यत्पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे

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storyberrys

18 Aug 20244 min read

Published in spiritualism

यत्पिण्डे-तद् ब्रह्माण्डे

हमारे ऋषि बार-बार कहते आ रहे हैं कि जो कुछ आप ब्रह्माण्ड में देख रहे हैं, देखना चाहते हैं वह सभी कुछ इस छोटे से पिण्ड में भी है। जो साधक अपने ही अन्दर देख लेता है, उसकी यात्रा बिना यात्रा प्रारम्भ किए ही पूर्ण हो जाती है। इसे ठीक से जानने के लिए हमारी पुस्तक ‘कुण्डलिनी जागरण’ का अवलोकन करें। अपने में सभी कुछ शीघ्र देखने हेतु ‘दिव्य गुप्त विज्ञान’ की कला हमारे आचार्य गण से सीख लें। शिव संहिता में भगवान शिव कहते हैं-

‘जानाति यद सर्वमिदं योगी नास्त्यत्रा संशयः।

ब्रह्माण्ड संज्ञेके देहे यथा देशं व्यवस्थितः।।’

अर्थात् ब्रह्माण्ड संज्ञक देह में जिस प्रकार अनेक देशों की व्यवस्था है, उसे पूर्णतः जान लेने वाला ही योगी है। इस पिण्ड के अन्दर प्रवेश करने एवं उसके सम्बन्ध में जानने के लिए ही सद्गुरु की आवश्यकता है। चूंकि सारी चीज तो शास्त्रों में उपलब्ध है। फिर भी हम मात्र उसका पाठ करके या अध्ययन कर संतोष कर लेते हैं। पिण्ड को तीन रूपों में विभक्त कर सकते हैं-

प्रथम- हमारा बाहरी ढांचा अर्थात् रूप। इसे हम यंत्र कहते हैं।

दूसरा- इस पिण्ड अर्थात् शरीर के अन्दर की व्यवस्था कैसी है? इसके बारे में जानकारी प्राप्त करना है। अन्दरूनी व्यवस्था ही तंत्र है।

तीसरा- जिसके आधार पर हमारे अन्दर के अवयवों का निर्माण हुआ है, इस मानवी प्रज्ञा के पीछे भी गणितीय रहस्य छिपा है। वही है- मंत्र।

अध्यात्म में इसे ही आधिभौतिक, आधिवैदिक और आध्यात्मिक व्यवस्था कहते हैं। हम उसी व्यवस्था से संचालित होते हैं। उसकी अदृश्य दृष्टि हमारे चारों तरफ फैली है। तभी तो भगवान शिव कहते हैं-

‘भगवान ने मनुष्य के साढ़े तीन हाथ के शरीर में भूः, भव आदि सप्तलोकों तथा सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पर्वत, सागर, वृक्ष आदि सभी वस्तुओं को विधिवत् प्रतिफलित कर दिया है|’ इसी को कबीर साहब कहते हैं-

‘भीतर बाहर का एकै लेखा। जस बाहर तस भीतर देखा||’

आगे कहते हैं-

‘सूर्य-चाँद दोउ पेवन लगे। गुरु प्रताप से सोवत जागे||’

अनुभव एक ही है। अभिव्यक्ति की शब्द शैली अलग है।

मूलाधार चक्र से सहस्रार तक, पाताल से आकाश तक सात चक्र हैं। ये ही विभिन्न लोक हैं। जो इन लोकों, परलोकों के रहस्य को, इनके ऊपर स्थित देवी-देवता से मिल लेता है, वह बाहर के भी लोकों में परिचित की तरह पहुँच जाता है। वही देवी-देवता बाहर भी स्वागत करते हैं। इस साधक के लिए सारा पर्दा गिर जाता है। सारा रहस्य खुल जाता है। तभी तो वेदव्यास जी को कहना पड़ा- ‘न हि मानुषाछ्रेष्ठतरं हि किञ्चित|’ अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ इस संसार में कुछ भी नहीं है।

अध्यात्म अपने आप में पूर्ण विज्ञान है। इससे हम कुछ भी कर सकते हैं। पदार्थ विज्ञान व्यक्ति में अहंकार लाता है। साधन सुख की आकांक्षा पैदा करता है। जबकि अध्यात्म विज्ञान व्यक्ति को नैसर्गिक, निरहंकारी बनाता है। मानव से मानव को प्रेम का संदेश देता है। यह तथाकथित जाति लिंग, देश, राज्य, राष्ट्र से ऊपर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने में देखता है।

जैसे हम अपने पिण्ड से बाहर निकलकर ब्रह्माण्ड में पहुँचते हैं, देखते हैं असंख्य जुगनुओं के समान तारागण, असंख्य ग्रह, पिण्ड। जैसे-जैसे हम ब्रह्माण्ड के रहस्य में प्रवेश करते हैं, वैसे ही हम अपने को वृहद् पाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, हम सभी में हैं। सभी हम में हैं। अज्ञात आकर्षण की तरफ ऊपर उठते जाते हैं। एक स्थिति ऐसी आती है जहाँ हम समाप्त हो जाते हैं। समस्त सृष्टि का रहस्य खुल जाता है।

परम पुरुष, परम ज्योति अलख पुरुष ही है, जिससे सभी प्रकाशित होते हैं। उसी के स्वयं स्फूर्त से ही अनेक ब्रह्माण्डों की सृष्टि हुई है।

यह सभी कुछ सम्भव है साधक के लिए। असम्भव है कुतार्किक के लिए। हम रात-दिन परिश्रम करते हैं झूठी पद-प्रतिष्ठा के लिए। मेरी सबसे बड़ी चिंता है- ‘इस रहस्य को कोई नहीं जानना चाहता। जिसे जनाना चाहता हूँ, वह जाने-अनजाने लात चलाता है। अपनी क्षुद्र आकांक्षा की पूर्ति हेतु बुरा-भला कहने लगता है।’

 

||हरि ॐ||

 

समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिवनेत्र’ से उद्धृत…

 

 


‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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हमारे ऋषि बार-बार कहते आ रहे हैं कि जो कुछ आप ब्रह्माण्ड में देख रहे हैं, देखना चाहते हैं वह सभी कुछ इस छोटे से पिण्ड में भी है। जो साधक अपने ही अन्दर देख लेता है, उसकी यात्रा बिना यात्रा प्रारम्भ किए ही पूर्ण हो जाती है। इसे ठीक से जानने के लिए हमारी पुस्तक ‘कुण्डलिनी जागरण’ का अवलोकन करें। अपने में सभी कुछ शीघ्र देखने हेतु ‘दिव्य गुप्त विज्ञान’ की कला हमारे आचार्य गण से सीख लें। शिव संहिता में भगवान शिव कहते हैं-

‘जानाति यद सर्वमिदं योगी नास्त्यत्रा संशयः।

ब्रह्माण्ड संज्ञेके देहे यथा देशं व्यवस्थितः।।’

अर्थात् ब्रह्माण्ड संज्ञक देह में जिस प्रकार अनेक देशों की व्यवस्था है, उसे पूर्णतः जान लेने वाला ही योगी है। इस पिण्ड के अन्दर प्रवेश करने एवं उसके सम्बन्ध में जानने के लिए ही सद्गुरु की आवश्यकता है। चूंकि सारी चीज तो शास्त्रों में उपलब्ध है। फिर भी हम मात्र उसका पाठ करके या अध्ययन कर संतोष कर लेते हैं। पिण्ड को तीन रूपों में विभक्त कर सकते हैं-

प्रथम- हमारा बाहरी ढांचा अर्थात् रूप। इसे हम यंत्र कहते हैं।

दूसरा- इस पिण्ड अर्थात् शरीर के अन्दर की व्यवस्था कैसी है? इसके बारे में जानकारी प्राप्त करना है। अन्दरूनी व्यवस्था ही तंत्र है।

तीसरा- जिसके आधार पर हमारे अन्दर के अवयवों का निर्माण हुआ है, इस मानवी प्रज्ञा के पीछे भी गणितीय रहस्य छिपा है। वही है- मंत्र।

अध्यात्म में इसे ही आधिभौतिक, आधिवैदिक और आध्यात्मिक व्यवस्था कहते हैं। हम उसी व्यवस्था से संचालित होते हैं। उसकी अदृश्य दृष्टि हमारे चारों तरफ फैली है। तभी तो भगवान शिव कहते हैं-

‘भगवान ने मनुष्य के साढ़े तीन हाथ के शरीर में भूः, भव आदि सप्तलोकों तथा सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पर्वत, सागर, वृक्ष आदि सभी वस्तुओं को विधिवत् प्रतिफलित कर दिया है|’ इसी को कबीर साहब कहते हैं-

‘भीतर बाहर का एकै लेखा। जस बाहर तस भीतर देखा||’

आगे कहते हैं-

‘सूर्य-चाँद दोउ पेवन लगे। गुरु प्रताप से सोवत जागे||’

अनुभव एक ही है। अभिव्यक्ति की शब्द शैली अलग है।

मूलाधार चक्र से सहस्रार तक, पाताल से आकाश तक सात चक्र हैं। ये ही विभिन्न लोक हैं। जो इन लोकों, परलोकों के रहस्य को, इनके ऊपर स्थित देवी-देवता से मिल लेता है, वह बाहर के भी लोकों में परिचित की तरह पहुँच जाता है। वही देवी-देवता बाहर भी स्वागत करते हैं। इस साधक के लिए सारा पर्दा गिर जाता है। सारा रहस्य खुल जाता है। तभी तो वेदव्यास जी को कहना पड़ा- ‘न हि मानुषाछ्रेष्ठतरं हि किञ्चित|’ अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ इस संसार में कुछ भी नहीं है।

अध्यात्म अपने आप में पूर्ण विज्ञान है। इससे हम कुछ भी कर सकते हैं। पदार्थ विज्ञान व्यक्ति में अहंकार लाता है। साधन सुख की आकांक्षा पैदा करता है। जबकि अध्यात्म विज्ञान व्यक्ति को नैसर्गिक, निरहंकारी बनाता है। मानव से मानव को प्रेम का संदेश देता है। यह तथाकथित जाति लिंग, देश, राज्य, राष्ट्र से ऊपर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने में देखता है।

जैसे हम अपने पिण्ड से बाहर निकलकर ब्रह्माण्ड में पहुँचते हैं, देखते हैं असंख्य जुगनुओं के समान तारागण, असंख्य ग्रह, पिण्ड। जैसे-जैसे हम ब्रह्माण्ड के रहस्य में प्रवेश करते हैं, वैसे ही हम अपने को वृहद् पाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, हम सभी में हैं। सभी हम में हैं। अज्ञात आकर्षण की तरफ ऊपर उठते जाते हैं। एक स्थिति ऐसी आती है जहाँ हम समाप्त हो जाते हैं। समस्त सृष्टि का रहस्य खुल जाता है।

परम पुरुष, परम ज्योति अलख पुरुष ही है, जिससे सभी प्रकाशित होते हैं। उसी के स्वयं स्फूर्त से ही अनेक ब्रह्माण्डों की सृष्टि हुई है।

यह सभी कुछ सम्भव है साधक के लिए। असम्भव है कुतार्किक के लिए। हम रात-दिन परिश्रम करते हैं झूठी पद-प्रतिष्ठा के लिए। मेरी सबसे बड़ी चिंता है- ‘इस रहस्य को कोई नहीं जानना चाहता। जिसे जनाना चाहता हूँ, वह जाने-अनजाने लात चलाता है। अपनी क्षुद्र आकांक्षा की पूर्ति हेतु बुरा-भला कहने लगता है।’

 

||हरि ॐ||

 

समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिवनेत्र’ से उद्धृत…

 

 


‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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