जीवन, मृत्यु क्या है?

Avatar
storyberrys

18 Aug 20247 min read

Published in spiritualism

||श्री सद्गुरवे नमः||

 

जीवन, मृत्यु क्या है?

जीवन

संसार शब्द का अर्थ है, जो निरंतर घूमता रहता है, गाड़ी के चाक की तरह। मन भी इसी तरह घूमता रहता है। एक ही विचार बार-बार घूमते रहते हैं। जिस क्षण आत्मा शरीर को ग्रहण कर संसार में आती है, वही जन्म कहलाता है। आत्मा का ही विक्षिप्त रूप मन है। जीवात्मा एक वर्तुल में घूमती है। सृष्टि भी वर्तुल में घूम रही है। हमारे अन्दर भी, बाहर भी। जो घूमने के बाहर हो गया- वह है सिद्ध।

सारा जगत दौड़ रहा है। यात्रा की गति अति तेज है। भाव जरूर है कि कहीं पहुँच जाएंगे। परन्तु पहुँचते कहीं भी नहीं हैं। जैसे ही जाने-आने का भाव गिर जाता है- आप सिद्ध हो जाते हैं। सिद्ध जहाँ रहता है- वही तीर्थ है। वह मुक्त है।

मेाक्ष या मुक्ति भारतीय शब्द है। ईसाइयत या इस्लाम में स्वर्ग-नर्क है। मोक्ष नहीं है। भारतीय मनीषी मोक्ष की कामना करते हैं। जो स्वर्ग-नर्क दोनों से परे है।

सृष्टि में पैदा होना ही जीवन की यात्रा है। पैदा हम इसलिए होते हैं कि हमें कहीं पहुँचना है। यह हमारा पैदा होना भी वाहन है। चूंकि यह शरीर हमारी यात्रा का वाहन है। इसे हमने चुना है किन्हीं वासनाओं के कारण। जो कुछ हम करना चाहते हैं वह बिना शरीर के सम्भव नहीं है।

गर्भ में इसीलिए प्रविष्ट हुए हैं कि कुछ वासनाएँ हैं, जो अधूरी रह गई हैं। पिछले मरते क्षण कुछ वासनाएँ थीं, जो आपके मन में अधूरी रह गई हैं, वे ही आपको खींच लाई हैं। मरते क्षण आपकी वासना जिस तरह की होगी, वही वासना नए जन्म का कारण बनती है। मरते क्षण में आपके जीवन भर का जो सार-निचोड़ होता है, आकांक्षाओं का, वही धक्का देता है नए गर्भ में प्रविष्ट हो जाने को।

वासना से आसक्त जीव शरीर के बिना नहीं रह सकता है। चूंकि शरीर एक यात्रा वाहन है। इसकी इन्द्रियां रसास्वादन की माध्यम हैं। गर्भ धारण करने के लिए ये ऐसे आतुर हैं, जैसे किसी साधारण पैसेंजर गाड़ी का टिकट लेने एवं उसमें सवार होने वाले धक्का-मुक्की करते हैं।

प्रेतात्माओं की भी यही पीड़ा है। उनके पास वासनाएँ तो हैं परन्तु शरीर नहीं है। क्रोध एवं लोभ भी है। उसको प्रयोग में लाने हेतु उपयुक्त शरीर नहीं है। ऐसी आत्माएं अपने लिए उपयुक्त शरीर खोजती हैं। जैसे ही कोई कमजोर, संकल्पहीन, सुरा-सुन्दरी प्रेमी, भ्रष्ट मिलता है, उसमें बिन बुलाए मेहमान बन जाती हैं। जो व्यक्ति एकदम सिकुड़ा हुआ है, अपने ही घर के एक कोने में छिपकर रहता है, बाकी सारा घर खाली है, प्रेतात्मा उसमें प्रवेश कर जाती है। जिसके घर में गुरु गोविन्द विराज रहे हैं, अपने अन्दर सत्संग से प्रतिदिन दीप-बाती आरती करता है, उसमें प्रेतात्मा का प्रवेश करना असम्भव है।

जीवन में मुख्यतः तीन दिशाएं हैं-

पहला- हमारी जो आसुरी संपदा है, उसको हम अपना स्वभाव समझ लें। फिर सारा जगत बुरा है। हमारा देखने का दृष्टिकोण वही होगा।

दूसरा- हमारे भीतर जो दैवी संपदा है, हम उसके साथ अपने को एक समझ लें| फिर सारा संसार भला है, सुन्दर है।

तीसरा- हम इन दोनों (द्वैत) गुणों से अपने को मुक्त कर लें और साक्षी हो जाएं, तो फिर जगत बुरे और भले का संयोग है। रात-दिन का जोड़ है। अंधेरे और प्रकाश का मेल है। जिस दिन हम चुनाव रहित, विकल्प रहित होते हैं, दोनों सम्पदाओं में से किसी को भी न चुनें, उसी दिन हमारा जीवन परम मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।

आज विश्व के मनोवैज्ञानिक इस तथ्य पर पहुँच गए हैं कि अपराधियों में नब्बे प्रतिशत जड़बुद्धि होते हैं। उनके पास कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। वे बुद्धिहीन बुराई करके कई दफा हमें सफल होते दिखाई देते हैं। बुद्धिमान हारता दिखाई पड़ता है। बुद्धिहीन की नीचे गिरने की क्षमता है। वे किसी भी स्तर तक नीचे गिर सकते हैं। बुद्धिमान ऐसा नहीं कर सकते हैं। संसार में जो जितना नीचे गिर सकता है वह उतनी ही जल्दी सफल हो जाता है।

यह जीवन सफल नहीं कहा जा सकता है। वह अपराधी है। ऐसे अपराधी का यह जीवन चूक गया। पता नहीं आगे के कितने जीवन चूकेगा। एक बार गिरने लगता है तो वह अनन्त जन्मों तक गिरता जाता है। एक बार सद्गुरु का सान्निध्य पा लेता है तब वह ऊपर उठता ही जाता है। एक दिन वह अवश्य ही पूर्णता को प्राप्त कर लेता है।

 

 

मृत्यु क्या है?

गुरु गोरखनाथ कहते हैं-

‘मरो हे योगी मरो, मरन है मीठा| तिस मरणीं मरौ जिस मरणीं मरि गोरख दीठा||’

योगी से यह कह रहे हैं। अर्थात् जो आत्मा और शरीर के योग को देख लिया है, वही मृत्यु को भी देख सकता है। इस जगत में मृत्यु से सत्य दूसरा कुछ नहीं है। जैसे ही बच्चा जन्म लेता है वह प्रतिदिन मृत्यु के समीप पहुँच रहा होता है।

जो मृत्यु को नजदीक से देख लेता है, समझ लेता है, उसके लिए मृत्यु झूठ हो गया। मृत्यु तो है ही नहीं। जीवन ही सत्य है। मृत्यु असत्य है। जो साधक एक बार भी समाधि में प्रवेश कर जाता है, वह मृत्यु का साक्षात्कार कर लेता है। इस शरीर में जब तक आत्मा निवास करती है, तब तक जीवन है। इस शरीर के जीर्ण-शीर्ण होने पर आत्मा निकल जाती है। जैसे आपने इस जीवन में कितने वस्त्र बदले, यह याद नहीं है। न ही वस्त्र बदलने का आपको दुख है। ऐसे ही समाधिस्थ व्यक्ति अपनी आत्मा को इस शरीर से आनन्द पूर्वक निकाल लेता है।

यह सभी जानते हैं कि आत्मा अमर है। शाश्वत है। फिर जीवन भी शाश्वत है। चाहे इस पार्थिव शरीर का जीवन हो या सूक्ष्म, कारण, मनोमय शरीर का। शरीर विभिन्न हैं। सभी में जीवन है। फिर जीवन को मृत्यु कैसे कह सकते हैं।

मृत्यु हमारे जीवन को ऊर्जा प्रदान करती है। जैसे दिनभर कोई मेहनत करता है और रात्रि में थक कर सो जाता है। वह गहरी नींद में सभी कुछ भूल जाता है, प्रातः जगकर पुनः नए उत्साह से अपने कार्य में लग जाता है।

आत्मा का सम्बन्ध इस जगत से स्थूल शरीर, भाव शरीर, सूक्ष्म शरीर, मनोमय शरीर के कारण है। ये चार शरीर किसी न किसी प्रकार इस जगत से सम्बंधित हैं। आप जैसे किसी शहर में नौकरी कर रहे हैं, आपकी बदली होते ही किसी दूसरे शहर में चले जाते हैं। फिर वहाँ कोई मकान ले लेते हैं। वहीं के लोग आपके मित्र या शत्रु बन जाते हैं। उसी तरह आत्मा भी कर्मानुसार गाँव, प्रांत, लोक बदल लेती है। यदि किसी समर्थ सद्गुरु द्वारा आपके अन्दर दीक्षा के समय देवास्त्र दिव्यास्त्र डाल दिए गए हैं, तब आप कहीं भी जन्म लेंगे तो अपने जीवन के उद्देश्य के प्रति सदैव सजग रहेंगे। उस परिवार से आप वीतरागी होकर कार्य का सम्पादन करेंगे।

परन्तु हम शरीर से ऐसे जुड़ गए हैं मानों हम शरीर ही हैं। शरीर सुन्दर है। हम कैसे हैं? कभी इस बारे में नहीं सेाचा। हम शरीर से इतनी गहराई से चिपक गए हैं कि जन्म-जन्मान्तर से यही बोध हो गया है कि हम शरीर हैं। इसे विभिन्न प्रकार के भोग एवं खाद्य से सुखी रखा जा सकता है। तब भगवान कृष्ण का कथन सत्य कैसे होगा- ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि|’ अर्थात् जीर्ण वस्त्रों की भाँति आत्मा शरीर का त्याग कर नए शरीर को ग्रहण करती है। यह तभी सम्भव है जब हम शरीर को वस्त्र की तरह ग्रहण करें।

हम जैसे ही अपने वास्तविक स्वरूप को देख लेते हैं फिर इस नश्वर शरीर को वस्त्र की तरह साक्षी भाव से देखने की कला मालूम हो जाती है।

 

||हरि ॐ||

समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिवनेत्र’ से उद्धृत…

 


‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

SadGuru Dham 

SadGuru Dham Live

Comments (0)

Please login to share your comments.



जीवन, मृत्यु क्या है?

Avatar
storyberrys

18 Aug 20247 min read

Published in spiritualism

||श्री सद्गुरवे नमः||

 

जीवन, मृत्यु क्या है?

जीवन

संसार शब्द का अर्थ है, जो निरंतर घूमता रहता है, गाड़ी के चाक की तरह। मन भी इसी तरह घूमता रहता है। एक ही विचार बार-बार घूमते रहते हैं। जिस क्षण आत्मा शरीर को ग्रहण कर संसार में आती है, वही जन्म कहलाता है। आत्मा का ही विक्षिप्त रूप मन है। जीवात्मा एक वर्तुल में घूमती है। सृष्टि भी वर्तुल में घूम रही है। हमारे अन्दर भी, बाहर भी। जो घूमने के बाहर हो गया- वह है सिद्ध।

सारा जगत दौड़ रहा है। यात्रा की गति अति तेज है। भाव जरूर है कि कहीं पहुँच जाएंगे। परन्तु पहुँचते कहीं भी नहीं हैं। जैसे ही जाने-आने का भाव गिर जाता है- आप सिद्ध हो जाते हैं। सिद्ध जहाँ रहता है- वही तीर्थ है। वह मुक्त है।

मेाक्ष या मुक्ति भारतीय शब्द है। ईसाइयत या इस्लाम में स्वर्ग-नर्क है। मोक्ष नहीं है। भारतीय मनीषी मोक्ष की कामना करते हैं। जो स्वर्ग-नर्क दोनों से परे है।

सृष्टि में पैदा होना ही जीवन की यात्रा है। पैदा हम इसलिए होते हैं कि हमें कहीं पहुँचना है। यह हमारा पैदा होना भी वाहन है। चूंकि यह शरीर हमारी यात्रा का वाहन है। इसे हमने चुना है किन्हीं वासनाओं के कारण। जो कुछ हम करना चाहते हैं वह बिना शरीर के सम्भव नहीं है।

गर्भ में इसीलिए प्रविष्ट हुए हैं कि कुछ वासनाएँ हैं, जो अधूरी रह गई हैं। पिछले मरते क्षण कुछ वासनाएँ थीं, जो आपके मन में अधूरी रह गई हैं, वे ही आपको खींच लाई हैं। मरते क्षण आपकी वासना जिस तरह की होगी, वही वासना नए जन्म का कारण बनती है। मरते क्षण में आपके जीवन भर का जो सार-निचोड़ होता है, आकांक्षाओं का, वही धक्का देता है नए गर्भ में प्रविष्ट हो जाने को।

वासना से आसक्त जीव शरीर के बिना नहीं रह सकता है। चूंकि शरीर एक यात्रा वाहन है। इसकी इन्द्रियां रसास्वादन की माध्यम हैं। गर्भ धारण करने के लिए ये ऐसे आतुर हैं, जैसे किसी साधारण पैसेंजर गाड़ी का टिकट लेने एवं उसमें सवार होने वाले धक्का-मुक्की करते हैं।

प्रेतात्माओं की भी यही पीड़ा है। उनके पास वासनाएँ तो हैं परन्तु शरीर नहीं है। क्रोध एवं लोभ भी है। उसको प्रयोग में लाने हेतु उपयुक्त शरीर नहीं है। ऐसी आत्माएं अपने लिए उपयुक्त शरीर खोजती हैं। जैसे ही कोई कमजोर, संकल्पहीन, सुरा-सुन्दरी प्रेमी, भ्रष्ट मिलता है, उसमें बिन बुलाए मेहमान बन जाती हैं। जो व्यक्ति एकदम सिकुड़ा हुआ है, अपने ही घर के एक कोने में छिपकर रहता है, बाकी सारा घर खाली है, प्रेतात्मा उसमें प्रवेश कर जाती है। जिसके घर में गुरु गोविन्द विराज रहे हैं, अपने अन्दर सत्संग से प्रतिदिन दीप-बाती आरती करता है, उसमें प्रेतात्मा का प्रवेश करना असम्भव है।

जीवन में मुख्यतः तीन दिशाएं हैं-

पहला- हमारी जो आसुरी संपदा है, उसको हम अपना स्वभाव समझ लें। फिर सारा जगत बुरा है। हमारा देखने का दृष्टिकोण वही होगा।

दूसरा- हमारे भीतर जो दैवी संपदा है, हम उसके साथ अपने को एक समझ लें| फिर सारा संसार भला है, सुन्दर है।

तीसरा- हम इन दोनों (द्वैत) गुणों से अपने को मुक्त कर लें और साक्षी हो जाएं, तो फिर जगत बुरे और भले का संयोग है। रात-दिन का जोड़ है। अंधेरे और प्रकाश का मेल है। जिस दिन हम चुनाव रहित, विकल्प रहित होते हैं, दोनों सम्पदाओं में से किसी को भी न चुनें, उसी दिन हमारा जीवन परम मुक्ति को प्राप्त कर लेता है।

आज विश्व के मनोवैज्ञानिक इस तथ्य पर पहुँच गए हैं कि अपराधियों में नब्बे प्रतिशत जड़बुद्धि होते हैं। उनके पास कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। वे बुद्धिहीन बुराई करके कई दफा हमें सफल होते दिखाई देते हैं। बुद्धिमान हारता दिखाई पड़ता है। बुद्धिहीन की नीचे गिरने की क्षमता है। वे किसी भी स्तर तक नीचे गिर सकते हैं। बुद्धिमान ऐसा नहीं कर सकते हैं। संसार में जो जितना नीचे गिर सकता है वह उतनी ही जल्दी सफल हो जाता है।

यह जीवन सफल नहीं कहा जा सकता है। वह अपराधी है। ऐसे अपराधी का यह जीवन चूक गया। पता नहीं आगे के कितने जीवन चूकेगा। एक बार गिरने लगता है तो वह अनन्त जन्मों तक गिरता जाता है। एक बार सद्गुरु का सान्निध्य पा लेता है तब वह ऊपर उठता ही जाता है। एक दिन वह अवश्य ही पूर्णता को प्राप्त कर लेता है।

 

 

मृत्यु क्या है?

गुरु गोरखनाथ कहते हैं-

‘मरो हे योगी मरो, मरन है मीठा| तिस मरणीं मरौ जिस मरणीं मरि गोरख दीठा||’

योगी से यह कह रहे हैं। अर्थात् जो आत्मा और शरीर के योग को देख लिया है, वही मृत्यु को भी देख सकता है। इस जगत में मृत्यु से सत्य दूसरा कुछ नहीं है। जैसे ही बच्चा जन्म लेता है वह प्रतिदिन मृत्यु के समीप पहुँच रहा होता है।

जो मृत्यु को नजदीक से देख लेता है, समझ लेता है, उसके लिए मृत्यु झूठ हो गया। मृत्यु तो है ही नहीं। जीवन ही सत्य है। मृत्यु असत्य है। जो साधक एक बार भी समाधि में प्रवेश कर जाता है, वह मृत्यु का साक्षात्कार कर लेता है। इस शरीर में जब तक आत्मा निवास करती है, तब तक जीवन है। इस शरीर के जीर्ण-शीर्ण होने पर आत्मा निकल जाती है। जैसे आपने इस जीवन में कितने वस्त्र बदले, यह याद नहीं है। न ही वस्त्र बदलने का आपको दुख है। ऐसे ही समाधिस्थ व्यक्ति अपनी आत्मा को इस शरीर से आनन्द पूर्वक निकाल लेता है।

यह सभी जानते हैं कि आत्मा अमर है। शाश्वत है। फिर जीवन भी शाश्वत है। चाहे इस पार्थिव शरीर का जीवन हो या सूक्ष्म, कारण, मनोमय शरीर का। शरीर विभिन्न हैं। सभी में जीवन है। फिर जीवन को मृत्यु कैसे कह सकते हैं।

मृत्यु हमारे जीवन को ऊर्जा प्रदान करती है। जैसे दिनभर कोई मेहनत करता है और रात्रि में थक कर सो जाता है। वह गहरी नींद में सभी कुछ भूल जाता है, प्रातः जगकर पुनः नए उत्साह से अपने कार्य में लग जाता है।

आत्मा का सम्बन्ध इस जगत से स्थूल शरीर, भाव शरीर, सूक्ष्म शरीर, मनोमय शरीर के कारण है। ये चार शरीर किसी न किसी प्रकार इस जगत से सम्बंधित हैं। आप जैसे किसी शहर में नौकरी कर रहे हैं, आपकी बदली होते ही किसी दूसरे शहर में चले जाते हैं। फिर वहाँ कोई मकान ले लेते हैं। वहीं के लोग आपके मित्र या शत्रु बन जाते हैं। उसी तरह आत्मा भी कर्मानुसार गाँव, प्रांत, लोक बदल लेती है। यदि किसी समर्थ सद्गुरु द्वारा आपके अन्दर दीक्षा के समय देवास्त्र दिव्यास्त्र डाल दिए गए हैं, तब आप कहीं भी जन्म लेंगे तो अपने जीवन के उद्देश्य के प्रति सदैव सजग रहेंगे। उस परिवार से आप वीतरागी होकर कार्य का सम्पादन करेंगे।

परन्तु हम शरीर से ऐसे जुड़ गए हैं मानों हम शरीर ही हैं। शरीर सुन्दर है। हम कैसे हैं? कभी इस बारे में नहीं सेाचा। हम शरीर से इतनी गहराई से चिपक गए हैं कि जन्म-जन्मान्तर से यही बोध हो गया है कि हम शरीर हैं। इसे विभिन्न प्रकार के भोग एवं खाद्य से सुखी रखा जा सकता है। तब भगवान कृष्ण का कथन सत्य कैसे होगा- ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि|’ अर्थात् जीर्ण वस्त्रों की भाँति आत्मा शरीर का त्याग कर नए शरीर को ग्रहण करती है। यह तभी सम्भव है जब हम शरीर को वस्त्र की तरह ग्रहण करें।

हम जैसे ही अपने वास्तविक स्वरूप को देख लेते हैं फिर इस नश्वर शरीर को वस्त्र की तरह साक्षी भाव से देखने की कला मालूम हो जाती है।

 

||हरि ॐ||

समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिवनेत्र’ से उद्धृत…

 


‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

SadGuru Dham 

SadGuru Dham Live

Comments (0)

Please login to share your comments.