कर्मयोग

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19 Aug 202417 min read

Published in spiritualism

||श्री सद्गुरवे नमः||

 

पृथु का कर्मयोग

 

महर्षि बाल्मीकि ने कहा था-‘सदा प्रिय लगने वाली बातें कहने वाले लोग सुलभ हैं। लेकिन सुनने में अप्रिय किन्तु परिणाम में अच्छी लगने वाली बातें कहने तथा सुनने वाले दोनों दुर्लभ हैं|’ यह अक्षरशः सत्य है। इसी चाटुकारिता का जीता-जागता उदाहरण है आज का भारत। आज के भारतीय राजनेता। और इसका परिणाम है आज का अशिक्षित, दरिद्र, दुःखी एवम् पिछड़ा भारत। लोग सत्य से हटते रहे हैं, कर्महीन होते जा रहे हैं। जो व्यक्ति एक चपरासी नहीं बन सकता, एक छोटी-मोटी दो-चार हजार की दुकान चलाने की क्षमता नहीं रखता, वह बन जाता है-राजनेता। अब उसके हाथ में आ गया देश के निर्माण का कार्य, देश का भाग्य। उसके पास अस्त्र है-चाटुकारिता का। शस्त्र है धूर्तता का। सहारा है-पाखण्ड का। विवेक है-भेद का, वैर का। आदर्श है-दमन का। दिखावा है-जनसेवा।

केवल नेताओं को ही कहा जाए तो बेईमानी होगी। हमारे साधु-महात्मा भी इनसे पीछे नहीं है। कल तक मजदूरी के लिए दौड़ रहे थे। वह भी नहीं हो पा रही थी। न कोई पुरुषार्थ था, न कोई चरित्र और न कोई जीने का साधन। कुछ कर गुजरने की हिम्मत भी नहीं थी, परन्तु था तो सिर्फ दिवास्वप्न-कैसे  ऐशो आराम का जीवन व्यतीत करना है। प्राप्त करने की बुद्धि, विवेक तो था नहीं, अतः बन गये साधु। किसी मठ का महंत। मौन साधकर मौनी बाबा बन गये या खडे़ होकर खडे़श्वरी बाबा। रातों रात सिद्ध बाबा बन गये। क्योंकि उनकी मानसिकता के लोगों की कमी नहीं है यहां। लोगों की भीड़ उनके इर्द-गिर्द खड़ी हो गयी। अब बाबा पालकी पर चलने लगे। गाड़ी, घोड़ा आ गया। मठ महल बन गया। दुकानदारी चल निकली। धूर्तता का कमाल रंग लाया।

यह सब काम काहिल, अकर्मण्य एवम् आलसी व्यक्ति ही कर सकता है। देव संस्कृति के लोग इसी प्रकृति के हुआ करते थे। उनका विरोध करने वाले उनके दमन के भागी बनते। जो उनका चतुरतापूर्वक प्रतिरोध करता उसका ये स्तुतिगान करते। पृथु इन्हीं लोगों में से एक थे।

इनके पिता थे राजा-बेन। राजा बेन राजा अङ्ग के पुत्र थे। बहुत प्रतापी तथा कर्मठ थे। इनकी प्रजा भी कर्तव्यपरायण थी। सभी समुन्नत एवम् सुखी थे। इसको देखकर भृगु पुत्र शंकराचार्य चकित हो गये। किसी प्रकार उनसे मित्रता करने की सोचे। अपने पिता भृगु की मदद से मृत्युदेव की पुत्री सुनीथा से राजा अङ्ग की शादी करवा दी गई। इससे देवर्षि भृगु का इनके यहाँ आगमन सुलभ हो गया। देवताओं का भी आना-जाना शुरू हो गया। सुनीथा से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम था बेन। बेन की शिक्षा-दीक्षा देवताओं के सान्निध्य में हुई। अधिकतर समय स्वर्ग या रूस के भू-भाग में ही रहे। समयानुसार राजा अङ्ग अपने पुत्र को राजनीति की शिक्षा-दीक्षा देकर राज्य का उत्तराधिकार सौंप दिए।

राजा बेन अत्यन्त ही कठोर शासक हुए। अकर्मण्यता इन्हें कतई बर्दाश्त नहीं थी। सभी लोगों को यथायोग्य कर्म करने के लिए बाध्य किये। हिंसक यज्ञ पर रोक लगा दी गयी। मदिरा, मांस, जुआ, चोरी सब रुक गये। श्रीमद्भागवत् में वर्णन है-

 

श्रुत्वा नृपासनगतं बेनमत्युग्रशासनम्।

निलिल्पुर्दस्यवः सद्यः सर्पत्रास्ता इवाखवः।।

 

अर्थात् बेन बड़ा कठोर शासक था। जब चोर-डाकुओं ने सुना कि वह राज सिंहासन पर बैठ गया है सर्प से डरे हुए चूहों की तरह तुरन्त जहां-तहां छिप गए।

हन्यतां हन्यतामेव पापः प्रकृति दारुणः।

जीज्जगदसावाशु कुरुते भस्मसाद ध्रुवम्।।

 

अर्थात् मार डालो! इस दुष्ट पापी को मार डालो! यदि यह जिन्दा रह गया तो कुछ दिनों में ही इस संसार को अवश्य भस्म कर डालेगा। सम्भवतः भृगु मुनि के नेतृत्व में एक ऋषि द्वारा किसी राजा की हत्या और वह भी धोखे से इस सृष्टि के अन्तर्गत प्रथम बार की गयी होगी।

राजा बेन की माता अत्यन्त शोकाकुल हो गयीं। वह एक पतिव्रता नारी थीं, अतः अपने तपोबल से उसके शव को सुरक्षित रख दीं तथा प्रजा को शान्ति से काम लेने का सुझाव दीं। मंत्रियों को आदेश दिया कि ऋषि विश्वमित्र का पता लगाया जाए एवम् उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया जाये।

राजसिंहासन खाली हो गया था; अतः पूरी पृथ्वी पर उपद्रव एवम् आतंक फैल गया।

तदुपद्रवभाज्ञय लोकस्य वसु लुम्पताम्।

भर्तर्पुपरते तस्मिन्नन्योन्यं च जिधांसताम्।।

अर्थात् ऋषिवर देखते ही समझ गये कि राजा बेन के मर जाने के कारण ही देश में अराजकता फैली हुई है। राज्य शक्तिहीन, निर्बल हो गया था। चोरों-डाकुओं का बोलबाला हो गया था। धन लूटने वाले लुटेरे उपद्रव फैला रखे थे। एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये थे।

विश्वमित्र अपने साथ कुछ और तेजस्वी तथा प्रबुद्ध ऋषियों को लेकर राजमहल पहुंच गये। वहां पहुंचकर राजा बेन की लाश का निरीक्षण किये। उनकी जांघों का मंथन किया गया जिससे एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ। काले वर्ण के उस पुरुष के हाथ-पैर छोटे-छोटे, नेत्र लाल तथा केशों का रंग तांबे जैसा था। वह पूछा-क्या करूँ?

ऋषियों ने कहा-निषद (बैठ जा)। यही निषद बाद में निषाद कहलाया। उनकी दोनों भुजाओं का मंथन किया गया। बायीं भुजा से एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री निकली तथा दायीं भुजा से एक देदीप्यमान सर्वांग सुन्दर पुरुष। इसे ऋषियों ने विष्णु का प्रतिनिधि कहा तथा स्त्री को लक्ष्मी का प्रतिनिधि। उन्होंने घोषणा की कि यही पुरुष पृथ्वी का पालन करेगा। अतः तद्नुरूप इसका नाम पृथु के नाम से विख्यात होगा। ये दोनों ही पति-पत्नी होंगे। ऋषियों ने राजगद्दी सौंप दिया। पुनः ब्रह्मा आदि देवताओं ने आकर उन्हें विष्णु का अवतार होने की घोषणा कर दी।

इन बातों की सत्यता को आज विज्ञान ने भी प्रतिपादित कर दिया। यह सिद्ध कर दिया कि व्यक्ति की एक कोशिका से पूरे के पूरे मानव का विकास सम्भव है। मंथन यानि कोशिका (सेल) को सृजन की प्रक्रिया से गुजारना। पुरुष में ही X(एक्स) और Y(वाई) क्रोमोसोम होता है। यह स्त्री एवम् पुरुष के गुण का द्योतक है। स्त्रियों में तो मात्र X(एक्स) क्रोमोसोम होता है। अतः पुरुष के सेल से स्त्री तथा पुरुष दोनों का निर्माण सम्भव है। यह तो विज्ञान के लिए नयी खोज हो सकती है। सम्भव है उसे इसमें सफलता भी मिल जाए। परन्तु महर्षि विश्वमित्र ने तो इसकी खोज बहुत पहले कर ली थी। जो उस वक्त के देव तथा दानव दोनों संस्कृतियों के लिए असम्भव थी। यही कारण था कि विश्वमित्र को सृष्टि का रचनाकार कहा गया। देव-दनुज सभी इनके लौकिक पौरुष के सामने बौने नजर आते थे।

ऋषि की यह अद्भुत खोज तीनों लोकों में जंगल की आग की तरह फैल गयी। देवता-दानव सब भयभीत हो गये। सभी अब राजा की स्तुति करने एवम् उपहार देने हेतु आने लगे। कुबेर ने सोने का सिंहासन दिया तो वरुण ने श्वेत प्रकाशवान छत्र। वायुदेव ने चंवर दिया तो धर्मराज ने कीर्तिदायी माला। इसके अलावा इन्द्र ने मुकुट दिया, यमराज ने दण्ड, ब्रह्म ने कवच, सरस्वती ने हार, विष्णु ने चक्र, लक्ष्मी ने सम्पत्ति, रुद्र ने चन्द्रकान्ता तलवार, अम्बिका ने ढाल और चन्द्रमा ने अश्व। विश्वकर्मा ने सुन्दर रथ, अग्नि ने धनुष, सूर्य ने बाण तथा पृथ्वी ने स्वचालित पादुकाएं प्रदान कीं। सब मिलकर पृथु का स्तुति गान करने लगे।

ऋषिवर पृथु को राज्यारूढ़ कर अपने आश्रम को चलने के लिए उद्यत हुए। पृथु ने चरण स्पर्श कर विनीत भाव से उनका आदेश पूछा। विश्वमित्र ने शान्त स्वर में कहा-‘राजन्, प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति के  यहां चाटुकारों एवम् अकर्मण्यों की भीड़ हो जाती है। इससे वह व्यक्ति अपने आपको आवश्यकता से अधिक समझने लगता है। कर्म से च्युत होकर भोग में प्रवृत्त हो जाता है। उपहार में दुनिया की सारी भोग सामग्री सहजता से उपलब्ध हो जाने के कारण राजा का सारा पौरूष ढीला पड़ जाता है। इस प्रकार उसका धन, धर्म तथा पौरुष तीनों का लोप होने लगता है। कीर्ति क्षीण होने लगती है। अतः हे राजन्! तुम इन उपहारों एवम् बन्दी जनों की झूठी प्रशंसा में न पड़कर अपने हित एवम् जगत कल्याण के लिए आत्मचिन्तन करते हुए उद्यम करो। उद्यम से ही पृथ्वी पर खुशहाली ला सकते हो। बहुतों को तुमसे आशा है। अतः तुम मन, वाणी, शरीर और बुद्धि से धर्म का आचरण करो। यह काम निष्काम भाव से ही होना चाहिए। यही धर्म तुम्हें अनन्त मोक्ष तक पहुंचा देगा। अतः हे राजन्! अब

तुम अपने कर्म में लग जाओ|’ यह कहकर ऋषि अपने आश्रम में वापस आ गए।

राजा पृथु राज्य की शासन व्यवस्था को सम्भालने में लग गए। एक तरफ तो देवताओं ने उपहार भेंट किया तो दूसरी तरफ अनावृष्टि कर दी। पृथ्वी के पेड़-पौधे सूखने लगे। पशु-पक्षी भूख से मरने लगे। नर-नारी काल कवलित होने लगे। जिन्दे लोगों की दशा भी मुर्दों जैसी हो गयी। नगर के प्रमुख निवासियों ने राजा से भेंट कर कहा-‘हे राजन्! जिस प्रकार वृक्ष के कोटरे में सुलगती आग से पेड़ जल जाता है उसी प्रकार हम भी पेट की भूख की ज्वाला से जले जा रहे हैं। हम सभी आपके शरणागत हैं। आप ही हमारे रक्षक हैं। आप हमारी जीविका के भी स्वामी हैं। अतः हे राजन्! आप हम क्षुधा पीड़ितों को अन्न देने का प्रबन्ध करें| कहीं ऐसा न हो कि अन्न मिलने के पहले ही हमारा अन्त हो जाए। महाराज प्रजा का करुण-क्रंदन सुनकर चिन्तित हो गये। बहुत सोच-विचार कर विश्वमित्र से परामर्श लेने गए। उन्होंने कहा-अटूट श्रद्धा एवं दृढ़ विश्वास के साथ किया गया परिश्रम व्यर्थ नहीं जाता। विपदाओं से जूझने वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ होता है। तुम बुद्धिमान हो। अपने बुद्धि-विवेक का सहारा लो। पृथ्वी के अन्दर अनन्त संभावनाएं छिपी हैं। अपने पुरुषार्थ के सहारे आप उनका पता लगाओ। सभी को स्वाबलम्बी बना दो।’

पुराणकर्ता का कहना है कि पृथु ने अत्यन्त क्रोधित होकर धनुष बाण उठा लिया। गाय का रूप धारण कर पृथ्वी भाग चली। तीनों लोकों में भागती रही। जब कोई भी उसकी रक्षा न कर सका तो पृथु से विनीत होकर कहा-हे राजन्! तू मेरा वध क्यों करना चाहता है। मैं स्त्री जाति हूं। इसलिए भी मेरा वध करना राजा का कर्तव्य नहीं है।

पृथु बोले-हे देवि! जो दुष्ट सिर्फ अपना ही पोषण करने वाला हो तथा दूसरों के प्रति निर्दयी हो, उनके बारे में न सोचता हो, उसको मारना राजाओं के लिए वध करने के समान नहीं है, चाहे वह स्त्राी हो, पुरुष या फिर नपुंसक। तू बहुत घमण्डी है। मदान्ध है। इस समय भी माया से ही यह गाय का रूप बनाये हुए है। मैं बाणों से तुझे टुकडे़-टुकडे़ कर अपने योग बल से प्रजा को धारण करूँगा। पृथ्वी बोली-हे प्रभो! आप ही परमात्मा हैं। सर्व समर्थ हैं। फिर भी मैं कुछ कहना चाहती हूँ। कृपया आप क्रोध शान्त करें। बुद्धिमान पुरुष भ्रमर के समान सबमें से सार ग्रहण कर लेते हैं। कृषि अग्निहोत्र का उपाय करें। हे लोक पालक वीर! यदि आपको सभी प्राणियों के अभीष्ट एवं बलवर्धक अन्न की आवश्यकता है तो आप मेरे योग्य एक बछडे़, दोहन पात्र और दुहने वाले की व्यवस्था कीजिए। मैं उस बछडे़ को प्यार पेन्हाकर दूध के रूप में ये सभी अभीष्ट वस्तुएं दे दूँगी। राजन्! एक काम और। आपको मुझे समतल करना होगा ताकि वर्षों बीत जाने पर भी इन्द्र द्वारा बरसाया जल सर्वत्र बना रहे। मेरे भीतर की आर्द्रता सूखने न पाये। यह आपके लिए बहुत मंगलकारक होगा।

यहाँ यह बात समझने लायक है कि राजा धनुषबाण लेकर पृथ्वी को मारने को उद्यत हुए। पृथ्वी गाय बनकर तीनों लोकों में भागी। यानि पृथु ने पूरी पृथ्वी का सर्वेक्षण किया। पृथ्वी गाय की तरह ही उबड़-खाबड़ है। जिससे पानी इस पर नहीं टिकता। अतः आवश्यकता महसूस की गयी पृथ्वी को समतल करने की। उचित जगह पर पानी को बांधकर रोकने की एवम् समय पर सिंचाई के लिए उसके इस्तेमाल की। इसी दौरान यह पता चला कि अलग-अलग जगह पर अलग-अलग तरह की खेती करनी होगी। स्थान के अनुसार ही खेती का चयन करना ठीक रहेगा। इसके लिए अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तरह की खेती का प्रशिक्षण दिया गया। दूसरी बात-जो बछड़ा बनकर पृथ्वी रूपी गाय का दोहन करेगा-दुहने का पात्र यानि भिन्न-भिन्न तरह के कृषि कार्य के लिए भिन्न-भिन्न तरह की तकनीक एवं उपकरण का प्रयोग करना होगा।

महाराज पृथु विश्वमित्र के सहयोग से कृषि की नवीनतम तकनीक विकसित किए। इन्होंने भांति-भांति के फलों, फूलों तथा कन्द-मूल के आसव पैदा करने की तकनीक भी खोज ली। अपने प्रजा को तदनुरूप प्रशिक्षित कर दक्ष कर दिये। परिणाम सामने था। पृथ्वी फल-फूल, अन्न, धन से भर गई। सभी परिश्रमी, पुरुषार्थी हो गए। पृथ्वी पर पहली बार पृथु ने कृषि एवं उद्योग की तकनीक का विकास किया। इसे सहज रूप में चलाने के लिए पृथु ने प्रजा को समतल भूमि में बसाने की व्यवस्था किया। प्रजा के लिए यथायोग्य निवास स्थान देने का एक विभाग बनाया। गांव, कस्बा, नगर, दुर्ग, अहीरों की बस्ती (गौ पालकों की बस्ती), छावनियाँ, खानें तथा खान-कर्मियों की बस्ती, किसानों के गांव एवम् पहाड़ की तलहटियों में फल-फूल उगाने वालों के गांव बसाये गये।

पृथु का यह कार्य देव-दनुज एवम् नाग संस्कृति के लोगों के लिए भी अत्यन्त अनुकरणीय हुआ, प्रशंसनीय हुआ। यही कारण है कि इन्हें परमात्मा का अवतार माना गया। प्रजा ने पिता की तरह ही नहीं अपितु परमात्मा की तरह इनकी पूजा की। श्रेष्ठ कर्मशील व्यक्ति ही परमात्मा का रूप होता है।

‘उद्यमः शास्त्राः, बुद्धिः शान्तिः पराक्रमः।

षडैते यम विद्यन्ते, तंत्र देवः सहायकः।।’

जो व्यक्ति दृढ़ निश्चयपूर्वक अपने कर्म में जुट जाता है उसको प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में अदृश्य शक्तियां भी मदद करती हैं। अकर्मण्य और पुरुषार्थहीन व्यक्ति की कोई मदद नहीं करता। जिस किसी के पास उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति एवम् पराक्रम ये छः गुण होते हैं उसकी सहायता देवता भी करते हैं।

उद्यमी व्यक्ति आलसी नहीं हो सकता। आलसी उद्यमी नहीं हो सकता। दोनों विपरीत दिशाओं के पथिक थे। अकर्मण्य व्यक्ति भाग्य, नक्षत्र और ग्रहों के भरोसे बैठ जाता है। जबकि उद्यमी व्यक्ति अपने सतत् परिश्रम से, लगन से पत्थरों से भी पानी निकाल लेते हैं।

अलसस्य कुतः विद्या, अविद्यस्य कुतः धनम्।

अधनस्य कुतः मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम्।।

आलस्य अकेले ही व्यक्ति के विनाश के लिए काफी है। बडे़-बडे़ राजा भी आलस्य के चलते अपने जीवन में ही दरिद्र हो गये। गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने उद्यम के बल पर धनी एवम् सम्पत्तिशाली हो जाता है।

सूत्र रचयिता इस श्लोक में पूछता है, प्रश्न करता है कि आलसी व्यक्ति कैसे विद्वान हो सकता है? क्योंकि इसके लिए भी पढ़ना-लिखना है। इसमें भी तो उद्यम की जरूरत पड़ती है। पढ़े-लिखे लोगों का साथ करना पड़ता है। विद्याहीन यानि मूर्ख व्यक्ति धन को कैसे उपलब्ध हो सकता है। धन कमाने के लिए भी तो प्रतिभा की जरूरत होती है। निर्धन व्यक्ति को मित्र नहीं मिलता। यदि सुख चाहिए तो मित्र के बिना यह भी सम्भव नहीं। सभी का एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। पश्चिमी भारत के हिस्से मरुस्थल थे। इनमें आज का राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, गुजरात एवम् दिल्ली शामिल था। परन्तु यहां के लोगों ने प्रकृति से जूझना सीख लिया। आलस्य का परित्याग कर दिया। पृथ्वी का पीछा किया राजा पृथु की तरह। परिणाम सामने है। बलुअट जमीन पर भी फसलों का अंबार लगा दिया पंजाब ने। ऐसा लगता है मानो पृथ्वी स्वयं धन-धान्य उगल रही हो। आज पंजाब हरित क्रान्ति का अग्रदूत बन गया है। हरियाणा की भी यही स्थिति है। गुजरात की धरती मूंगफली, सूरजमुखी के अलावा कई अन्य फसलों के लिए भी कारगर सिद्ध हो गयी। लोग उद्यमी थे, अतः गुजरात तथा पंजाब का क्षेत्र उद्योग के क्षेत्र में भी अत्यन्त विकसित हो गया। जहां पीने को पानी नहीं मिलता था वहां की जमीन हीरे-मोती उगलने लगी। सच कहा जाए तो भारत की समृद्धि पंजाब, गुजरात तथा हरियाणा के बिना अधूरी हो जाएगी। यह सब पुरुषार्थ का ही कमाल है।

मनुष्य कर्म करता रहे, फल की आकांक्षा न करे- यही संन्यास है। घर-बार छोड़कर कहीं भाग जाने का नाम संन्यास नहीं।

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यः करोति यः।

स संन्यासी च न निराग्निः न चाक्रियः।।

भारत में भ्रान्त धारणा हो गयी है कि संन्यासी वही है जो अग्नि का स्पर्श न करे। उन्हें ही बैरागी कहा गया जिन्हें अग्नि से बैर हो। इसने बहुतेरों को अकर्मण्य बनाया। अपने खाने के लिए भी भोजन नहीं बनाना है, क्योंकि बैरागी हैं। अग्नि को स्पर्श कर नहीं सकते। ऐसा न करने के अहंकार ने जोर पकड़ लिया। अपने को औरों से श्रेष्ठ होने का विचार बलवती हो गया। अग्नि के नजदीक रहने वाला और उससे खाना बनाने वाला गृहणी हो गया। अब उसका कर्तव्य हो गया कि वह भोजन बनाकर बैरागी बाबा को खिलाए। बाबा मात्र भोजन करने के लिए हैं। वह खाकर सो जाने का यंत्र हो गया। यह सब भ्रान्त धारणा ही भारत को दरिद्र बनाने में सहायक हुईं। अब ऐसे ही कर्महीन संन्यासियों की बाढ़ आ गयी।

आज के युग में लगभग सभी सम्प्रदायों के धर्मगुरु कर्महीन हो गये हैं। धर्म की आड़ में दान पर ही जीना चाहते हैं। बदले में दुनिया को दीनता दे रहे हैं। इन दीनों एवम् धर्मगुरुओं में बहुत प्रगाढ़ सम्बन्ध हो गया है। सद्गुरु कबीर साहब ने स्वयं तो कर्म किया ही, दूसरों को भी इसके लिए प्रेरणा दी वे प्रेरणा के स्रोत बन कर रह गए। इसी के परिणाम हुए रविदास जैसे महान संत और उनके जैसे संत चमडे़ सिलने का काम करते हुए, जूते सीते हुए परमात्मा को उपलब्ध हुए। नानकदेव कर्म करते हुए बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। अब दादू, पलटू, दरिया, गुलाब साहब आदि सन्तों की परम्परा ही चल दी। यह परम्परा लगभग समाप्त होने लगी है। सब लोगों में पाण्डित्य किसी काम का नहीं। यद्यपि यह कहना वर्तमान युग के धर्मगुरुओं का अपमान है, परन्तु इस दृष्टिकोण से मैं यह बात नहीं कह रहा हूं। लगभग यही स्थिति आज से सौ वर्ष पूर्व में भी थी, जब सन् 1892 में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन बुलाया गया था। भारत में भी विश्व धर्म सम्मेलन की समिति बनायी गयी थी। इसमें विख्यात शिक्षाविद् डा. हेनरी मिलर, ‘हिन्दू’ के सम्पादक डा. सुब्रह्मण्यम अय्यर एवं ब्रह्म समाज के प्रतापचन्द्र मजूमदार थे। तब भी भारतीय बौद्धिक जगत हिन्दू धर्म के बारे में अत्यन्त हीन दृष्टि अपना रहा था।

सुब्रह्मण्यम अय्यर ने अपने समाचार पत्र ‘हिन्दू’ में लिखा कि हिन्दू धर्म आधुनिक सामाजिक जीवन की जटिल समस्याओं पर प्रकाश डालने में असमर्थ है। अन्य धर्माचार्यों ने भी कुछ इसी प्रकार की टिप्पणियां की। ईसाइयों की प्रतिक्रिया तो और भी कटु थी। इंगलैंड के धर्माचार्य केंटरवरी के ओर्क विशप ने तो सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया तथा घोषणा कर दी कि ईसाई धर्म ही सच्चा धर्म है। अन्य धर्मों के इसके समकक्ष होने की कल्पना तक भी नहीं की जा सकती। हांगकांग के धर्माचार्य ने लिखा कि ‘आप प्रभु ईसा के साथ विश्वासघात कर रहे हैं। ईसाई पत्रिका ने लिखा है कि क्या यह मूर्खता नहीं कि केंटरबरी के धर्माचार्य को हिन्दू धर्म जैसे धर्मों के प्रतिनिधियों के साथ बैठने को कहा जाए।’ प्रतिक्रिया भी इतनी ही उदार थी। ईसाई धर्म सब धर्मों पर छा जायेगा…। हम ईसाई ईसा की सम्पूर्ण ज्योति से आलोकित हैं। पर हमें अपने अन्धकार में डूबे भाइयों के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए।’

ऐसी पृष्ठभूमि में एक तीस वर्षीय युवक संन्यासी आता है। अपनी सारगर्भित वाणी में अपने को संप्रेषित करता है। जिसका परिणाम विश्व के सामने आता है। विवेकानन्द ने दीन-दुखियों की सेवा को ही सच्ची भगवत सेवा समझा। उनके लिए अस्पताल, स्कूलों का निर्माण कराये। अपना जीवन मानवता की सेवा में समर्पित कर दिया। सचमुच एक निष्काम योगी के रूप में निखरकर सामने आये। पुरातनवादी स्वयं पीछे हट गये। भारतीय आकाश पर ये सूर्य की भांति चमकने लगे।

शेख शादी ने कहा है कि जिसने विद्या तो पढ़ी पर उस पर आचरण नहीं किया, वह उसी के समान है जिसने खेत तो जोत दिया पर उसमें बीज नहीं डाला। आज की स्थिति बिल्कुल यही है। विद्यार्थी से शिक्षक तक केवल पढ़ते-पढ़ाते हैं, गुरु से शिष्य तक प्रवचन कराते हैं, परन्तु उसे अपने में नहीं उतारते।

 

 

||हरि ॐ||

समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कह कबीर कुछ उद्यम कीजै’ से उद्धृत…

 


‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

SadGuru Dham 

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पृथु का कर्मयोग

 

महर्षि बाल्मीकि ने कहा था-‘सदा प्रिय लगने वाली बातें कहने वाले लोग सुलभ हैं। लेकिन सुनने में अप्रिय किन्तु परिणाम में अच्छी लगने वाली बातें कहने तथा सुनने वाले दोनों दुर्लभ हैं|’ यह अक्षरशः सत्य है। इसी चाटुकारिता का जीता-जागता उदाहरण है आज का भारत। आज के भारतीय राजनेता। और इसका परिणाम है आज का अशिक्षित, दरिद्र, दुःखी एवम् पिछड़ा भारत। लोग सत्य से हटते रहे हैं, कर्महीन होते जा रहे हैं। जो व्यक्ति एक चपरासी नहीं बन सकता, एक छोटी-मोटी दो-चार हजार की दुकान चलाने की क्षमता नहीं रखता, वह बन जाता है-राजनेता। अब उसके हाथ में आ गया देश के निर्माण का कार्य, देश का भाग्य। उसके पास अस्त्र है-चाटुकारिता का। शस्त्र है धूर्तता का। सहारा है-पाखण्ड का। विवेक है-भेद का, वैर का। आदर्श है-दमन का। दिखावा है-जनसेवा।

केवल नेताओं को ही कहा जाए तो बेईमानी होगी। हमारे साधु-महात्मा भी इनसे पीछे नहीं है। कल तक मजदूरी के लिए दौड़ रहे थे। वह भी नहीं हो पा रही थी। न कोई पुरुषार्थ था, न कोई चरित्र और न कोई जीने का साधन। कुछ कर गुजरने की हिम्मत भी नहीं थी, परन्तु था तो सिर्फ दिवास्वप्न-कैसे  ऐशो आराम का जीवन व्यतीत करना है। प्राप्त करने की बुद्धि, विवेक तो था नहीं, अतः बन गये साधु। किसी मठ का महंत। मौन साधकर मौनी बाबा बन गये या खडे़ होकर खडे़श्वरी बाबा। रातों रात सिद्ध बाबा बन गये। क्योंकि उनकी मानसिकता के लोगों की कमी नहीं है यहां। लोगों की भीड़ उनके इर्द-गिर्द खड़ी हो गयी। अब बाबा पालकी पर चलने लगे। गाड़ी, घोड़ा आ गया। मठ महल बन गया। दुकानदारी चल निकली। धूर्तता का कमाल रंग लाया।

यह सब काम काहिल, अकर्मण्य एवम् आलसी व्यक्ति ही कर सकता है। देव संस्कृति के लोग इसी प्रकृति के हुआ करते थे। उनका विरोध करने वाले उनके दमन के भागी बनते। जो उनका चतुरतापूर्वक प्रतिरोध करता उसका ये स्तुतिगान करते। पृथु इन्हीं लोगों में से एक थे।

इनके पिता थे राजा-बेन। राजा बेन राजा अङ्ग के पुत्र थे। बहुत प्रतापी तथा कर्मठ थे। इनकी प्रजा भी कर्तव्यपरायण थी। सभी समुन्नत एवम् सुखी थे। इसको देखकर भृगु पुत्र शंकराचार्य चकित हो गये। किसी प्रकार उनसे मित्रता करने की सोचे। अपने पिता भृगु की मदद से मृत्युदेव की पुत्री सुनीथा से राजा अङ्ग की शादी करवा दी गई। इससे देवर्षि भृगु का इनके यहाँ आगमन सुलभ हो गया। देवताओं का भी आना-जाना शुरू हो गया। सुनीथा से एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम था बेन। बेन की शिक्षा-दीक्षा देवताओं के सान्निध्य में हुई। अधिकतर समय स्वर्ग या रूस के भू-भाग में ही रहे। समयानुसार राजा अङ्ग अपने पुत्र को राजनीति की शिक्षा-दीक्षा देकर राज्य का उत्तराधिकार सौंप दिए।

राजा बेन अत्यन्त ही कठोर शासक हुए। अकर्मण्यता इन्हें कतई बर्दाश्त नहीं थी। सभी लोगों को यथायोग्य कर्म करने के लिए बाध्य किये। हिंसक यज्ञ पर रोक लगा दी गयी। मदिरा, मांस, जुआ, चोरी सब रुक गये। श्रीमद्भागवत् में वर्णन है-

 

श्रुत्वा नृपासनगतं बेनमत्युग्रशासनम्।

निलिल्पुर्दस्यवः सद्यः सर्पत्रास्ता इवाखवः।।

 

अर्थात् बेन बड़ा कठोर शासक था। जब चोर-डाकुओं ने सुना कि वह राज सिंहासन पर बैठ गया है सर्प से डरे हुए चूहों की तरह तुरन्त जहां-तहां छिप गए।

हन्यतां हन्यतामेव पापः प्रकृति दारुणः।

जीज्जगदसावाशु कुरुते भस्मसाद ध्रुवम्।।

 

अर्थात् मार डालो! इस दुष्ट पापी को मार डालो! यदि यह जिन्दा रह गया तो कुछ दिनों में ही इस संसार को अवश्य भस्म कर डालेगा। सम्भवतः भृगु मुनि के नेतृत्व में एक ऋषि द्वारा किसी राजा की हत्या और वह भी धोखे से इस सृष्टि के अन्तर्गत प्रथम बार की गयी होगी।

राजा बेन की माता अत्यन्त शोकाकुल हो गयीं। वह एक पतिव्रता नारी थीं, अतः अपने तपोबल से उसके शव को सुरक्षित रख दीं तथा प्रजा को शान्ति से काम लेने का सुझाव दीं। मंत्रियों को आदेश दिया कि ऋषि विश्वमित्र का पता लगाया जाए एवम् उन्हें सारी स्थिति से अवगत कराया जाये।

राजसिंहासन खाली हो गया था; अतः पूरी पृथ्वी पर उपद्रव एवम् आतंक फैल गया।

तदुपद्रवभाज्ञय लोकस्य वसु लुम्पताम्।

भर्तर्पुपरते तस्मिन्नन्योन्यं च जिधांसताम्।।

अर्थात् ऋषिवर देखते ही समझ गये कि राजा बेन के मर जाने के कारण ही देश में अराजकता फैली हुई है। राज्य शक्तिहीन, निर्बल हो गया था। चोरों-डाकुओं का बोलबाला हो गया था। धन लूटने वाले लुटेरे उपद्रव फैला रखे थे। एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये थे।

विश्वमित्र अपने साथ कुछ और तेजस्वी तथा प्रबुद्ध ऋषियों को लेकर राजमहल पहुंच गये। वहां पहुंचकर राजा बेन की लाश का निरीक्षण किये। उनकी जांघों का मंथन किया गया जिससे एक बौना पुरुष उत्पन्न हुआ। काले वर्ण के उस पुरुष के हाथ-पैर छोटे-छोटे, नेत्र लाल तथा केशों का रंग तांबे जैसा था। वह पूछा-क्या करूँ?

ऋषियों ने कहा-निषद (बैठ जा)। यही निषद बाद में निषाद कहलाया। उनकी दोनों भुजाओं का मंथन किया गया। बायीं भुजा से एक अत्यन्त सुन्दर स्त्री निकली तथा दायीं भुजा से एक देदीप्यमान सर्वांग सुन्दर पुरुष। इसे ऋषियों ने विष्णु का प्रतिनिधि कहा तथा स्त्री को लक्ष्मी का प्रतिनिधि। उन्होंने घोषणा की कि यही पुरुष पृथ्वी का पालन करेगा। अतः तद्नुरूप इसका नाम पृथु के नाम से विख्यात होगा। ये दोनों ही पति-पत्नी होंगे। ऋषियों ने राजगद्दी सौंप दिया। पुनः ब्रह्मा आदि देवताओं ने आकर उन्हें विष्णु का अवतार होने की घोषणा कर दी।

इन बातों की सत्यता को आज विज्ञान ने भी प्रतिपादित कर दिया। यह सिद्ध कर दिया कि व्यक्ति की एक कोशिका से पूरे के पूरे मानव का विकास सम्भव है। मंथन यानि कोशिका (सेल) को सृजन की प्रक्रिया से गुजारना। पुरुष में ही X(एक्स) और Y(वाई) क्रोमोसोम होता है। यह स्त्री एवम् पुरुष के गुण का द्योतक है। स्त्रियों में तो मात्र X(एक्स) क्रोमोसोम होता है। अतः पुरुष के सेल से स्त्री तथा पुरुष दोनों का निर्माण सम्भव है। यह तो विज्ञान के लिए नयी खोज हो सकती है। सम्भव है उसे इसमें सफलता भी मिल जाए। परन्तु महर्षि विश्वमित्र ने तो इसकी खोज बहुत पहले कर ली थी। जो उस वक्त के देव तथा दानव दोनों संस्कृतियों के लिए असम्भव थी। यही कारण था कि विश्वमित्र को सृष्टि का रचनाकार कहा गया। देव-दनुज सभी इनके लौकिक पौरुष के सामने बौने नजर आते थे।

ऋषि की यह अद्भुत खोज तीनों लोकों में जंगल की आग की तरह फैल गयी। देवता-दानव सब भयभीत हो गये। सभी अब राजा की स्तुति करने एवम् उपहार देने हेतु आने लगे। कुबेर ने सोने का सिंहासन दिया तो वरुण ने श्वेत प्रकाशवान छत्र। वायुदेव ने चंवर दिया तो धर्मराज ने कीर्तिदायी माला। इसके अलावा इन्द्र ने मुकुट दिया, यमराज ने दण्ड, ब्रह्म ने कवच, सरस्वती ने हार, विष्णु ने चक्र, लक्ष्मी ने सम्पत्ति, रुद्र ने चन्द्रकान्ता तलवार, अम्बिका ने ढाल और चन्द्रमा ने अश्व। विश्वकर्मा ने सुन्दर रथ, अग्नि ने धनुष, सूर्य ने बाण तथा पृथ्वी ने स्वचालित पादुकाएं प्रदान कीं। सब मिलकर पृथु का स्तुति गान करने लगे।

ऋषिवर पृथु को राज्यारूढ़ कर अपने आश्रम को चलने के लिए उद्यत हुए। पृथु ने चरण स्पर्श कर विनीत भाव से उनका आदेश पूछा। विश्वमित्र ने शान्त स्वर में कहा-‘राजन्, प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति के  यहां चाटुकारों एवम् अकर्मण्यों की भीड़ हो जाती है। इससे वह व्यक्ति अपने आपको आवश्यकता से अधिक समझने लगता है। कर्म से च्युत होकर भोग में प्रवृत्त हो जाता है। उपहार में दुनिया की सारी भोग सामग्री सहजता से उपलब्ध हो जाने के कारण राजा का सारा पौरूष ढीला पड़ जाता है। इस प्रकार उसका धन, धर्म तथा पौरुष तीनों का लोप होने लगता है। कीर्ति क्षीण होने लगती है। अतः हे राजन्! तुम इन उपहारों एवम् बन्दी जनों की झूठी प्रशंसा में न पड़कर अपने हित एवम् जगत कल्याण के लिए आत्मचिन्तन करते हुए उद्यम करो। उद्यम से ही पृथ्वी पर खुशहाली ला सकते हो। बहुतों को तुमसे आशा है। अतः तुम मन, वाणी, शरीर और बुद्धि से धर्म का आचरण करो। यह काम निष्काम भाव से ही होना चाहिए। यही धर्म तुम्हें अनन्त मोक्ष तक पहुंचा देगा। अतः हे राजन्! अब

तुम अपने कर्म में लग जाओ|’ यह कहकर ऋषि अपने आश्रम में वापस आ गए।

राजा पृथु राज्य की शासन व्यवस्था को सम्भालने में लग गए। एक तरफ तो देवताओं ने उपहार भेंट किया तो दूसरी तरफ अनावृष्टि कर दी। पृथ्वी के पेड़-पौधे सूखने लगे। पशु-पक्षी भूख से मरने लगे। नर-नारी काल कवलित होने लगे। जिन्दे लोगों की दशा भी मुर्दों जैसी हो गयी। नगर के प्रमुख निवासियों ने राजा से भेंट कर कहा-‘हे राजन्! जिस प्रकार वृक्ष के कोटरे में सुलगती आग से पेड़ जल जाता है उसी प्रकार हम भी पेट की भूख की ज्वाला से जले जा रहे हैं। हम सभी आपके शरणागत हैं। आप ही हमारे रक्षक हैं। आप हमारी जीविका के भी स्वामी हैं। अतः हे राजन्! आप हम क्षुधा पीड़ितों को अन्न देने का प्रबन्ध करें| कहीं ऐसा न हो कि अन्न मिलने के पहले ही हमारा अन्त हो जाए। महाराज प्रजा का करुण-क्रंदन सुनकर चिन्तित हो गये। बहुत सोच-विचार कर विश्वमित्र से परामर्श लेने गए। उन्होंने कहा-अटूट श्रद्धा एवं दृढ़ विश्वास के साथ किया गया परिश्रम व्यर्थ नहीं जाता। विपदाओं से जूझने वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ होता है। तुम बुद्धिमान हो। अपने बुद्धि-विवेक का सहारा लो। पृथ्वी के अन्दर अनन्त संभावनाएं छिपी हैं। अपने पुरुषार्थ के सहारे आप उनका पता लगाओ। सभी को स्वाबलम्बी बना दो।’

पुराणकर्ता का कहना है कि पृथु ने अत्यन्त क्रोधित होकर धनुष बाण उठा लिया। गाय का रूप धारण कर पृथ्वी भाग चली। तीनों लोकों में भागती रही। जब कोई भी उसकी रक्षा न कर सका तो पृथु से विनीत होकर कहा-हे राजन्! तू मेरा वध क्यों करना चाहता है। मैं स्त्री जाति हूं। इसलिए भी मेरा वध करना राजा का कर्तव्य नहीं है।

पृथु बोले-हे देवि! जो दुष्ट सिर्फ अपना ही पोषण करने वाला हो तथा दूसरों के प्रति निर्दयी हो, उनके बारे में न सोचता हो, उसको मारना राजाओं के लिए वध करने के समान नहीं है, चाहे वह स्त्राी हो, पुरुष या फिर नपुंसक। तू बहुत घमण्डी है। मदान्ध है। इस समय भी माया से ही यह गाय का रूप बनाये हुए है। मैं बाणों से तुझे टुकडे़-टुकडे़ कर अपने योग बल से प्रजा को धारण करूँगा। पृथ्वी बोली-हे प्रभो! आप ही परमात्मा हैं। सर्व समर्थ हैं। फिर भी मैं कुछ कहना चाहती हूँ। कृपया आप क्रोध शान्त करें। बुद्धिमान पुरुष भ्रमर के समान सबमें से सार ग्रहण कर लेते हैं। कृषि अग्निहोत्र का उपाय करें। हे लोक पालक वीर! यदि आपको सभी प्राणियों के अभीष्ट एवं बलवर्धक अन्न की आवश्यकता है तो आप मेरे योग्य एक बछडे़, दोहन पात्र और दुहने वाले की व्यवस्था कीजिए। मैं उस बछडे़ को प्यार पेन्हाकर दूध के रूप में ये सभी अभीष्ट वस्तुएं दे दूँगी। राजन्! एक काम और। आपको मुझे समतल करना होगा ताकि वर्षों बीत जाने पर भी इन्द्र द्वारा बरसाया जल सर्वत्र बना रहे। मेरे भीतर की आर्द्रता सूखने न पाये। यह आपके लिए बहुत मंगलकारक होगा।

यहाँ यह बात समझने लायक है कि राजा धनुषबाण लेकर पृथ्वी को मारने को उद्यत हुए। पृथ्वी गाय बनकर तीनों लोकों में भागी। यानि पृथु ने पूरी पृथ्वी का सर्वेक्षण किया। पृथ्वी गाय की तरह ही उबड़-खाबड़ है। जिससे पानी इस पर नहीं टिकता। अतः आवश्यकता महसूस की गयी पृथ्वी को समतल करने की। उचित जगह पर पानी को बांधकर रोकने की एवम् समय पर सिंचाई के लिए उसके इस्तेमाल की। इसी दौरान यह पता चला कि अलग-अलग जगह पर अलग-अलग तरह की खेती करनी होगी। स्थान के अनुसार ही खेती का चयन करना ठीक रहेगा। इसके लिए अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग तरह की खेती का प्रशिक्षण दिया गया। दूसरी बात-जो बछड़ा बनकर पृथ्वी रूपी गाय का दोहन करेगा-दुहने का पात्र यानि भिन्न-भिन्न तरह के कृषि कार्य के लिए भिन्न-भिन्न तरह की तकनीक एवं उपकरण का प्रयोग करना होगा।

महाराज पृथु विश्वमित्र के सहयोग से कृषि की नवीनतम तकनीक विकसित किए। इन्होंने भांति-भांति के फलों, फूलों तथा कन्द-मूल के आसव पैदा करने की तकनीक भी खोज ली। अपने प्रजा को तदनुरूप प्रशिक्षित कर दक्ष कर दिये। परिणाम सामने था। पृथ्वी फल-फूल, अन्न, धन से भर गई। सभी परिश्रमी, पुरुषार्थी हो गए। पृथ्वी पर पहली बार पृथु ने कृषि एवं उद्योग की तकनीक का विकास किया। इसे सहज रूप में चलाने के लिए पृथु ने प्रजा को समतल भूमि में बसाने की व्यवस्था किया। प्रजा के लिए यथायोग्य निवास स्थान देने का एक विभाग बनाया। गांव, कस्बा, नगर, दुर्ग, अहीरों की बस्ती (गौ पालकों की बस्ती), छावनियाँ, खानें तथा खान-कर्मियों की बस्ती, किसानों के गांव एवम् पहाड़ की तलहटियों में फल-फूल उगाने वालों के गांव बसाये गये।

पृथु का यह कार्य देव-दनुज एवम् नाग संस्कृति के लोगों के लिए भी अत्यन्त अनुकरणीय हुआ, प्रशंसनीय हुआ। यही कारण है कि इन्हें परमात्मा का अवतार माना गया। प्रजा ने पिता की तरह ही नहीं अपितु परमात्मा की तरह इनकी पूजा की। श्रेष्ठ कर्मशील व्यक्ति ही परमात्मा का रूप होता है।

‘उद्यमः शास्त्राः, बुद्धिः शान्तिः पराक्रमः।

षडैते यम विद्यन्ते, तंत्र देवः सहायकः।।’

जो व्यक्ति दृढ़ निश्चयपूर्वक अपने कर्म में जुट जाता है उसको प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में अदृश्य शक्तियां भी मदद करती हैं। अकर्मण्य और पुरुषार्थहीन व्यक्ति की कोई मदद नहीं करता। जिस किसी के पास उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति एवम् पराक्रम ये छः गुण होते हैं उसकी सहायता देवता भी करते हैं।

उद्यमी व्यक्ति आलसी नहीं हो सकता। आलसी उद्यमी नहीं हो सकता। दोनों विपरीत दिशाओं के पथिक थे। अकर्मण्य व्यक्ति भाग्य, नक्षत्र और ग्रहों के भरोसे बैठ जाता है। जबकि उद्यमी व्यक्ति अपने सतत् परिश्रम से, लगन से पत्थरों से भी पानी निकाल लेते हैं।

अलसस्य कुतः विद्या, अविद्यस्य कुतः धनम्।

अधनस्य कुतः मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम्।।

आलस्य अकेले ही व्यक्ति के विनाश के लिए काफी है। बडे़-बडे़ राजा भी आलस्य के चलते अपने जीवन में ही दरिद्र हो गये। गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने उद्यम के बल पर धनी एवम् सम्पत्तिशाली हो जाता है।

सूत्र रचयिता इस श्लोक में पूछता है, प्रश्न करता है कि आलसी व्यक्ति कैसे विद्वान हो सकता है? क्योंकि इसके लिए भी पढ़ना-लिखना है। इसमें भी तो उद्यम की जरूरत पड़ती है। पढ़े-लिखे लोगों का साथ करना पड़ता है। विद्याहीन यानि मूर्ख व्यक्ति धन को कैसे उपलब्ध हो सकता है। धन कमाने के लिए भी तो प्रतिभा की जरूरत होती है। निर्धन व्यक्ति को मित्र नहीं मिलता। यदि सुख चाहिए तो मित्र के बिना यह भी सम्भव नहीं। सभी का एक-दूसरे से अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। पश्चिमी भारत के हिस्से मरुस्थल थे। इनमें आज का राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, गुजरात एवम् दिल्ली शामिल था। परन्तु यहां के लोगों ने प्रकृति से जूझना सीख लिया। आलस्य का परित्याग कर दिया। पृथ्वी का पीछा किया राजा पृथु की तरह। परिणाम सामने है। बलुअट जमीन पर भी फसलों का अंबार लगा दिया पंजाब ने। ऐसा लगता है मानो पृथ्वी स्वयं धन-धान्य उगल रही हो। आज पंजाब हरित क्रान्ति का अग्रदूत बन गया है। हरियाणा की भी यही स्थिति है। गुजरात की धरती मूंगफली, सूरजमुखी के अलावा कई अन्य फसलों के लिए भी कारगर सिद्ध हो गयी। लोग उद्यमी थे, अतः गुजरात तथा पंजाब का क्षेत्र उद्योग के क्षेत्र में भी अत्यन्त विकसित हो गया। जहां पीने को पानी नहीं मिलता था वहां की जमीन हीरे-मोती उगलने लगी। सच कहा जाए तो भारत की समृद्धि पंजाब, गुजरात तथा हरियाणा के बिना अधूरी हो जाएगी। यह सब पुरुषार्थ का ही कमाल है।

मनुष्य कर्म करता रहे, फल की आकांक्षा न करे- यही संन्यास है। घर-बार छोड़कर कहीं भाग जाने का नाम संन्यास नहीं।

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यः करोति यः।

स संन्यासी च न निराग्निः न चाक्रियः।।

भारत में भ्रान्त धारणा हो गयी है कि संन्यासी वही है जो अग्नि का स्पर्श न करे। उन्हें ही बैरागी कहा गया जिन्हें अग्नि से बैर हो। इसने बहुतेरों को अकर्मण्य बनाया। अपने खाने के लिए भी भोजन नहीं बनाना है, क्योंकि बैरागी हैं। अग्नि को स्पर्श कर नहीं सकते। ऐसा न करने के अहंकार ने जोर पकड़ लिया। अपने को औरों से श्रेष्ठ होने का विचार बलवती हो गया। अग्नि के नजदीक रहने वाला और उससे खाना बनाने वाला गृहणी हो गया। अब उसका कर्तव्य हो गया कि वह भोजन बनाकर बैरागी बाबा को खिलाए। बाबा मात्र भोजन करने के लिए हैं। वह खाकर सो जाने का यंत्र हो गया। यह सब भ्रान्त धारणा ही भारत को दरिद्र बनाने में सहायक हुईं। अब ऐसे ही कर्महीन संन्यासियों की बाढ़ आ गयी।

आज के युग में लगभग सभी सम्प्रदायों के धर्मगुरु कर्महीन हो गये हैं। धर्म की आड़ में दान पर ही जीना चाहते हैं। बदले में दुनिया को दीनता दे रहे हैं। इन दीनों एवम् धर्मगुरुओं में बहुत प्रगाढ़ सम्बन्ध हो गया है। सद्गुरु कबीर साहब ने स्वयं तो कर्म किया ही, दूसरों को भी इसके लिए प्रेरणा दी वे प्रेरणा के स्रोत बन कर रह गए। इसी के परिणाम हुए रविदास जैसे महान संत और उनके जैसे संत चमडे़ सिलने का काम करते हुए, जूते सीते हुए परमात्मा को उपलब्ध हुए। नानकदेव कर्म करते हुए बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। अब दादू, पलटू, दरिया, गुलाब साहब आदि सन्तों की परम्परा ही चल दी। यह परम्परा लगभग समाप्त होने लगी है। सब लोगों में पाण्डित्य किसी काम का नहीं। यद्यपि यह कहना वर्तमान युग के धर्मगुरुओं का अपमान है, परन्तु इस दृष्टिकोण से मैं यह बात नहीं कह रहा हूं। लगभग यही स्थिति आज से सौ वर्ष पूर्व में भी थी, जब सन् 1892 में शिकागो में विश्व धर्म सम्मेलन बुलाया गया था। भारत में भी विश्व धर्म सम्मेलन की समिति बनायी गयी थी। इसमें विख्यात शिक्षाविद् डा. हेनरी मिलर, ‘हिन्दू’ के सम्पादक डा. सुब्रह्मण्यम अय्यर एवं ब्रह्म समाज के प्रतापचन्द्र मजूमदार थे। तब भी भारतीय बौद्धिक जगत हिन्दू धर्म के बारे में अत्यन्त हीन दृष्टि अपना रहा था।

सुब्रह्मण्यम अय्यर ने अपने समाचार पत्र ‘हिन्दू’ में लिखा कि हिन्दू धर्म आधुनिक सामाजिक जीवन की जटिल समस्याओं पर प्रकाश डालने में असमर्थ है। अन्य धर्माचार्यों ने भी कुछ इसी प्रकार की टिप्पणियां की। ईसाइयों की प्रतिक्रिया तो और भी कटु थी। इंगलैंड के धर्माचार्य केंटरवरी के ओर्क विशप ने तो सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया तथा घोषणा कर दी कि ईसाई धर्म ही सच्चा धर्म है। अन्य धर्मों के इसके समकक्ष होने की कल्पना तक भी नहीं की जा सकती। हांगकांग के धर्माचार्य ने लिखा कि ‘आप प्रभु ईसा के साथ विश्वासघात कर रहे हैं। ईसाई पत्रिका ने लिखा है कि क्या यह मूर्खता नहीं कि केंटरबरी के धर्माचार्य को हिन्दू धर्म जैसे धर्मों के प्रतिनिधियों के साथ बैठने को कहा जाए।’ प्रतिक्रिया भी इतनी ही उदार थी। ईसाई धर्म सब धर्मों पर छा जायेगा…। हम ईसाई ईसा की सम्पूर्ण ज्योति से आलोकित हैं। पर हमें अपने अन्धकार में डूबे भाइयों के प्रति सहानुभूति रखनी चाहिए।’

ऐसी पृष्ठभूमि में एक तीस वर्षीय युवक संन्यासी आता है। अपनी सारगर्भित वाणी में अपने को संप्रेषित करता है। जिसका परिणाम विश्व के सामने आता है। विवेकानन्द ने दीन-दुखियों की सेवा को ही सच्ची भगवत सेवा समझा। उनके लिए अस्पताल, स्कूलों का निर्माण कराये। अपना जीवन मानवता की सेवा में समर्पित कर दिया। सचमुच एक निष्काम योगी के रूप में निखरकर सामने आये। पुरातनवादी स्वयं पीछे हट गये। भारतीय आकाश पर ये सूर्य की भांति चमकने लगे।

शेख शादी ने कहा है कि जिसने विद्या तो पढ़ी पर उस पर आचरण नहीं किया, वह उसी के समान है जिसने खेत तो जोत दिया पर उसमें बीज नहीं डाला। आज की स्थिति बिल्कुल यही है। विद्यार्थी से शिक्षक तक केवल पढ़ते-पढ़ाते हैं, गुरु से शिष्य तक प्रवचन कराते हैं, परन्तु उसे अपने में नहीं उतारते।

 

 

||हरि ॐ||

समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कह कबीर कुछ उद्यम कीजै’ से उद्धृत…

 


‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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