कुछ अनकहे रिश्ते

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sagar gupta

28 Jul 20247 min read

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कुछ अनकहे रिश्ते

हर बार की तरह अहले-सुबह गहरी नींद को बहला-फुसला कर उससे अपनी उंगलियां अनमने मन से छुड़वाकर अपनी बूढ़ी साईकल उठाकर मैं निकल पड़ा था ठंड के कारण धुंध से भरे हुए रास्ते में गुम होने के लिए…

क्या मेरी साईकल सच में बूढ़ी हो चुकी थी? आप सोचेंगे कि कैसा बेवकूफ़ आदमी है? भला! साईकल भी बूढ़ी होती है क्या?

पर मेरे दोस्तों की माने तो मेरी साईकल शुरू से ही बूढ़ी थी। रेंजर साईकल के जमाने में घोड़ी जैसी लम्बी साईकल, जिसके टायर रिक्शा वाले टायर जैसे ही हो और जिसमें एक बूढ़े व्यक्ति ने पूरे पृथ्वी को अपने बाहुबल के सहारे अपने कंधे पर टिका कर रखा हो, को देख कर लोग उसे बूढ़ी साईकल नहीं कहेंगे तो फिर क्या कहेंगे?

अचानक किसी गड्ढे में मेरी साईकल की टायर फँसने से मैं और मेरी साईकल गिर पड़े धूल से सने उस कच्चे रोड़ पर….

मेरी पोथियां जो कि मेरे बूढ़े साईकल ने अपने पीछे वाले रेक में जोड़ से जकड़ कर रखी थी, वो भी खुद को संभाल नहीं सकी।

मैं उस कच्चे रोड़ को बनाने वाले कॉन्ट्रैक्टर जो मेरे बग़ल के ही घर के थे, को मन ही मन खूब खड़ी-खोटी सुनाई। खुद को और फिर अपनी पोथियों को गुस्से से अपनी हथेलियों से मार-मार कर उस पर जमी धूल को हटाया और फिर निकल पड़ा अपने रास्ते पर…

उस दिन भी इतनी धुंध थी कि पता ही नहीं चल पा रहा था कि आगे रास्ता बचा भी है या नहीं.. बस बीच-बीच में गाड़ियों की धुँधली पीली रौशनी धुंध में दिख रही थी और क्षण भर में औझल भी हो जा रही थी।

अंततः मैं अपने गंतव्य स्थान पहुँच चुका था। अपने कोचिंग क्लास के बाहर…

हर बार की तरह कोचिंग का पुराना टूटा-फूटा दरवाजा अब भी बंद था। अगर रात को कोई अनजान व्यक्ति उस कोचिंग वाले कमरे को देख लेता तो उसे भूतिया हवेली समझ कर वहाँ से तुरंत नौ दो ग्यारह हो जाता।

मैं एक योग्य विद्यार्थी होने के नाते अपने क्लास के समय से लगभग आधे घंटे पहले ही पहुँच चुका था। मैंने अपनी घड़ी देखी। घड़ी सुबह के 5:30 बजे होने का संकेत दे रही थी।

मैं वहीं अपने कोचिंग के दरवाजे से टिक कर अपने मफ़लर से कान और नाक को जोर से लपेटकर बैठ गया।

धुंध अब भी कम नहीं हुई थी।

मुझे पता नहीं था कि नींद मुझसे बच-बचाकर मेरा दामन थामे मेरे संग मेरे कोचिंग के बाहर तक आ चुकी थी। कुछ मिनटों में ही नींद ने दुबारा मुझे अपने आगोश में ले लिया।

थोड़े ही देर में किसी की सिसकियों की आवाज़ से मेरी नींद खुल गई।

मैंने धीरे से आवाज़ दी,”कौन रो रहा है?”

पर कोई जवाब नहीं आया।

सिसकियां अब लगभग बंद-सी हो गई थी। पर ध्यान देने से पता चला कि वो अब भी धीरे-धीरे जारी थी। मुझे कुछ कहना मुनासिब नहीं लगा और मैं सुबह की पहली किरण की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ ही देर में सूर्य की किरणें प्रकाशमयी रथ के समान धुंध को चीरते हुए शनै:शनैः पूरे जग को प्रकाशित करने के लिए दौड़ पड़ी थी।

किरणें अब उसके चेहरे से छन कर मेरी ओर आने लगी थी। मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आँखें अब भी नम थी। मैंने अब तक उसे पहचान लिया था।

ये वहीं लड़की थी, जिसको आजतक मैंने मुस्कुराते हुए कभी नहीं देखा था।

मृगनयनी आँखें और उस पर एक पतले फ्रेम वाला चश्मा। छोटे सीधे बाल, जिसे वो हमेशा एक रबर के सहारे जकड़ कर रखती थी, मानो वो कोई बच्चे हो, जो इधर-उधर कहीं भाग जाएंगे। खुले बालों में उसे मैंने आजतक नहीं देखा था।

सजावट की बात की जाएं तो उसको आजतक मैंने सजावट के तौर पर बस एक छोटी-सी गोल बिंदी ही लगाए हुए देखा था।

मैं उसे देखा जा रहा था। पर वो अपनी आँखें अब भी मुझसे चुरा कर एक पत्थर को एकटक देख रही थी। मैंने सोचा कि उसके पास जाऊं और पूंछू कि ऐसी क्या बात है, जो उसके दिल के किसी कोने में घर कर गई है।

पर आज तक न उससे कभी बात हुई थी और न ही कभी हमने एक-दूसरे से नजरें मिलाई थी।

मैंने शांत रहना ही मुनासिब समझा। थोड़ी देर में ही कोचिंग के बाहर लड़के और लड़कियाँ इक्कठा होने लगे थे। गाँव में सामान्यतः लड़कों और लड़कियों का अलग-अलग बैच होता है, क्योंकि गाँव के लोगों को लगता है कि अगर लड़के और लड़कियाँ एक साथ पढ़े तो प्यार-व्यार के लफड़े में पड़ ही जाएंगे। पर उन लोगों को पता कहाँ है कि प्यार एक ऐसी चिड़िया है, जिसे कितना ही किसी पिंजरे में कैद कर लो, वो वहाँ से निकल कर भाग ही जाएंगी।

वो लड़की लड़कियों के भीड़ में कहीं गुम हो गई और मैं भी अपने लड़कों के भीड़ में….

उसके बाद अक्सर उसे अहले-सुबह धुंध में कहीं दूर कोचिंग के बाहर बैठा देखता। पर कभी हिम्मत नहीं होती थी कि कभी उसके पास जाकर उसकी व्यथा पूछूं।

 हाँ, उस दिन के बाद से बस एक बात हुई कि अब कभी-कभी हमारी नजरें हमें धोखा देकर एक-दूसरे को देख लिया करती थी। पर वो भी पल भर के लिए ही…

समय बीतता गया और उसके साथ-साथ हमारी दूरियां भी। अब कुछ लोग कहेंगे कि जब एक-दूसरे से बात भी कभी नहीं हुई हो तो फिर किस चीज़ की दूरियाँ?

शायद हमारी बातें कभी नहीं हुई। पर एक अदृश्य प्रेम रूपी धागा हमें एक-दूसरे से बांधे हुए रखा था।

पढ़ाई खत्म हो चुकी थी और शायद उसके साथ हमारे बीच का वो अनकहा रिश्ता भी….

कुछ सालों बाद मेरी नौकरी एक मल्टीनेशनल कंपनी में लग गई और मैं अपने आराध्य पूज्नीय शिक्षक को धन्यवाद देने मिठाई का डब्बा लेकर कोचिंग के बाहर खड़ा हो गया।

मेरे शिक्षक उस समय किसी से फ़ोन पर बातें कर रहे थे। मुझे बाहर देखकर उन्होंने मुझे तुरंत पहचान लिया और फ़ोन में बात करते हुए अंदर बैठने का इशारा किया।

मैं दुबारा उस टूटी-फूटी कोचिंग के अंदर था और धीरे-धीरे सारी पुरानी बातें मेरे दृष्टिपटल के सामने एक फ़िल्म की तरह घूमने लगी।

तभी मेरे शिक्षक ने मुझे फ़ोन पकड़ाते हुए कहा कि सही समय में आए हो बेटा। लो बात करो अपनी एक दोस्त से।

मेरी दुविधा बढ़ चुकी थी कि आखिर कौन है वो। मैंने तो आजतक किसी लड़की से कोचिंग के बाहर बात तक नहीं किया था।

फ़ोन के दूसरे छोर से आवाज़ आई, “हेलो” और मानो मेरी साँसे थम-सी गयी हो। ये उसी की आवाज़ थी। भला उसके आवाज़ को कैसे भूल सकता था मैं? उस आवाज़ में अब भी वही उदासी और ठहराव साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था।

उधर से फिर आवाज़ आई, “हेलो! कौन बोल रहे है? सर ने बोला है कि आप मेरे कोई दोस्त हो।”

मेरी आवाज मानो कहीं अंदर ही अटक-सी गई थी और बाहर निकलने का नाम नहीं ले रही थी, मानो ठंड ने उसको पूरी तरह से जमा दिया हो।

बहुत जोर लगाने पर इतनी ही आवाज़ निकली, “मैं बोल रहा हूँ।”

उसके बाद उधर से कोई आवाज़ नहीं आई। शायद उसे मेरे होने का अंदाजा हो चुका था।

कुछ मिनटों तक न मैंने कुछ कहा और न उसने। मानो अंदर ही अंदर हमारा संवाद फिर से शुरू हो गया हो।

सर से रहा नहीं गया और उन्होंने बोल दिया, “फ़ोन कट गया क्या बेटा? कुछ बोल ही नहीं रहे तुम।”

मैं कुछ नहीं कह सका और मिठाई का डब्बा उन्हें देते हुए वहाँ से निकल गया। उनकी आवाज़ अब भी पीछे से आ रही थी, जो धीरे-धीरे कम होती चली गई और एक समय बाद बिल्कुल ख़त्म।

मैं चलता रहा…

मैं उस मुसाफिर की तरह आगे बढ़ता चला गया, जिसे ये भी पता न हो कि उसे जाना कहाँ है? पर मैं खुश था कि इतने दिनों बाद उसकी आवाज़ तो सुनाई दी। मैं खुश था कि आज भी उसकी यादों के किसी पन्ने में मैं कहीं सूखे गुलाब की तरह पड़ा हुआ तो हूँ।

मेरी मुस्कान उसकी आवाज़ को अपने मन में दोहरा-दोहरा कर बड़ी होती चली गयी और शायद उसकी भी….

 

 

उपसंहार-

किसी रिश्ते को नाम देना जरूरी नहीं होता है। कुछ रिश्ते ऐसे होते है, जो बेनाम होते है। लोगों के सामने जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता है। पर वो रिश्ते आपके लिए अजीज होते है।

 

किसी ने क्या खूब कहा है~

रिश्ता वो नहीं, जो दुनियां को दिखाया जाएं।

रिश्ता वो है, जिसे दिल से निभाया जाए।

 

 

सागर गुप्ता

 

 

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हर बार की तरह अहले-सुबह गहरी नींद को बहला-फुसला कर उससे अपनी उंगलियां अनमने मन से छुड़वाकर अपनी बूढ़ी साईकल उठाकर मैं निकल पड़ा था ठंड के कारण धुंध से भरे हुए रास्ते में गुम होने के लिए…

क्या मेरी साईकल सच में बूढ़ी हो चुकी थी? आप सोचेंगे कि कैसा बेवकूफ़ आदमी है? भला! साईकल भी बूढ़ी होती है क्या?

पर मेरे दोस्तों की माने तो मेरी साईकल शुरू से ही बूढ़ी थी। रेंजर साईकल के जमाने में घोड़ी जैसी लम्बी साईकल, जिसके टायर रिक्शा वाले टायर जैसे ही हो और जिसमें एक बूढ़े व्यक्ति ने पूरे पृथ्वी को अपने बाहुबल के सहारे अपने कंधे पर टिका कर रखा हो, को देख कर लोग उसे बूढ़ी साईकल नहीं कहेंगे तो फिर क्या कहेंगे?

अचानक किसी गड्ढे में मेरी साईकल की टायर फँसने से मैं और मेरी साईकल गिर पड़े धूल से सने उस कच्चे रोड़ पर….

मेरी पोथियां जो कि मेरे बूढ़े साईकल ने अपने पीछे वाले रेक में जोड़ से जकड़ कर रखी थी, वो भी खुद को संभाल नहीं सकी।

मैं उस कच्चे रोड़ को बनाने वाले कॉन्ट्रैक्टर जो मेरे बग़ल के ही घर के थे, को मन ही मन खूब खड़ी-खोटी सुनाई। खुद को और फिर अपनी पोथियों को गुस्से से अपनी हथेलियों से मार-मार कर उस पर जमी धूल को हटाया और फिर निकल पड़ा अपने रास्ते पर…

उस दिन भी इतनी धुंध थी कि पता ही नहीं चल पा रहा था कि आगे रास्ता बचा भी है या नहीं.. बस बीच-बीच में गाड़ियों की धुँधली पीली रौशनी धुंध में दिख रही थी और क्षण भर में औझल भी हो जा रही थी।

अंततः मैं अपने गंतव्य स्थान पहुँच चुका था। अपने कोचिंग क्लास के बाहर…

हर बार की तरह कोचिंग का पुराना टूटा-फूटा दरवाजा अब भी बंद था। अगर रात को कोई अनजान व्यक्ति उस कोचिंग वाले कमरे को देख लेता तो उसे भूतिया हवेली समझ कर वहाँ से तुरंत नौ दो ग्यारह हो जाता।

मैं एक योग्य विद्यार्थी होने के नाते अपने क्लास के समय से लगभग आधे घंटे पहले ही पहुँच चुका था। मैंने अपनी घड़ी देखी। घड़ी सुबह के 5:30 बजे होने का संकेत दे रही थी।

मैं वहीं अपने कोचिंग के दरवाजे से टिक कर अपने मफ़लर से कान और नाक को जोर से लपेटकर बैठ गया।

धुंध अब भी कम नहीं हुई थी।

मुझे पता नहीं था कि नींद मुझसे बच-बचाकर मेरा दामन थामे मेरे संग मेरे कोचिंग के बाहर तक आ चुकी थी। कुछ मिनटों में ही नींद ने दुबारा मुझे अपने आगोश में ले लिया।

थोड़े ही देर में किसी की सिसकियों की आवाज़ से मेरी नींद खुल गई।

मैंने धीरे से आवाज़ दी,”कौन रो रहा है?”

पर कोई जवाब नहीं आया।

सिसकियां अब लगभग बंद-सी हो गई थी। पर ध्यान देने से पता चला कि वो अब भी धीरे-धीरे जारी थी। मुझे कुछ कहना मुनासिब नहीं लगा और मैं सुबह की पहली किरण की प्रतीक्षा करने लगा। कुछ ही देर में सूर्य की किरणें प्रकाशमयी रथ के समान धुंध को चीरते हुए शनै:शनैः पूरे जग को प्रकाशित करने के लिए दौड़ पड़ी थी।

किरणें अब उसके चेहरे से छन कर मेरी ओर आने लगी थी। मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आँखें अब भी नम थी। मैंने अब तक उसे पहचान लिया था।

ये वहीं लड़की थी, जिसको आजतक मैंने मुस्कुराते हुए कभी नहीं देखा था।

मृगनयनी आँखें और उस पर एक पतले फ्रेम वाला चश्मा। छोटे सीधे बाल, जिसे वो हमेशा एक रबर के सहारे जकड़ कर रखती थी, मानो वो कोई बच्चे हो, जो इधर-उधर कहीं भाग जाएंगे। खुले बालों में उसे मैंने आजतक नहीं देखा था।

सजावट की बात की जाएं तो उसको आजतक मैंने सजावट के तौर पर बस एक छोटी-सी गोल बिंदी ही लगाए हुए देखा था।

मैं उसे देखा जा रहा था। पर वो अपनी आँखें अब भी मुझसे चुरा कर एक पत्थर को एकटक देख रही थी। मैंने सोचा कि उसके पास जाऊं और पूंछू कि ऐसी क्या बात है, जो उसके दिल के किसी कोने में घर कर गई है।

पर आज तक न उससे कभी बात हुई थी और न ही कभी हमने एक-दूसरे से नजरें मिलाई थी।

मैंने शांत रहना ही मुनासिब समझा। थोड़ी देर में ही कोचिंग के बाहर लड़के और लड़कियाँ इक्कठा होने लगे थे। गाँव में सामान्यतः लड़कों और लड़कियों का अलग-अलग बैच होता है, क्योंकि गाँव के लोगों को लगता है कि अगर लड़के और लड़कियाँ एक साथ पढ़े तो प्यार-व्यार के लफड़े में पड़ ही जाएंगे। पर उन लोगों को पता कहाँ है कि प्यार एक ऐसी चिड़िया है, जिसे कितना ही किसी पिंजरे में कैद कर लो, वो वहाँ से निकल कर भाग ही जाएंगी।

वो लड़की लड़कियों के भीड़ में कहीं गुम हो गई और मैं भी अपने लड़कों के भीड़ में….

उसके बाद अक्सर उसे अहले-सुबह धुंध में कहीं दूर कोचिंग के बाहर बैठा देखता। पर कभी हिम्मत नहीं होती थी कि कभी उसके पास जाकर उसकी व्यथा पूछूं।

 हाँ, उस दिन के बाद से बस एक बात हुई कि अब कभी-कभी हमारी नजरें हमें धोखा देकर एक-दूसरे को देख लिया करती थी। पर वो भी पल भर के लिए ही…

समय बीतता गया और उसके साथ-साथ हमारी दूरियां भी। अब कुछ लोग कहेंगे कि जब एक-दूसरे से बात भी कभी नहीं हुई हो तो फिर किस चीज़ की दूरियाँ?

शायद हमारी बातें कभी नहीं हुई। पर एक अदृश्य प्रेम रूपी धागा हमें एक-दूसरे से बांधे हुए रखा था।

पढ़ाई खत्म हो चुकी थी और शायद उसके साथ हमारे बीच का वो अनकहा रिश्ता भी….

कुछ सालों बाद मेरी नौकरी एक मल्टीनेशनल कंपनी में लग गई और मैं अपने आराध्य पूज्नीय शिक्षक को धन्यवाद देने मिठाई का डब्बा लेकर कोचिंग के बाहर खड़ा हो गया।

मेरे शिक्षक उस समय किसी से फ़ोन पर बातें कर रहे थे। मुझे बाहर देखकर उन्होंने मुझे तुरंत पहचान लिया और फ़ोन में बात करते हुए अंदर बैठने का इशारा किया।

मैं दुबारा उस टूटी-फूटी कोचिंग के अंदर था और धीरे-धीरे सारी पुरानी बातें मेरे दृष्टिपटल के सामने एक फ़िल्म की तरह घूमने लगी।

तभी मेरे शिक्षक ने मुझे फ़ोन पकड़ाते हुए कहा कि सही समय में आए हो बेटा। लो बात करो अपनी एक दोस्त से।

मेरी दुविधा बढ़ चुकी थी कि आखिर कौन है वो। मैंने तो आजतक किसी लड़की से कोचिंग के बाहर बात तक नहीं किया था।

फ़ोन के दूसरे छोर से आवाज़ आई, “हेलो” और मानो मेरी साँसे थम-सी गयी हो। ये उसी की आवाज़ थी। भला उसके आवाज़ को कैसे भूल सकता था मैं? उस आवाज़ में अब भी वही उदासी और ठहराव साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था।

उधर से फिर आवाज़ आई, “हेलो! कौन बोल रहे है? सर ने बोला है कि आप मेरे कोई दोस्त हो।”

मेरी आवाज मानो कहीं अंदर ही अटक-सी गई थी और बाहर निकलने का नाम नहीं ले रही थी, मानो ठंड ने उसको पूरी तरह से जमा दिया हो।

बहुत जोर लगाने पर इतनी ही आवाज़ निकली, “मैं बोल रहा हूँ।”

उसके बाद उधर से कोई आवाज़ नहीं आई। शायद उसे मेरे होने का अंदाजा हो चुका था।

कुछ मिनटों तक न मैंने कुछ कहा और न उसने। मानो अंदर ही अंदर हमारा संवाद फिर से शुरू हो गया हो।

सर से रहा नहीं गया और उन्होंने बोल दिया, “फ़ोन कट गया क्या बेटा? कुछ बोल ही नहीं रहे तुम।”

मैं कुछ नहीं कह सका और मिठाई का डब्बा उन्हें देते हुए वहाँ से निकल गया। उनकी आवाज़ अब भी पीछे से आ रही थी, जो धीरे-धीरे कम होती चली गई और एक समय बाद बिल्कुल ख़त्म।

मैं चलता रहा…

मैं उस मुसाफिर की तरह आगे बढ़ता चला गया, जिसे ये भी पता न हो कि उसे जाना कहाँ है? पर मैं खुश था कि इतने दिनों बाद उसकी आवाज़ तो सुनाई दी। मैं खुश था कि आज भी उसकी यादों के किसी पन्ने में मैं कहीं सूखे गुलाब की तरह पड़ा हुआ तो हूँ।

मेरी मुस्कान उसकी आवाज़ को अपने मन में दोहरा-दोहरा कर बड़ी होती चली गयी और शायद उसकी भी….

 

 

उपसंहार-

किसी रिश्ते को नाम देना जरूरी नहीं होता है। कुछ रिश्ते ऐसे होते है, जो बेनाम होते है। लोगों के सामने जिसका कोई अस्तित्व नहीं होता है। पर वो रिश्ते आपके लिए अजीज होते है।

 

किसी ने क्या खूब कहा है~

रिश्ता वो नहीं, जो दुनियां को दिखाया जाएं।

रिश्ता वो है, जिसे दिल से निभाया जाए।

 

 

सागर गुप्ता

 

 

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