उपवास – नवरात्रि पर विशेष

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11 Aug 20246 min read

Published in spiritualism

||श्री सद्गुरवे नमः||

 

शक्ति आराधना के पर्व नवरात्रि के अवसर पर विशेष….

‘समय के सद्गुरु’ स्वामी श्रीकृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत….

 

उपवास

उपवास प्रकृति का नियम है। नवरात्र व्रत में उपवास का महत्त्व है। नवरात्र का अर्थ होता है-नव रात्रि। 360 (तीन सौ साठ) दिन का एक वर्ष होता है। हिन्दू दर्शन में शेष पाँच दिन को मलमास या पुरुषोत्तम मास के रूप में एक माह लेकर पूरा किया जाता है। 360/9=40 दिन अर्थात् आपका एक दिन का उपवास चालीस दिन की अशुद्धि जो शरीर में भरी है, को साफ करता है। नव सबसे बड़ी संख्या है। इसके बाद इन्हीं संख्याओं की पुनरावृत्ति है। यह स्थिर एवं रहस्यमय संख्या है। इसमें जितनी भी संख्या से गुणा करेंगे तो उसका योग नव ही आएगा। नव का अर्थ नया भी होता है अर्थात् आप इन नव दिनों में पूर्व का सभी कुछ भुलाकर अपने को नए सिरे से ढालें। अब नया, नूतन बन जाएं। जब आप में सदैव नूतनता रहेगी तब आप विकास के शीर्ष पर चढ़ सकते हैं। रात्र अर्थात् र+अ+त्र| ‘र’ सूर्य का बीज मंत्र है जो आपके अन्दर-बाहर के कल्मष को जला देने में समर्थ है। उसके जलते ही आप अन्दर-बाहर से प्रकाशित हो जाएंगे। आपके दैहिक, दैविक, भौतिक सभी ताप समाप्त हो जाएंगे और आप राम-राज्य में प्रवेश कर जाएंगे- ‘दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, रामराज्य काहू नहीं व्यापा|’ ‘अ’ चन्द्रमा का बीज मंत्र है अर्थात् जलने के पश्चात् चन्द्रमा की शीतल किरणें आपके  अन्दर-बाहर शीतलता प्रदान कर मधुर मनोरम आलोक से आलोकित कर देती हैं। कल्मष और पापों के जल जाने के बाद चित्तवृत्तियों को शांति प्रदान करती हैं। ‘त्र’ अर्थात् त्राण जो आपको जन्मों जन्म के पाप से त्राण देता है। रक्षा करता है। यही है नवरात्र।

इस अवसर पर आप यदि गुरु के सान्निध्य में रहकर गोविन्द की आराधना करते हैं तब सोने में सुगन्ध हो जाती है जैसे खेत का घास-पात साफ कर दिया जाए। उसकी जुताई कर नमी युक्त मिट्टी में बीज डाल दिया जाए। तब उससे पौधे उग आते हैं। इसके लिए उचित समय पर, समयोचित बीज की आवश्यकता होती है, तब ही भरपूर फसल उगती है। पौधे की रक्षा के लिए कांटेदार तार से उसे घेरा जाता है ताकि कहीं भेड़, बकरी, गाय, भैंस या जंगली जानवर उसे चर न जाएँ; यम-नियम करते हुए उसके रखवाले गुरु की उपस्थिति अनिवार्य होती है। विषय-विकार, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह ये पशु तुल्य हैं। जो हमारी श्रद्धारूपी फसल को चर जाते हैं।

फसल में प्रतिदिन जल नहीं डालते हैं बल्कि समयानुसार ही डालते हैं। इसी तरह कम से कम पंद्रह दिन पर एक दिन उपवास भी अति आवश्यक है। व्यवसाय जगत में या शैक्षणिक जगत में भी सप्ताह में एक दिन का अवकाश रहता ही है। इस अवकाश में अपूर्ण कार्यों को पूर्ण किया जाता है ताकि भविष्य में अधिक उत्साह एवं शक्ति से नियमित कार्यों को सम्पन्न किया जा सके। मानव अपने इन्द्रियगत सुख के लिए अपाच्य, अनुपयोगी, हानिकारक पदार्थों से पेट भरता रहता है, जिससे पाचन तंत्र को पचाने के लिए क्षमता से अधिक कार्य करना पड़ता है। उसको क्षण मात्र भी आराम नहीं मिलता है जिससे उसकी क्षमता क्षीण होने लगती है। पाचन तंत्र में विकार जमा होने लगते हैं। अमाशय में मल भर जाता है, जिससे मनुष्य को विभिन्न तरह की बीमारियाँ घेर लेती हैं। आदमी आलसी हो जाता है।

उपवास एवं स्वास्थ्य

आहार और निद्रा को बढ़ाने से व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, शैक्षणिक एवं आध्यात्मिक रूप से क्षीण हो जाता है। उसे घटाने से क्रमशः उसका समग्र क्षेत्र में विकास होने लगता है, भोजन अल्प लेना ही हितकर है। अजीर्ण होने पर उपवास रहें। रोग की अवस्था में भोजन रोग को जीवित रखता है। रोगी को मारता है। उपवास से रोग मरता है। रोगी स्वास्थ्य लाभ करता है। उपवास से अपाच्य आहार पचता है। शारीरिक सफाई होती है। इससे आमाशय खाली होता है। प्राण ऊर्जा जठराग्नि को प्रज्वलित करती है, जिससे विजातीय द्रव्य साफ हो जाता है। रक्त शुद्ध होने लगता है। शरीर का प्रत्येक अवयव स्वस्थ हो जाता है। शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। उचित आहार शरीर को आवश्यक ऊर्जा और गर्मी प्रदान करता है। उपवास शरीर को आरोग्य और शुद्धि प्रदान करता है।

आप प्राकृतिक जीवों, पशु, पक्षियों को देखते होंगे, उन्हें किसी भी तरह के रोग होने पर स्वतः आहार त्याग देते हैं। रोग के आक्रमण करने पर उपवास रहने से रोग मरता है। नियमित रूप से उपवास करने वाला स्वस्थ रहता है तथा पाचन सम्बन्धी रोग से शीघ्र स्वास्थ्य लाभ होता है।

आयुर्वेद के अनुसार प्रातः दस बजे तक का समय शरीर ‘कफ’ प्रकृति का होता है। दस बजे दिन से दो बजे तक का समय ‘पित्त’ प्रकृति का होता है। हमेशा भोजन कफ प्रकृति में करना चाहिए। आमाशय में ऊर्जा का सर्वाधिक प्रवाह प्रातः सात बजे से नौ बजे तक रहता है। अतएव पैंक्रियाज (तिल्ली) में प्रातः नौ बजे से ग्यारह बजे तक सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह रहता है। ग्यारह से एक बजे ऊर्जा का प्रवाह हृदय में हो जाता है। अतएव भोजन का सर्वाधिक उचित समय नौ से दस बजे तक ही है। ग्यारह बजे से ज्यादा होने पर विकार उत्पन्न होता है। भोजन कभी खड़ा होकर नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे आमाशय पर प्रभाव पड़ता है। भोजन आराम से बैठकर, गुरु गोविन्द को अर्पित कर प्रसाद समझ कर करना चाहिए। पूर्व दिशा में बैठकर भोजन करना चाहिए। चूंकि शक्ति का स्रोत सूर्य, पूर्व से उदय होता है। इससे शक्ति बढ़ती है। सूर्य स्वर में भोजन तथा चन्द्र स्वर में जल ग्रहण करना चाहिए। भोजन में कम से कम पदार्थों को सम्मिलित करना चाहिए। भूख से कुछ कम आहार लेना चाहिए। भोजन के एक-दो घंटे बाद पानी जी भर कर पी लें।

परमात्मा के पास रहना ही उपवास है

उपवास का अर्थ होता है- उप अर्थात् नजदीक वास अर्थात् निवास। आप गुरु के, गोविन्द के नजदीक वास करते हैं। उस काल में श्रद्धा, सेवा, सुमिरण, सत्संग करते हैं। यही है गुरु आज्ञा का पालन करना यही है उनके नजदीक निवास करना।

शरीर के लिए योग की जरूरत है। मन के लिए ध्यान की आवश्यकता है। आत्मा के लिए श्रद्धा की जरूरत है। श्रद्धा से स्वतः भक्ति उत्पन्न होती है। भक्ति तो श्रद्धा की अनुगामिनी है। आप इस अवसर पर श्रद्धा से भर जाएं। अहोभाव से भर जाएं। फिर सभी कुछ स्वतः सम्पन्न हो जाता है।

।। हरि ॐ।।

 


 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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शक्ति आराधना के पर्व नवरात्रि के अवसर पर विशेष….

‘समय के सद्गुरु’ स्वामी श्रीकृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत….

 

उपवास

उपवास प्रकृति का नियम है। नवरात्र व्रत में उपवास का महत्त्व है। नवरात्र का अर्थ होता है-नव रात्रि। 360 (तीन सौ साठ) दिन का एक वर्ष होता है। हिन्दू दर्शन में शेष पाँच दिन को मलमास या पुरुषोत्तम मास के रूप में एक माह लेकर पूरा किया जाता है। 360/9=40 दिन अर्थात् आपका एक दिन का उपवास चालीस दिन की अशुद्धि जो शरीर में भरी है, को साफ करता है। नव सबसे बड़ी संख्या है। इसके बाद इन्हीं संख्याओं की पुनरावृत्ति है। यह स्थिर एवं रहस्यमय संख्या है। इसमें जितनी भी संख्या से गुणा करेंगे तो उसका योग नव ही आएगा। नव का अर्थ नया भी होता है अर्थात् आप इन नव दिनों में पूर्व का सभी कुछ भुलाकर अपने को नए सिरे से ढालें। अब नया, नूतन बन जाएं। जब आप में सदैव नूतनता रहेगी तब आप विकास के शीर्ष पर चढ़ सकते हैं। रात्र अर्थात् र+अ+त्र| ‘र’ सूर्य का बीज मंत्र है जो आपके अन्दर-बाहर के कल्मष को जला देने में समर्थ है। उसके जलते ही आप अन्दर-बाहर से प्रकाशित हो जाएंगे। आपके दैहिक, दैविक, भौतिक सभी ताप समाप्त हो जाएंगे और आप राम-राज्य में प्रवेश कर जाएंगे- ‘दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, रामराज्य काहू नहीं व्यापा|’ ‘अ’ चन्द्रमा का बीज मंत्र है अर्थात् जलने के पश्चात् चन्द्रमा की शीतल किरणें आपके  अन्दर-बाहर शीतलता प्रदान कर मधुर मनोरम आलोक से आलोकित कर देती हैं। कल्मष और पापों के जल जाने के बाद चित्तवृत्तियों को शांति प्रदान करती हैं। ‘त्र’ अर्थात् त्राण जो आपको जन्मों जन्म के पाप से त्राण देता है। रक्षा करता है। यही है नवरात्र।

इस अवसर पर आप यदि गुरु के सान्निध्य में रहकर गोविन्द की आराधना करते हैं तब सोने में सुगन्ध हो जाती है जैसे खेत का घास-पात साफ कर दिया जाए। उसकी जुताई कर नमी युक्त मिट्टी में बीज डाल दिया जाए। तब उससे पौधे उग आते हैं। इसके लिए उचित समय पर, समयोचित बीज की आवश्यकता होती है, तब ही भरपूर फसल उगती है। पौधे की रक्षा के लिए कांटेदार तार से उसे घेरा जाता है ताकि कहीं भेड़, बकरी, गाय, भैंस या जंगली जानवर उसे चर न जाएँ; यम-नियम करते हुए उसके रखवाले गुरु की उपस्थिति अनिवार्य होती है। विषय-विकार, काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह ये पशु तुल्य हैं। जो हमारी श्रद्धारूपी फसल को चर जाते हैं।

फसल में प्रतिदिन जल नहीं डालते हैं बल्कि समयानुसार ही डालते हैं। इसी तरह कम से कम पंद्रह दिन पर एक दिन उपवास भी अति आवश्यक है। व्यवसाय जगत में या शैक्षणिक जगत में भी सप्ताह में एक दिन का अवकाश रहता ही है। इस अवकाश में अपूर्ण कार्यों को पूर्ण किया जाता है ताकि भविष्य में अधिक उत्साह एवं शक्ति से नियमित कार्यों को सम्पन्न किया जा सके। मानव अपने इन्द्रियगत सुख के लिए अपाच्य, अनुपयोगी, हानिकारक पदार्थों से पेट भरता रहता है, जिससे पाचन तंत्र को पचाने के लिए क्षमता से अधिक कार्य करना पड़ता है। उसको क्षण मात्र भी आराम नहीं मिलता है जिससे उसकी क्षमता क्षीण होने लगती है। पाचन तंत्र में विकार जमा होने लगते हैं। अमाशय में मल भर जाता है, जिससे मनुष्य को विभिन्न तरह की बीमारियाँ घेर लेती हैं। आदमी आलसी हो जाता है।

उपवास एवं स्वास्थ्य

आहार और निद्रा को बढ़ाने से व्यक्ति शारीरिक, मानसिक, शैक्षणिक एवं आध्यात्मिक रूप से क्षीण हो जाता है। उसे घटाने से क्रमशः उसका समग्र क्षेत्र में विकास होने लगता है, भोजन अल्प लेना ही हितकर है। अजीर्ण होने पर उपवास रहें। रोग की अवस्था में भोजन रोग को जीवित रखता है। रोगी को मारता है। उपवास से रोग मरता है। रोगी स्वास्थ्य लाभ करता है। उपवास से अपाच्य आहार पचता है। शारीरिक सफाई होती है। इससे आमाशय खाली होता है। प्राण ऊर्जा जठराग्नि को प्रज्वलित करती है, जिससे विजातीय द्रव्य साफ हो जाता है। रक्त शुद्ध होने लगता है। शरीर का प्रत्येक अवयव स्वस्थ हो जाता है। शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है। उचित आहार शरीर को आवश्यक ऊर्जा और गर्मी प्रदान करता है। उपवास शरीर को आरोग्य और शुद्धि प्रदान करता है।

आप प्राकृतिक जीवों, पशु, पक्षियों को देखते होंगे, उन्हें किसी भी तरह के रोग होने पर स्वतः आहार त्याग देते हैं। रोग के आक्रमण करने पर उपवास रहने से रोग मरता है। नियमित रूप से उपवास करने वाला स्वस्थ रहता है तथा पाचन सम्बन्धी रोग से शीघ्र स्वास्थ्य लाभ होता है।

आयुर्वेद के अनुसार प्रातः दस बजे तक का समय शरीर ‘कफ’ प्रकृति का होता है। दस बजे दिन से दो बजे तक का समय ‘पित्त’ प्रकृति का होता है। हमेशा भोजन कफ प्रकृति में करना चाहिए। आमाशय में ऊर्जा का सर्वाधिक प्रवाह प्रातः सात बजे से नौ बजे तक रहता है। अतएव पैंक्रियाज (तिल्ली) में प्रातः नौ बजे से ग्यारह बजे तक सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह रहता है। ग्यारह से एक बजे ऊर्जा का प्रवाह हृदय में हो जाता है। अतएव भोजन का सर्वाधिक उचित समय नौ से दस बजे तक ही है। ग्यारह बजे से ज्यादा होने पर विकार उत्पन्न होता है। भोजन कभी खड़ा होकर नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे आमाशय पर प्रभाव पड़ता है। भोजन आराम से बैठकर, गुरु गोविन्द को अर्पित कर प्रसाद समझ कर करना चाहिए। पूर्व दिशा में बैठकर भोजन करना चाहिए। चूंकि शक्ति का स्रोत सूर्य, पूर्व से उदय होता है। इससे शक्ति बढ़ती है। सूर्य स्वर में भोजन तथा चन्द्र स्वर में जल ग्रहण करना चाहिए। भोजन में कम से कम पदार्थों को सम्मिलित करना चाहिए। भूख से कुछ कम आहार लेना चाहिए। भोजन के एक-दो घंटे बाद पानी जी भर कर पी लें।

परमात्मा के पास रहना ही उपवास है

उपवास का अर्थ होता है- उप अर्थात् नजदीक वास अर्थात् निवास। आप गुरु के, गोविन्द के नजदीक वास करते हैं। उस काल में श्रद्धा, सेवा, सुमिरण, सत्संग करते हैं। यही है गुरु आज्ञा का पालन करना यही है उनके नजदीक निवास करना।

शरीर के लिए योग की जरूरत है। मन के लिए ध्यान की आवश्यकता है। आत्मा के लिए श्रद्धा की जरूरत है। श्रद्धा से स्वतः भक्ति उत्पन्न होती है। भक्ति तो श्रद्धा की अनुगामिनी है। आप इस अवसर पर श्रद्धा से भर जाएं। अहोभाव से भर जाएं। फिर सभी कुछ स्वतः सम्पन्न हो जाता है।

।। हरि ॐ।।

 


 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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