। जिसके एवज में हजारों वर्ग मील अपनी जमीन देनी पड़ी। ये मौनी बाबा बन गए हैं| संत में पात्रता खोजी जाती है। पात्र अर्थात् बर्तन। जो चाहो उसमें रखो। उसकी अपनी नीति नहीं है। यही हालत है आज भारत की एवं भारतीय संतों की। दोनों राज्य रावण के द्वारा अपने में मिला लिए गए। जिसका शासक ताड़का को नियुक्त किया गया। उसके सेनापति मारीच एवं सुबाहु थे। जो बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश एवं नेपाल तक शासन करते थे।

यहां शराब एवं वेश्यावृत्ति के सहारे आर्यावर्त की संस्कृति को भ्रष्ट किया जा रहा था। अधिकांश तंत्र ऋषि, देवता या दानव संस्कृति से पोषित थे। उनका मुँह बंद हो गया था। बाकी ब्रह्मर्षि वशिष्ठ को राज-काज से पुफर्सत कहाँ थी। इसी तरह गौतम ने अपनी पत्नी अहिल्या के साथ इन्द्र के द्वारा बलात्कार की घटना को देखा ही नहीं बल्कि उस तरफ से आँख मूंद कर उसका परित्याग कर दिया। स्वयं राजा जनक के विद्यालय का कुलपति बनकर मिथिला के लिए प्रस्थान कर गए। साथ में अपने शैशव पुत्र शतानन्द को भी लेते गए। बेचारी अहिल्या का दोष ही क्या था? यही न गौतम की पत्नी होना। वह अकेली उपेक्षित, तिरस्कृत पाषाणवत जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो गई। कोई देवराज इन्द्र के खिलाफ बोला तक नहीं। यह कौन सा न्याय है?

सामान्य जन की चिन्ता – त्रेता में भी अवतारों की कमी नहीं थी। एक अवतार थे भगवान परशुराम जो क्षत्रियों से नाराज थे। उन्हें अपने फावड़े से मारते एवं तप करने चले जाते। जब तप से ध्यान टूटता तो धनुष-बाण उठाते एवं पुनः क्षत्रियों को मार गिराते। फिर समाधि में चले जाते। यह कौन सी भगवत्ता है। यह कौन सी सामाजिक व्यवस्था का परिवर्तित रूप है! उनके पौरुष ने इन्द्र को क्यों नहीं दंडित किया? क्यों नहीं रावण के खिलाफ खड़े हुए? जो सारे दोषों की जड़ था| आर्यावर्त को ध्वस्त करते हुए ताड़का को क्यों नहीं दंडित किया? ये तमाम प्रश्न उठ खड़े होते हैं। सामान्य जन की चिन्ता किसी-किसी में बहुत समय के अन्तराल में होती है। जो स्वयं तपयुक्त हो, त्यागी हो, करुणावान हो, ज्ञानी हो, सहज समाधि के आनन्द में हो, राजपोषित न हो, वही इस विराट कार्य को ग्रहण कर सकता है। जो राजा, वैश्य, पाशी (अर्थात् शराब या ड्रग्स का धंधा करता हो) का अन्न ग्रहण करेगा, उसकी छत्रछाया में पलेगा; उसके सम्मान की आकांक्षा करेगा, वह भीरू, कायर, डरपोक एवं राजा का चाटुकार होकर रह जाता है। सामान्य जन के प्रति उसकी संवेदना समाप्त हो जाती है। वह जाने-अनजाने अय्याश, सत्ता-लोलुप, अहंकारी बन शतरंज की चाल चलने में माहिर हो जाता है। वह सदैव राजनीतिक जोड़-तोड़ के द्वारा अपनी कुर्सी की रक्षा करने में ही तल्लीन रहेगा।

शोषितों के लिए न कभी सोचेगा न बोलने की हिम्मत जुटा पाएगा। चूंकि राजा का नमक खाकर जैसे ही खड़ा होकर बोलने की चेष्टा करेगा तब तक उसकी कुर्सी खिसक जाएगी। कौन चाहता है कुर्सी छोड़ना?

त्रेता युग में एकमात्र विश्वमित्र को चिन्ता हुई। इस पृथ्वी पर मात्र वे ही एक ऋषि थे जो राक्षस वृत्ति को देखकर अत्यन्त चिन्तित हो उठे। उन्होंने उसे कार्यरूप देने के लिए आश्रम की स्थापना की। जिसमें बच्चों को पढ़ाना शुरु किया। उनको अपने कर्त्तव्य चेतना का ज्ञान देने लगे। दो-चार विद्यार्थी से प्रारम्भ हुए विद्यालय ने आंदोलन का रूप ग्रहण कर लिया। उस समय मात्र राज परिवार के ही बच्चे राजर्षियों द्वारा पढ़ाए जाते थे। इस पृथ्वी पर पहले ऋषि हुए विश्वमित्र जिन्होंने सामान्य जन के लिए विद्यालय की स्थापना बिना किसी राजा की मदद के की। जिसमें चौरासी हजार विद्यार्थी विद्या ग्रहण करने लगे। सम्भवतः यह आज तक का इस सृष्टि का सबसे विशाल विश्वविद्यालय हुआ।

इस विश्वविद्यालय में विभिन्न प्रकार के शोध कार्य प्रारम्भ हुए। जो सामान्य जन के लिए उपयोगी थे। विशेष जानकारी के लिए मेरी पुस्तक ‘शिवतंत्र’, ‘कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै’ को देख सकते हैं। इनके विद्यालय में ही रावण वध का संकल्प लिया गया। राक्षस संस्कृति को समाप्त करने के लिए नीति निर्धारित की गई। रामराज्य का उद्घोष किया गया। इसे मूर्त रूप देने के लिए इनके शिष्य जगह-जगह विद्यालय खोलने लगे। जिसमें आत्मरक्षार्थ युद्ध की शिक्षा दी जाने लगी। उस समय का सबसे बड़ा आविष्कार धनुष-बाण ही था। जो मात्र राक्षस राज, आर्यावर्त के राजा तथा देवताओं के पास था। वानर, रीछ, केवटराज के पास नहीं था। उन लोगों में किसी-किसी के पास मात्र गदा थी। विश्वमित्र ने विभिन्न प्रकार के आयुध से सम्बन्धित अस्त्र-शस्त्र का आविष्कार कर दिया। जब कोई नया आविष्कार होता तब ये गायत्री मंत्र का हवन करते। स्तुति करते। जिससे राक्षस संस्कृति बेचैन हो जाती। वह ऋषि के आविष्कार में विघ्न डालती। उस समय के सर्वशक्तिमान ऋषि विश्वमित्र थे। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में वशिष्ठ जी कहते हैं- ‘ये श्रेष्ठ शक्ति, सामर्थ्यवान, ऐश्वर्यवान ऋषि  हैं। इनके साथ राम उसी तरह सुरक्षित रहेंगे जैसे अग्नि के मध्य में अमृत। इनके समान शक्तिशाली, पौरुषवान, नीतिवान, अन्वेषक, तपस्वी इस पृथ्वी पर कोई नहीं है। जिसे मैं जानता हूँ|’

 

विश्वमित्र द्वारा सद्विप्र समाज सेवा की स्थापना

विश्वमित्र ने ‘सद्विप्र समाज सेवा’ नामक संस्था स्थापित की। जिसके लिए ऋषिगण-शिष्य मंडली, पंचवटी-किष्किंधा तक फ़ैल गई। सभी अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देते। जगह-जगह एस.वी.एस.एस. के  युवा संगठन को खड़ा करते। जो स्वशासित, स्वपोषित, स्वसंचालित शिक्षा संस्थान के रूप में बदल गए। धुन के पक्वे, इच्छा शक्ति के धनी थे-विश्वमित्र। इतना होने पर भी बेचैन रहने लगे। रात-रातभर बेचैनी से आश्रम के प्रांगण में टहलते रहते। शिक्षक गण इनकी बेचैनी से उद्विग्न हो गए। राक्षसों का अत्याचार बढ़ने लगा। निरीह जनता की हत्या, लूट-पाट, बलात्कार आम बात हो गई। शराब के लिए मांस चाहिए। जीभ बढ़ गई। मदिरा-मांस का स्वाद लग गया। मन को रंगीन करने के लिए कुल पुत्रियों, कुलवधुओं के अपहरण की घटना सहज हो गई। देव एवं दानव शक्ति मिल गई। रक्षक-भक्षक बन गए। पुजारी चोर हो गया। आम जनता दमन की चक्की में पिसने को विवश हो गई। झोंपड़ी उजड़ने लगी। राजमहल पसरने लगे। फाइव स्टार होटल, कैबरे डांस धूम मचाने लगे। अधिकारी वर्ग लालची, लोभी, कपटी हो गया। झूठ बोलकर जनता को भरमाना ही इनकी विद्वता हो गई।

विश्वमित्र की आँख के सामने सारा दृश्य घूमने लगता। वे आतुर हो उठे। वे ऋषि हैं। क्रोध कब का विदा हो गया था। करुणा से भर गए। करुणा एवं ज्ञान के सम्मिलित रूप का नाम ही समाधि है। परंतु इनकी व्यथा बढ़ गई है। चांदनी रात्रि है। पूर्णिमा की छटा है। सर्वत्र प्रकाश की शीतलता है। विश्वमित्र का अन्तरतम् जल रहा है। आश्रम के ऋषिगण सो गए हैं। सारी पृथ्वी शान्त है। अशान्त है विश्वमित्र। अचानक करुण चीत्कार इनके कानों से टकराई। उस तरफ मुखातिब हुए-यह चीत्कार किसी अबला की है। ऋषिवर आश्रम के एक शिक्षक को जगाते हैं। एस.वी.एस.एस. के युवकों को शिक्षक के साथ उसी दिशा में जाने का निर्देश देते हैं।

अर्द्धरात्रि ढलने वाली है। एस.वी.एस.एस. के सेवी युवक अपने साथ एक नारी एवं दो शव लाते हैं। ऋषि का हृदय तप्त हो जाता है। दौड़ते हुए पूछते हैं-क्या हुआ? युवक बताते हैं-गुरुवर, इस अबला के साथ राजपुरुष ने बलात्कार किया है। इसकी युवा पुत्री का अपहरण किया गया है। यह लाश इसके पति की है। दूसरी इसके पुत्र की। दोष मात्र यही है कि ये लोग राजपुरुष से निवेदन कर रहे थे कि इनकी पुत्री को छोड़ दिया जाए। कल ही इसकी शादी होने वाली थी। ये लोग निषाद जाति के हैं। विश्वमित्र की आँखें आकाश की तरफ देखने लगीं। कुछ देर तक देखते रहे। मानो पत्थर हो गए। अचानक आँख नीचे की और बोले- पुत्रों! तुम लोग इस औरत को अस्पताल में ले जाओ। आश्रम के चिकित्सकों से कहो, इसकी मातृवत सेवा करें। इन लाशों का क्रियाकर्म करें। साथ ही प्रभात होते ही इसके परिवार के सदस्यों को आश्रम में लाकर उनकी उचित सुरक्षा एवं सेवा करो। एस.वी.एस.एस. के प्रमुख से कहो, मेरी यात्रा का प्रबन्ध शीघ्र करें।

विश्वमित्र का अयोध्या प्रयाण- राम-लक्ष्मण का नायक के रूप में चयन-

विश्वमित्र प्रातः तीन बजे ही अज्ञात स्थान की तरफ प्रस्थान कर गए। अयोध्या में पहुँचने पर ही ज्ञात हुआ, विश्वमित्र राम-लक्ष्मण को अपने साथ लेने आए हैं। उन्हें जल्दी है। अतएव रात्रि में ही सई नदी पर विश्राम करते हैं। राम से पूछते हैं-‘बेटा राम! आज से तुम हमारी इच्छा के अनुसार कार्य सम्पादन करोगे या अपनी इच्छा के अनुसार|’ राम यज्ञरक्षा का वचन देते हैं। विश्वमित्र कहते हैं- ‘राम! यज्ञ मेरा बहाना है। विश्वामित्र को व्यक्तिगत कोई कठिनाई नहीं है। न ही विश्व की कोई शक्ति उससे टकराने का दुस्साहस करती है। साधारण जन की समस्या ही हमारी समस्या है। यदि मेरे कार्य में मेरी इच्छा के अनुसार मदद करनी हो तो मेरे साथ चलो, अन्यथा तुम यहाँ से अयोध्या लौट जाओ। आराम से तुम भी राजमहल में सो जाओ। विश्वमित्र किसी दूसरे राम को खोजेगा। उसी में रामत्व की शक्ति भरेगा। उसी से आर्यावर्त का उद्धार कराएगा। उसी से नारीत्व की प्रतीक अहिल्या का उद्धार कराएगा|’

राम सोच में पड़ गए। लक्ष्मण उनके चिन्तन को तोड़ते हुए कहता है-‘भैया राम! मेरी माँ सुमित्रा कहती थी- विश्वमित्र को साधारण राजपोषित ऋषि ही मत समझना। त्रैलोक्य में इनसे श्रेष्ठ अभी कोई नहीं है। तुमलोग अपना भाग्य समझो जो स्वयं ये चलकर तुम लोगों को लेने आ गए। इन्हें अपना माँ-पिता, गुरु, सद्गुरु, भाग्य सृष्टा सभी कुछ समझना। इनसे तर्क कर अपना समय व्यर्थ मत करना। जो कहे उसे झट कर देना। तुम लोगों की कीर्ति इन तीनों लोकों में अमर हो जाएगी|’ राम को समझते देर नहीं लगी वे जानते थे कि सुमित्रा से ज्यादा नीतिज्ञ अयोध्या में कोई नहीं था। झट गुरुदेव के चरणों में अपने को अर्पित करते हुए बोले-‘आप जो कहें-वही करूँगा। आपकी आज्ञा का पालन करना ही मेरे जीवन का अभीष्ट है|’ विश्वमित्र बोले- ‘शीघ्र आचमन करो, एस.वी.एस.एस. के उद्देश्य को पूरा करने का संकल्प लो|’

राम को रास्ते की यात्रा में ही दिव्यास्त्र देना प्रारम्भ कर दिया। चूंकि सद्गुरु को जल्दबाजी होती है। उचित शिष्य मिलते ही बिना विलम्ब किए सभी कुछ उड़ेल देना चाहता है। सिद्धाश्रम पहुँचने से पहले ही विश्वमित्र ताड़िका को मरवा कर राक्षस राज को चुनौती देते हैं। उसके संविधान को जलाते हैं। मलद एवं करुष राज्य को मुक्त कराते हैं। मारीच-सुबाहु को खदेड़ते हैं। एक ही झटके में बिहार, उत्तर प्रदेश तथा नेपाल तक का भू-भाग मुक्त हो जाता है। जहाँ का शासन विश्वमित्र द्वारा रचित संविधान के अनुसार सद्विप्र समाज सेवा को सौंपा जाता है। सृष्टि के प्रथम गणतंत्र राज्य की स्थापना होती है। जहाँ कर्म के अनुसार वर्ण की व्यवस्था होती है। आवश्यकतानुसार साधन एवं सामर्थ्य के अनुसार काम मुहैया किया गया। हर हाथ को काम, हर शरीर को उचित सम्मान दिया गया।

एस.वी.एस.एस. का प्रमुख पद राम को सौंपना –

निषाद परिवार के साथ अन्याय करने वाले राजपुरुष को राम के हाथों कठोर दण्ड दिलवाया गया। (विशेष जानकारी के लिए मेरी पुस्तक ‘मेरे राम’ देखें) जिसका परिणाम था-आर्यावर्त के समग्र उपेक्षित जनता के हृदय के सम्राट बन गए राम। ये एस.वी.एस.एस. सेवा के प्रमुख हो गए। जिसकी शपथ गुरुदेव के द्वारा करा दी गई। साथ ही विश्व से राक्षस राज्य की समाप्ति का इनसे संकल्प ले गुरुदेव ने गुरु दक्षिणा वसूल कर ली।

राम की पूरी यात्रा का दिशा-निर्देश गुरुवर के द्वारा अभी ही निर्धारित करना अत्यावश्यक हो गया। अन्यथा बिना उद्देश्य के समाज सेवा एवं सेवक भटक जाते हैं। राजसत्ता के मद में चूर हो जाते हैं।

देवता तथा अहंकारियों को चुनौती-

ब्रह्मर्षि गौतम की पत्नी अहिल्या के यहाँ गुरुदेव राम-लक्ष्मण को ले जाते हैं। उस उपेक्षित महिला का अपनी उपस्थिति में राम के द्वारा उद्धार कराते हैं। इसका उद्धार कराकर गुरुदेव के द्वारा देवताओं के  खिलाफ सविनय अवज्ञा संग्राम छेड़ दिया गया। गौतमी को लेकर सीधे ऋषिवर मिथिला पहुँच गए। जहाँ कुलपति गौतम को अहिल्या को स्वीकार करने का कठोर आदेश दिया। साथ ही देवराज इन्द्र की शक्ति को देखने की चुनौती दे दी। उन्होंने कहा- ‘ऋषिवर! आपके जैसा ऋषि, कुलपति नारी को सम्मान नहीं देगा, तब औरों से क्या उम्मीद की जा सकती है? आप अपने कर्त्तव्यों से च्युत न हों। देवताओं एवं राक्षसों की मन-मानी अब और नहीं चलेगी। इनके उद्दण्ड होने पर कठोर दण्ड का प्रावधान ऋषि ही करता है|’

विश्वमित्र धनुर्यज्ञ की तरफ बढ़ जाते हैं। जहाँ राजा जनक स्वागत करते हैं। राम से परिचय कराते हैं। रात्रि में राम को धनुष भंग करने की तकनीक बताते हैं। सुबह यह कार्य पूर्ण कर एक तरफ क्रोधी अहंकारी तथाकथित अवतारों को चुनौती देते हैं। दूसरी तरफ जगत के समस्त दंभी, अय्याश, भ्रष्ट राक्षस एवं देव समाज के सामने शक्ति प्रदर्शन करते हैं। उचित समय पर अपने उद्देश्य से जगत को परिचित कराते हैं। जगत के सारे राजा श्री विहीन होकर शृंगाल की तरह अपने-अपने मांद में भागते हैं। वहीं एक अवतार जो विश्वमित्र की भगिनी का पुत्र अर्थात् इनका भांजा है जो नीति विरुद्ध आचरण करता है। ये मौन हैं। नीति के विरुद्ध चलने वाला न अपना होता है न पराया। वह समाज को अग्रगति देने वालों का अवरोधक होता है। जिसे शक्ति से सम्प्रेषित करना ही उचित है। ऋषि की मौनता राम के समझ में आ गई। समाज हित में स्व एवं स्वार्थ को तो बलि देना ही होगा। यह कार्य गुरुदेव अपने से ही प्रारम्भ कर मेरी अन्तिम परीक्षा लेना चाहते हैं। राम के अन्दर गुरु आज्ञा की शक्ति का संचार होता है। वे तुरंत सजग हो जाते हैं। परशुराम का परशु ग्रहण कर लेते हैं। उनका मान-मर्दन कर सद्विप्र का प्रथम पाठ पढ़ाते हैं। उन्हें आदिवासी पिछड़े, जंगली भू-भाग में जाकर उनकी सेवा करने का यज्ञ प्रारम्भ करने का आदेश देते हैं।

विश्वमित्र आश्वस्त हो जाते हैं। राम अन्तिम परीक्षा में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया। जनता ही जनार्दन है। यह समझ गया। अपना स्वार्थ ही इसमें अवरोध है जिसे त्याग के प्रबल वेग से शमन किया जा सकता है।

राम को दिशा-निर्देश

विश्वमित्र अपनी चिन्ता से कुछ मुक्त हुए। उन्हें उचित समय पर उचित दिशा में यात्रा प्रारंभ करने की आज्ञा दी। यह भी बताया कि राम इस कार्य में तुम्हारे प्रिय से बिछुड़न हो सकती है। तुम्हारी सुख- शान्ति छीनी जा सकती है। घर मरघट बन सकता है। परन्तु तुम्हें दृढ़ प्रतिज्ञ हिमालय की भांति निरंतर आगे बढ़ना है। तुम्हारे हर कदम का मैं अवलोकन करूंगा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। जन समर्थन तुझे मिलेगा। तुम निरंतर अपने उद्देश्य की तरपफ बढ़ते जाओ।

राम! त्याग, तप, चरित्रा, चाल चिंतन ही तुम्हारी पूंजी होगी। वही तुम्हारा अस्त्र-शस्त्र होगा। सेवा ही तुम्हारा उद्देश्य होगी। समग्र की प्रसन्नता ही तुम्हारी प्रसन्नता होगी। इतना कहकर विश्वमित्र ने राम से विदा ले ली।

राम उचित समय पर गुरु के आदेशानुसार पिता की इच्छा के विरुद्ध, माँ कैकेयी का बहाना लेकर गृह त्याग करते हैं। जंगल का रास्ता लेते हैं। प्रयाग से पंचवटी तक सद्विप्र समाज सेवा रूपी संगठन तैयार करते हैं। जगह-जगह विश्वमित्र परम्परा के ऋषि इनके स्वागत में मिलते हैं। इनके संगठन के लिए संसाधन मुहैया करते हैं। कुछ विरोध भी करते हैं।

पंचवटी में सीता का रावण के द्वारा अपहरण होता है। राम-लक्ष्मण विचलित हो जाते हैं। राम विलाप करने लगते हैं। अर्धरात्रि में अपनी झोंपड़ी में बच्चे की तरह फूट-फूट कर रोने लगते हैं। मानव मन हताश हो जाता है।

गुरुदेव की छाया प्रगट होती है। दृढ़ स्वर में कठोरता से कहती है- राम! तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। क्या सोच रखा है-सदा तुम ही प्रहार करोगे। तुम्हीं नाक-कान काटोगे। क्या युद्ध एकतरफा होता है! युद्ध में दोनों तरफ की क्षति होती है। वीर पुरुष का चिंतन नित्य नया होता है। आगे देखता है। भूत पर तो मृतक सोचता है। यह सेवक धर्म है राम! यदि तुम राजकुमार धर्म अपनाना चाहते हो तो लौट जाओ अयोध्या, लगभग तेरह वर्ष बीत गए हैं। आराम से महल में अय्याशी का जीवन व्यतीत करना। अथवा इन तथाकथित कायर ऋषियों से समझौता कर लो। रावण भी स्वयं चलकर तुम्हारे आश्रम में आ जाएगा। सीता को सम्मान से वापस कर देगा। सुख का संसाधन भी मुहैया करेगा। तुम उससे विद्रोह छोड़कर उससे समझौता कर लो। उसकी संस्कृति को स्वीकार कर लो। बिना झंझट के सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो। मैं किसी अन्य राम की प्रतीक्षा करूंगा। मैं अपने उद्देश्य से समझौता नहीं कर सकता पुत्र।

राम गुरुदेव के चरणों में लोट जाते हैं। अपनी मानव जनित भूल के लिए क्षमा मांगते हैं। प्रातःकाल अपने उद्देश्य की दिशा में गमन करते हैं। किष्किंधा में गौतमी का भागिनेय हनुमान मिलता है। वह भी गुरु आज्ञा में तत्पर है। दोनों में मित्रता होती है। वही हनुमान सुग्रीव से मित्रता कराता है। बाली को मारकर राम के द्वारा विश्वमित्र के सिद्धान्तानुसार प्रथम गणराज्य की स्थापना करता है। राम हनुमान को सद्विप्र समाज सेवा का प्रमुख बनाते हैं। जिनके नेतृत्व में वानर, कोल, भील, रीछ आदि जातियों में क्रान्ति का बिगुल फूंका जाता है। सभी का समग्र रूपेण परिवर्तन होता है।

हनुमान का संगठन

हनुमान और अंगद के नेतृत्व में सद्विप्र समाज सेवा सशक्त एवं संगठित होता है। लक्ष्मण का अथक परिश्रम चार चांद लगाता है। राम के दिशा निर्देशन में सेवक-समाज रावण राज की तरफ कूच कर जाता है।

रावण के वेतन भोगी अय्याश सैनिक स्वयं सेवी संगठन के सामने घुटने टेक देते हैं। अनाचार, भ्रष्टाचार, व्याभिचार अनीति पर टिका साम्राज्य चरमराकर गिर जाता है। हनुमान के द्वारा दीक्षित सद्विप्र विभीषण को गणाधिपति नियुक्त किया जाता है।

राम को संगठन के कार्य में तेरह वर्ष, ग्यारह माह, बारह दिन लगते हैं। रावण राज्य मात्र अठारह दिन में ध्वस्त हो जाता है। संगठन ही वास्तविक रूप है। इसे खड़ा करना ही कला है। जैसे मंदिर बनाने में ही कलाकारी है। प्राण प्रतिष्ठा तो अल्पकाल में हो जाती है। मंदिर के निर्माण एवं तकनीक पर ही उसका पूरा भविष्य निर्भर करता है।

आप ही सूर्य हो!

विश्व मानव आज राक्षस संस्कृति के आगोश में है| अभी पूरा भारतवर्ष राक्षस वृत्ति के अंक में फंसा है। वह कराह रहा है। यदि इससे भी ऊपर उठकर देखें तो यह आर्यावर्त का लघु रूप है। वृहद् आर्यावर्त तो पूरा विश्व है। पूरे विश्व में शंख नाद करना होगा एक छोर से दूसरे छोर तक। खाट एक तरफ ही बुना जाता है। दूसरी तरफ अपने आप बुन जाता है। आपको उठ खड़ा होना है।

रात्रि का अंधकार विशाल अवश्य दिखाई देता है। परन्तु साहसी युवक एक लघु टॉर्च के सहारे यात्रा पूरी कर लेता है। वह टॉर्च अंधेरे को तोड़ने में समर्थ होता है, जिसका स्वागत प्रभात का सूर्य अपने स्वर्ण रश्मि से मुस्कुराते हुए करता है। प्रभात की लाली लिए सूर्य भी छोटा ही प्रतीत होता है। परन्तु जैसे-जैसे उसकी प्रचण्ड किरणें बिखरती हैं वैसे-वैसे तिमिर अन्तर्ध्यान होने लगता है। फिर खोजने पर भी नहीं दिखाई देता है। तुम ही सूर्य हो। अपने अन्दर से प्रखर ज्योति को निकलने का अवसर प्रदान करो। गुरु तत्त्व तुझे आशीर्वाद देने को तत्पर है। आप मात्र माध्यम बनो। जागो-उठो| अपने स्वार्थ से अपने को मुक्त करो। जगत आतुर दृष्टि से तुम्हारी तरफ देख रहा है। मात्र तुम्हें अवसर देना है।

 

।। हरि ॐ ।।

 


‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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