सोमनाथ का मंदिर तोड़ना

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28 Jul 20247 min read

Published in spiritualism

सोमनाथ का मंदिर तोड़ना

जिस देश के लोग उद्यमी रहे हैं, वही देश साहसी, बहादुर तथा धन-धान्य सम्पन्न रहा है। शंकराचार्य के आने के बाद इस देश में कायरता, अकर्मण्यता तथा काहिलता का बाहुल्य हो गया। यद्यपि इसका बीजारोपण तो बुद्ध के समय में हो गया था, किन्तु यह विशाल वृक्ष बना, शंकराचार्य के जमाने में ही। उन्होंने ही इसे खाद-पानी देकर उचित वातावरण दिया फलने-फूलने तथा उन्नत होने का। शास्त्रों की वेश-भूषा ओढ़कर, पुराणों की कथा में प्रवेश कर, संस्कृत ग्रन्थों का अर्थ बदलकर, भारतीय उद्यम को नपुंसक बना दिया। तथाकथित श्रेष्ठ जाति के लोग अपने को पूज्य घोषित कर लिये। शोषण का क्रम शुरू हो गया। खटमल या जोंक की तरह। उनका शोषण तो फिर भी पता चलता है शोषित व्यक्ति को परन्तु इनका तो पता भी नहीं चलता क्योंकि यह शुरू हुआ पाप-पुण्य के नाम पर, स्वर्ग-नरक के नाम पर। तुम मुझे दान दो- मैं तुम्हें स्वर्ग दूंगा। स्वर्ग के नाम पर यह परजीवी धन्धा शुरु हो गया। अब लोग अफीम के नशे की तरह तथाकथित यज्ञ, पत्थर पूजा, तीर्थव्रत की तरफ अग्रसरित हो चले। बैठे-बैठे पूजा और भेंट चढ़ने लगी। धूर्त्तता का बाजार गर्म हो गया। लोग भीरू, काहिल, नपुंसक बनते चले गये। चलो अबके जन्म में कुछ नहीं मिला तो अगले जन्म में मिल जायेगा। अब विदेशियों का आक्रमण भी शुरू हो गया। हम लूटे जाने लगे।

मुहम्मद गजनी 1000 ई. से ही विभिन्न दिशाओं से भारत पर आक्रमण शुरु कर दिया था, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। बार-बार असफल होने के बावजूद भी वह हिम्मत नहीं हारा। सन् 1026 में सोमनाथ की तरफ से आक्रमण कर दिया। कुछ राजाओं ने रास्ते में रोकने का प्रयास किया। उन्हें सफलता भी मिली, किन्तु सोमनाथ मंदिर का पुजारी यही कहता रहा कि ‘सबकी रक्षा तो भगवान शंकर करते हैं, फिर इनकी रक्षा करने की हिम्मत कौन कर सकता है।’ महमूद गजनी जब मन्दिर के निकट पहुंच गया तो बहुत सारे राजाओं ने मन्दिर को अपने घेरे में ले लिया। औरतों ने भी तलवार खींच ली, परन्तु महंत जी बोले कि भगवान सोमनाथ उसे भस्म कर देंगे। तुम लोग चिन्ता छोड़ दो तथा घेरा हटाकर निश्चिन्त हो जाओ।

मन्दिर अपार सम्पत्तियों-हीरा, मोती, जवाहरात से भरा पड़ा था। चारों तरफ खाई थी, जो जल से भरी थी। ऊपर से राजपूत लोग घेरा डाले पडे़ थे। क्षत्राणियां भी एक हाथ में तलवार तथा दूसरे हाथ में अग्नि लेकर बाहर निकल पड़ीं। पूरे संकल्प के साथ उतरी थीं, सांस रहने तक लड़ने की। उनका यह उत्साह तथा उल्लास देखकर गजनी हिम्मत हार गया। लौटने की सोच रहा था, क्योंकि सैनिकों की रसद समाप्त हो गयी थी। वे भागने पर आमादा हो गये थे।

देश का दुर्भाग्य कि मन्दिर में एक सुरंग थी जो पानी की खाई पार कर सीधे बाहर जंगलों में खुलती थी, जहां गजनी ने अपने सैनिकों के साथ डेरा डाल रखा था। इसका भेद सिर्फ वहां के पुजारी ही जानते थे। अर्द्ध रात्रि में एक पुजारी इस गुप्त रास्ते से गजनी के पास पहुंच गया। उसको देखकर गजनी को आश्चर्य हुआ कि यह कैसे आ गया। वह लुटेरा था। धूर्त्त था। पूछा- कैसे आ गए पुजारी जी? किधर से आए? क्या कष्ट है आपको? वह बोला-महाराज मैं मन्दिर का पुजारी हूं। मैं जानता हूं कि आप मन्दिर में प्रवेश करना चाहते हैं, परन्तु मेरे सहयोग के बिना किसी तरह भी यह सम्भव नहीं है। यदि आप मुझे एक वचन दें तो मैं मन्दिर में पहुंचने का रास्ता बता सकता हूं और आप बिना रोक-टोक उसमें प्रवेश कर जायेंगे। गजनी अत्यन्त खुश हो उठा। बोला-अवश्य महाराज! अवश्य पण्डित जी! आप जो कहेंगे वही मानूंगा। पुजारी ने अर्ज किया-आप मुझे प्रधान पुजारी नियुक्त कर देना। मैं आपको रास्ता बता दूंगा। गजनी को क्या चाहिए था। तुरन्त सहमत हो गया।

पुजारी बोला-आप इस सुरंग से सीधे मन्दिर में प्रवेश कर जायेंगे। अपार सम्पदा है यहां। पूरे भारत की ही सम्पत्ति है इस मन्दिर में। आप सम्पत्ति ले लेना और मुझे प्रधान पुजारी बना देना। गजनी खुशी-खुशी अपने सैनिकों के साथ मन्दिर में प्रवेश कर गया। परिणामस्वरूप पीछे से हुए हमले में सारे राजपूत-राजपूतानियां तथा वीरांगनाएं मारी गयीं। गजनी ने पुजारी को प्रधान पुजारी बनाने हेतु बुलाया। वह खुशी-खुशी झूमते हुए आरती का थाल लेकर आगे बढ़ा। गजनी ने अपने घोडे़ पर बैठे-बैठे पुजारी की लम्बी चोटी को एक हाथ से पकड़कर उसे ऊपर उठा लिया। बोला-जो अपनों का नहीं हुआ वह मेरा क्या हो सकता है। तू धूर्त्त है, अवसरवादी है, मेरे अल्ला ताला इसे स्वीकार करो, कहकर उसकी गर्दन काट दिया। मन्दिर का धन देखकर विक्षिप्त होने लगा सपने में भी नहीं सोचा था इतना धन देखने को मिलेगा कभी।

चार खम्भों के मध्य में स्थित शिवलिंग ऊपर चमक रहा था। जो अपने आप में आश्चर्य था। गजनी ने एक खम्भे को तोड़ दिया तो वह तीन खम्भों के बीच ठहर गया। अब गजनी ने सोचा कि यह कोई करिश्मा या चमत्कार नहीं, बल्कि चुम्बकत्व के सिद्धान्त के आधार पर ही इसे टिकाया गया है। जब दूसरे खम्भे को तोड़ा तो दो खम्भों के मध्य टिककर रह गया। तीसरे को तोड़ा तो एक खम्भे से सट गया और जब उसे भी तोड़ दिया तो धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। फिर गजनी ने उस पत्थर को तोड़ा तो बेशकीमती हीरे बाहर निकले। हजारों हाथी, हजारों ऊँटों पर तमाम जवाहरात तथा हीरे-मोती लाद कर वापस अपने वतन चला गया।

इस प्रकार लूट का सिलसिला शुरु हुआ। भारतीय आध्यात्मविदों ने कह दिया-क्या लूटा! किसको मारा! जो लूटा वह तो मिथ्या है। जिस शरीर को मारा वह तो पहले भी मरा हुआ था, आत्मा ही सत्य है। वही अमर है। उसे कैसे मारेगा।

इस देश की इज्जत लुट गई। धन लुट गया। परिश्रम भी, उद्यम भी सब लूट लिया गया। कुटीर उद्योग लूट लिया गया। गृह उद्योग, कला का नाश हो गया। अस्मिता भी जाती रही।

मुसलमानों के आक्रमण के बाद आ गये अंग्रेज। उन्होंने देश को बुरी तरह गुलामी की जंजीरों में कस दिया, जिससे बचा-खुचा अस्तित्व भी जाता रहा। ये तथाकथित आध्यात्मिक लोग फिर भी व्यस्त रहे, समाज में छुआ-छूत, ऊँच-नीच के बहाने समाज को तोड़ने में। अपने, अपनों से ही लड़ते रहे। गृह में फूट पड़ गयी और जब घर फूटेगा तो देश तो फूटेगा ही, टूटेगा ही।

उद्यम एक-दूसरे को जोड़ता है । उद्यम पहले व्यक्ति को, फिर  समाज को, फिर देश को और फिर विश्व को सशक्त बनाता है, स्वालम्बी बनाता है, आदर्शवादी बनाता है। यही धार्मिकता के लक्षण हैं। दीन-अकिंचन और भूखे को रोटी चाहिए। यदि यह रोटी उसे सम्मान प्राप्त करनी है, भीख के रूप में नहीं प्राप्त करनी है तो उसे हाथ से उद्यम करना ही होगा। रोटी अपने आप आ जायेगी।

||हरि ॐ||

 

 

‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै’ से उद्धृत…

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‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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जिस देश के लोग उद्यमी रहे हैं, वही देश साहसी, बहादुर तथा धन-धान्य सम्पन्न रहा है। शंकराचार्य के आने के बाद इस देश में कायरता, अकर्मण्यता तथा काहिलता का बाहुल्य हो गया। यद्यपि इसका बीजारोपण तो बुद्ध के समय में हो गया था, किन्तु यह विशाल वृक्ष बना, शंकराचार्य के जमाने में ही। उन्होंने ही इसे खाद-पानी देकर उचित वातावरण दिया फलने-फूलने तथा उन्नत होने का। शास्त्रों की वेश-भूषा ओढ़कर, पुराणों की कथा में प्रवेश कर, संस्कृत ग्रन्थों का अर्थ बदलकर, भारतीय उद्यम को नपुंसक बना दिया। तथाकथित श्रेष्ठ जाति के लोग अपने को पूज्य घोषित कर लिये। शोषण का क्रम शुरू हो गया। खटमल या जोंक की तरह। उनका शोषण तो फिर भी पता चलता है शोषित व्यक्ति को परन्तु इनका तो पता भी नहीं चलता क्योंकि यह शुरू हुआ पाप-पुण्य के नाम पर, स्वर्ग-नरक के नाम पर। तुम मुझे दान दो- मैं तुम्हें स्वर्ग दूंगा। स्वर्ग के नाम पर यह परजीवी धन्धा शुरु हो गया। अब लोग अफीम के नशे की तरह तथाकथित यज्ञ, पत्थर पूजा, तीर्थव्रत की तरफ अग्रसरित हो चले। बैठे-बैठे पूजा और भेंट चढ़ने लगी। धूर्त्तता का बाजार गर्म हो गया। लोग भीरू, काहिल, नपुंसक बनते चले गये। चलो अबके जन्म में कुछ नहीं मिला तो अगले जन्म में मिल जायेगा। अब विदेशियों का आक्रमण भी शुरू हो गया। हम लूटे जाने लगे।

मुहम्मद गजनी 1000 ई. से ही विभिन्न दिशाओं से भारत पर आक्रमण शुरु कर दिया था, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। बार-बार असफल होने के बावजूद भी वह हिम्मत नहीं हारा। सन् 1026 में सोमनाथ की तरफ से आक्रमण कर दिया। कुछ राजाओं ने रास्ते में रोकने का प्रयास किया। उन्हें सफलता भी मिली, किन्तु सोमनाथ मंदिर का पुजारी यही कहता रहा कि ‘सबकी रक्षा तो भगवान शंकर करते हैं, फिर इनकी रक्षा करने की हिम्मत कौन कर सकता है।’ महमूद गजनी जब मन्दिर के निकट पहुंच गया तो बहुत सारे राजाओं ने मन्दिर को अपने घेरे में ले लिया। औरतों ने भी तलवार खींच ली, परन्तु महंत जी बोले कि भगवान सोमनाथ उसे भस्म कर देंगे। तुम लोग चिन्ता छोड़ दो तथा घेरा हटाकर निश्चिन्त हो जाओ।

मन्दिर अपार सम्पत्तियों-हीरा, मोती, जवाहरात से भरा पड़ा था। चारों तरफ खाई थी, जो जल से भरी थी। ऊपर से राजपूत लोग घेरा डाले पडे़ थे। क्षत्राणियां भी एक हाथ में तलवार तथा दूसरे हाथ में अग्नि लेकर बाहर निकल पड़ीं। पूरे संकल्प के साथ उतरी थीं, सांस रहने तक लड़ने की। उनका यह उत्साह तथा उल्लास देखकर गजनी हिम्मत हार गया। लौटने की सोच रहा था, क्योंकि सैनिकों की रसद समाप्त हो गयी थी। वे भागने पर आमादा हो गये थे।

देश का दुर्भाग्य कि मन्दिर में एक सुरंग थी जो पानी की खाई पार कर सीधे बाहर जंगलों में खुलती थी, जहां गजनी ने अपने सैनिकों के साथ डेरा डाल रखा था। इसका भेद सिर्फ वहां के पुजारी ही जानते थे। अर्द्ध रात्रि में एक पुजारी इस गुप्त रास्ते से गजनी के पास पहुंच गया। उसको देखकर गजनी को आश्चर्य हुआ कि यह कैसे आ गया। वह लुटेरा था। धूर्त्त था। पूछा- कैसे आ गए पुजारी जी? किधर से आए? क्या कष्ट है आपको? वह बोला-महाराज मैं मन्दिर का पुजारी हूं। मैं जानता हूं कि आप मन्दिर में प्रवेश करना चाहते हैं, परन्तु मेरे सहयोग के बिना किसी तरह भी यह सम्भव नहीं है। यदि आप मुझे एक वचन दें तो मैं मन्दिर में पहुंचने का रास्ता बता सकता हूं और आप बिना रोक-टोक उसमें प्रवेश कर जायेंगे। गजनी अत्यन्त खुश हो उठा। बोला-अवश्य महाराज! अवश्य पण्डित जी! आप जो कहेंगे वही मानूंगा। पुजारी ने अर्ज किया-आप मुझे प्रधान पुजारी नियुक्त कर देना। मैं आपको रास्ता बता दूंगा। गजनी को क्या चाहिए था। तुरन्त सहमत हो गया।

पुजारी बोला-आप इस सुरंग से सीधे मन्दिर में प्रवेश कर जायेंगे। अपार सम्पदा है यहां। पूरे भारत की ही सम्पत्ति है इस मन्दिर में। आप सम्पत्ति ले लेना और मुझे प्रधान पुजारी बना देना। गजनी खुशी-खुशी अपने सैनिकों के साथ मन्दिर में प्रवेश कर गया। परिणामस्वरूप पीछे से हुए हमले में सारे राजपूत-राजपूतानियां तथा वीरांगनाएं मारी गयीं। गजनी ने पुजारी को प्रधान पुजारी बनाने हेतु बुलाया। वह खुशी-खुशी झूमते हुए आरती का थाल लेकर आगे बढ़ा। गजनी ने अपने घोडे़ पर बैठे-बैठे पुजारी की लम्बी चोटी को एक हाथ से पकड़कर उसे ऊपर उठा लिया। बोला-जो अपनों का नहीं हुआ वह मेरा क्या हो सकता है। तू धूर्त्त है, अवसरवादी है, मेरे अल्ला ताला इसे स्वीकार करो, कहकर उसकी गर्दन काट दिया। मन्दिर का धन देखकर विक्षिप्त होने लगा सपने में भी नहीं सोचा था इतना धन देखने को मिलेगा कभी।

चार खम्भों के मध्य में स्थित शिवलिंग ऊपर चमक रहा था। जो अपने आप में आश्चर्य था। गजनी ने एक खम्भे को तोड़ दिया तो वह तीन खम्भों के बीच ठहर गया। अब गजनी ने सोचा कि यह कोई करिश्मा या चमत्कार नहीं, बल्कि चुम्बकत्व के सिद्धान्त के आधार पर ही इसे टिकाया गया है। जब दूसरे खम्भे को तोड़ा तो दो खम्भों के मध्य टिककर रह गया। तीसरे को तोड़ा तो एक खम्भे से सट गया और जब उसे भी तोड़ दिया तो धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। फिर गजनी ने उस पत्थर को तोड़ा तो बेशकीमती हीरे बाहर निकले। हजारों हाथी, हजारों ऊँटों पर तमाम जवाहरात तथा हीरे-मोती लाद कर वापस अपने वतन चला गया।

इस प्रकार लूट का सिलसिला शुरु हुआ। भारतीय आध्यात्मविदों ने कह दिया-क्या लूटा! किसको मारा! जो लूटा वह तो मिथ्या है। जिस शरीर को मारा वह तो पहले भी मरा हुआ था, आत्मा ही सत्य है। वही अमर है। उसे कैसे मारेगा।

इस देश की इज्जत लुट गई। धन लुट गया। परिश्रम भी, उद्यम भी सब लूट लिया गया। कुटीर उद्योग लूट लिया गया। गृह उद्योग, कला का नाश हो गया। अस्मिता भी जाती रही।

मुसलमानों के आक्रमण के बाद आ गये अंग्रेज। उन्होंने देश को बुरी तरह गुलामी की जंजीरों में कस दिया, जिससे बचा-खुचा अस्तित्व भी जाता रहा। ये तथाकथित आध्यात्मिक लोग फिर भी व्यस्त रहे, समाज में छुआ-छूत, ऊँच-नीच के बहाने समाज को तोड़ने में। अपने, अपनों से ही लड़ते रहे। गृह में फूट पड़ गयी और जब घर फूटेगा तो देश तो फूटेगा ही, टूटेगा ही।

उद्यम एक-दूसरे को जोड़ता है । उद्यम पहले व्यक्ति को, फिर  समाज को, फिर देश को और फिर विश्व को सशक्त बनाता है, स्वालम्बी बनाता है, आदर्शवादी बनाता है। यही धार्मिकता के लक्षण हैं। दीन-अकिंचन और भूखे को रोटी चाहिए। यदि यह रोटी उसे सम्मान प्राप्त करनी है, भीख के रूप में नहीं प्राप्त करनी है तो उसे हाथ से उद्यम करना ही होगा। रोटी अपने आप आ जायेगी।

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‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै’ से उद्धृत…

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आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

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