वो बचपन

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reetika rashmi

19 Aug 20243 min read

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वो बचपन

वो भी क्या दिन थे जब मैं अपने गाँव सनोखर भागलपुर जाया करती थी अपने माँ पिताजी भाई के साथ । दादा जी और बुढ़िया दादी यानी( पिताजी की दादी ) हमारा बेसब्री से इंतज़ार करते थे ।जैसे ही पहुँचती थी वैसे ही दादी के एक डब्बे में रखी हुई मिठाई हमारे लिए तैयार रहती थी ।दादा जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहता था ।हमारे लिए इंतजार करना, हमे हर वो चीज़ खिलाने को तैयार रहना ।वो मूढ़ी -घूघनी खाने के बाद जो सुकून मिलता था, काफ़ी पीछे रह गया ।

अगर बात कहूँ तो जन्म भले राँची में हुई, पर जो सुख गाँव की मिट्टी में मिली वो भूलना तो हो ही नहीं सकता ।

मैं और मेरा परिवार गर्मी और ठण्डे की छुट्टी में अक्सर गांव जाया करते थे ।हमने हर वो आनंद लिया जो आज कई लोग नहीं ले पाते । 12 साल हो गये गाँव गये हुए, पर आज भी वो मिट्टी की खुशबू समेटे हुए हूँ इस मन के अन्दर । आज मैंने जो भी संस्कार पाए वह गांव से मिले, वह स्नेह जो मिला उसकी तुलना आज भी नहीं कर सकती एक-एक दिन मानो खुशी से से भरा रहा।

फागुन का महिना था और होली का त्योहार एक साल हमने होली गांव में मनाने का सोचा। मुझें वह होली आज भी नहीं भुलती, गांव के पकवान का स्वाद आज भी याद है वह पूरा जो कि दादी आटा से बनाया करती थी सिल-बट्टे पर पीसी हुई लहसुन की चटनी और साथ में वह सिल-बट्टे की पीसी हुई मसाले वाली सब्जी उसके के स्वाद की बात ही अलग थी। चाचा चाची सभी बहुत खुश हुआ करते थे। दादी आंगन जब जाती थी तो रसोई में बिठाकर हमें पूछ-पूछ कर खाना खिलाती थी। हम सब बहाने से एक साथ गांव घूमने को चले जाते, और चने की साग तोड़ने का आनंद लेते जब पूरा परिवार सम्मिलित होता था । तो मानो ऐसा लगता था कि घर में कोई त्योहार है।

आज बाहरी दुनिया में हम इतना खो चुके हैं कि आज बच्चे आनंद नहीं ले पाते जो मैंने वक्त आनंद लिया। हमारे स्कूल की जो भी लंबी छुट्टी होती थी वह नानी घर और दादी घर में पूरी होती थी, परिवार से कैसे जुड़ना है, कैसे लोग कम में भी खुश रहते हैं – वह शिक्षा मैंने वहां ही पाई। छोटी-छोटी खुशियों में जो जीने का मजा है उसकी कोई तुलना नहीं। गांवों में प्रेरणा की कमी नहीं, बस समझने की जरूरत है। 

रितिका रश्मि

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वो भी क्या दिन थे जब मैं अपने गाँव सनोखर भागलपुर जाया करती थी अपने माँ पिताजी भाई के साथ । दादा जी और बुढ़िया दादी यानी( पिताजी की दादी ) हमारा बेसब्री से इंतज़ार करते थे ।जैसे ही पहुँचती थी वैसे ही दादी के एक डब्बे में रखी हुई मिठाई हमारे लिए तैयार रहती थी ।दादा जी की खुशी का ठिकाना नहीं रहता था ।हमारे लिए इंतजार करना, हमे हर वो चीज़ खिलाने को तैयार रहना ।वो मूढ़ी -घूघनी खाने के बाद जो सुकून मिलता था, काफ़ी पीछे रह गया ।

अगर बात कहूँ तो जन्म भले राँची में हुई, पर जो सुख गाँव की मिट्टी में मिली वो भूलना तो हो ही नहीं सकता ।

मैं और मेरा परिवार गर्मी और ठण्डे की छुट्टी में अक्सर गांव जाया करते थे ।हमने हर वो आनंद लिया जो आज कई लोग नहीं ले पाते । 12 साल हो गये गाँव गये हुए, पर आज भी वो मिट्टी की खुशबू समेटे हुए हूँ इस मन के अन्दर । आज मैंने जो भी संस्कार पाए वह गांव से मिले, वह स्नेह जो मिला उसकी तुलना आज भी नहीं कर सकती एक-एक दिन मानो खुशी से से भरा रहा।

फागुन का महिना था और होली का त्योहार एक साल हमने होली गांव में मनाने का सोचा। मुझें वह होली आज भी नहीं भुलती, गांव के पकवान का स्वाद आज भी याद है वह पूरा जो कि दादी आटा से बनाया करती थी सिल-बट्टे पर पीसी हुई लहसुन की चटनी और साथ में वह सिल-बट्टे की पीसी हुई मसाले वाली सब्जी उसके के स्वाद की बात ही अलग थी। चाचा चाची सभी बहुत खुश हुआ करते थे। दादी आंगन जब जाती थी तो रसोई में बिठाकर हमें पूछ-पूछ कर खाना खिलाती थी। हम सब बहाने से एक साथ गांव घूमने को चले जाते, और चने की साग तोड़ने का आनंद लेते जब पूरा परिवार सम्मिलित होता था । तो मानो ऐसा लगता था कि घर में कोई त्योहार है।

आज बाहरी दुनिया में हम इतना खो चुके हैं कि आज बच्चे आनंद नहीं ले पाते जो मैंने वक्त आनंद लिया। हमारे स्कूल की जो भी लंबी छुट्टी होती थी वह नानी घर और दादी घर में पूरी होती थी, परिवार से कैसे जुड़ना है, कैसे लोग कम में भी खुश रहते हैं – वह शिक्षा मैंने वहां ही पाई। छोटी-छोटी खुशियों में जो जीने का मजा है उसकी कोई तुलना नहीं। गांवों में प्रेरणा की कमी नहीं, बस समझने की जरूरत है। 

रितिका रश्मि

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