शिव लिंगम्

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28 Jul 20246 min read

Published in spiritualism

महा शिवरात्रि पर विशेष

 

शिव लिंगम्

जब आप मूलाधार चक्र में ध्यान करते हैं तब आपको धूम्र वर्ण का अस्पष्ट लिंगम् दिखाई पड़ता है। उसी पर रजत ज्योतिर्मय सर्पाकार कुण्डलिनी के रूप में प्रकाश पुंज का दर्शन होता है। यही साधक का प्रथम यात्रा पथ है।

आज्ञा चक्र पर काले रंग के लिंगम् का स्पष्ट दर्शन होता है। इसी से इसे श्याम ज्योर्तिलिंगम् भी कहा जाता है। यही लिंगम् जीवन के उच्च आध्यात्मिक क्षेत्रों की कुंजी है। कुछ लोग इस आज्ञा चक्र को ही गुरु चक्रम् कहते हैं। ज्योति में इसे ही (वृहस्पति) गुरु का स्थान कहते हैं।

आज्ञा का अर्थ स्पष्ट है-आदेश। यहाँ पहुँचा योगी सम्पूर्ण सृष्टि का केन्द्र हो जाता है। उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा सृष्टि करती है। यह नियंत्रण कक्ष है। सद्गुरु अपने शिष्यों से सीधा सम्पर्क इसी चक्र से करता है। जैसे किसी उच्च टावर से कैमरा हजारों लाखों लोगों का निरंतर फोटो लेते रहता है। भीड़ को इसका ज्ञान नहीं होता है कि हम पर कोई निगरानी भी रख रहा है। गुरु भी इसी नियंत्रण केन्द्र से शिष्यों से सीधा सम्पर्क रखता है। शिष्य भी इसी स्थान से अपने गुरु से सीधा सम्पर्क रखता है। जागतिक कार्य हेतु भी विशेष दिशा निर्देश प्राप्त करता है। यहाँ से इन्द्रिय जनित प्रभाव से मन मुक्त हो जाता है। फिर मन वासना से मुक्त निर्मल होते ही गुरु का निर्देशन पकड़ने में समर्थ हो जाता है।

इसी चक्र का सबसे प्रसिद्ध नाम है-‘तीसरा नेत्र’। इसे शिव नेत्र कहते हैं। अन्तर्ज्ञान चक्षु भी कहते हैं। अक्सर पुरुष की अपेक्षा औरतों की तीसरी आँख जाने-अनजाने ज्यादा सक्रिय होती है। यही कारण है कि वे ज्यादा भक्त होती हैं। ये सिन्दूर लगाती हैं। जिसमें पारा होता है। जो तीसरे नेत्र को सक्रिय करता है।

पीनियल ग्रंथि को ही आज्ञा चक्र कह सकते हैं। जो मस्तिष्क में भ्रूमध्य के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के एकदम ऊपर मेरूरज्जू में स्थित है। इसी तरह पीयूषिका ग्रंथि को सहस्रार कह सकते हैं। दोनों ग्रंथियों में निकटतम सम्बन्ध है। तांत्रिक इसे शिव ग्रंथि कहते हैं। यह तब तक नहीं खुलती है जब तक साधक सिद्धियों से सम्बन्ध नहीं तोड़ता। परम चेतना मार्ग की सिद्धियाँ बाधक हैं। चैतन्यता (ब्रह्म) की उपलब्धि के बाद ये सेविका हैं।

यहाँ तीनों नाड़ियाँ मिलती हैं। इसी से इसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। इसके अन्दर एक शून्य सा प्रतीत होता है। इस वृत्त या शून्य के अन्दर त्रिकोण दिखाई देता है। यही शक्ति ऊर्जा का केन्द्र है। इसके ऊपर श्याम शिवलिंग है। यही आपके ब्रह्म शरीर का प्रतीक है।

इस लिंगम् के ऊपर ॐ प्रकाश एवं ध्वनि युक्त है। इसी से ॐ को आज्ञा चक्र का प्रतीक माना गया है। जिसे तांत्रिक लोग इस चक्र का बीज मंत्र भी मानते हैं। यही ब्रह्म शरीर है। वेदज्ञ ऋषि इसे ॐ से इशारा किए हैं। इसके ऊपर इशारा भी नहीं किया जा सकता है। साधक की यहीं से छठवीं  इन्द्रिय क्रियाशील हो जाती है जिससे मन को गुरु से ज्ञान एवं दिशा-निर्देश मिलता रहता है।

साधक इस चक्र पर मद पीकर मतवाला सा प्रतीत होता है। चूंकि खेचरी से भी मद् धारा के रूप में प्रवाहित होने लगता है। यहाँ साधक सूर्य-चन्द्र सा प्रकाश देखता है। उन्हीं सूर्य-चन्द्रमा के क्षेत्र (लोक) में निवास भी करता है।

संसार के समस्त धर्म में पुरुष ही धर्म गुरु की भूमिका में प्रधान होता है। स्त्रियाँ सहयोगी होती हैं। भगवान महावीर तो स्त्री योनि में मुक्ति ही असम्भव मानते हैं। उस स्त्री को पुरुष का शरीर धारण करना ही होगा, तब मुक्त होगी। हिन्दुओं में शंकराचार्य ने स्त्रियों को नरक का द्वार कह दिया है। इन्हीं परिस्थितियों में तंत्र का आविष्कार हुआ, जिसमें स्त्री का स्थान गुरु का होता है। पुरूष का स्थान शिष्य का होता है। स्त्री ही तंत्र में शक्तिपात करती है-पुरुष को। वही दीक्षा देती है। पहले भी सूर्पनखा एवं ताड़िका तंत्रवेत्ता थीं। जिन्हें राक्षस कह दिया गया। वे भी विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की स्वामिनी थीं। पुरुष वर्ग उनका शिष्य था। अभी भी भारत में उसी परम्परा में कुछ धर्म प्रचलित हैं। प्रकृति कभी किसी का बीज नाश नहीं करती। नारी से ही यौवन क्रीड़ा सम्भव है। वह इन सभी प्रारंभिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। वह पुरुष के मस्तक पर तिलक लगाती है। उन्मुक्त कामाचार में ध्यान में उतरने की विधि प्रदान करती है। नारी ही कर्ता एवं संचालक की भूमिका निभाती है। पुरुष उसका माध्यम होता है। तंत्र कहता है शक्ति के बिना शिव ‘शव’ (सामर्थ्य हीन) है। तंत्र में सबसे कठिन साधना है-वासना हीन दृष्टिकोण। संभोग के समय भी पुरुष का दृष्टिकोण दिव्य माँ अथवा देवी अथवा गुरु के रूप में होना चाहिए। पुरुष पूर्ण समर्पण-भक्ति भाव से भोग में उतरे तब सुषुम्ना का जागरण, कुण्डलिनी का जागरण, फिर मस्तिष्क में सुषुप्त केन्द्रों को क्रियाशील करना होता है। यह अभ्यास पक्का होता है, तब तीसरा नेत्र खुलता है।

इस क्रिया में लगभग एक लाख में कोई एक विरला ही तीसरे नेत्र को उपलब्ध हो पाता है। वही कई जन्म लगाकर करता है तब। अन्यथा शरीर स्तर पर ही लड़खड़ा कर भोग में गिरकर अधोपतन को प्राप्त करता है। यही कारण है कि वैष्णव भक्त इन्हें राक्षस कह दिए हैं। मेरा भी अपना व्यक्तिगत अनुभव है, जो लोग प्रेत योनि में, अपदेव योनि में या अन्य निम्न योनियों में भटक रहे हैं, दुःख भोग रहे हैं वे ऐसे ही तांत्रिकों का परिणाम हैं। जिसका अभी वर्तमान सदी में बाहुल्य है।

||हरि ॐ||

समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव नेत्र से उद्धृत…

 

**************

 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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महा शिवरात्रि पर विशेष

 

शिव लिंगम्

जब आप मूलाधार चक्र में ध्यान करते हैं तब आपको धूम्र वर्ण का अस्पष्ट लिंगम् दिखाई पड़ता है। उसी पर रजत ज्योतिर्मय सर्पाकार कुण्डलिनी के रूप में प्रकाश पुंज का दर्शन होता है। यही साधक का प्रथम यात्रा पथ है।

आज्ञा चक्र पर काले रंग के लिंगम् का स्पष्ट दर्शन होता है। इसी से इसे श्याम ज्योर्तिलिंगम् भी कहा जाता है। यही लिंगम् जीवन के उच्च आध्यात्मिक क्षेत्रों की कुंजी है। कुछ लोग इस आज्ञा चक्र को ही गुरु चक्रम् कहते हैं। ज्योति में इसे ही (वृहस्पति) गुरु का स्थान कहते हैं।

आज्ञा का अर्थ स्पष्ट है-आदेश। यहाँ पहुँचा योगी सम्पूर्ण सृष्टि का केन्द्र हो जाता है। उसकी आज्ञा की प्रतीक्षा सृष्टि करती है। यह नियंत्रण कक्ष है। सद्गुरु अपने शिष्यों से सीधा सम्पर्क इसी चक्र से करता है। जैसे किसी उच्च टावर से कैमरा हजारों लाखों लोगों का निरंतर फोटो लेते रहता है। भीड़ को इसका ज्ञान नहीं होता है कि हम पर कोई निगरानी भी रख रहा है। गुरु भी इसी नियंत्रण केन्द्र से शिष्यों से सीधा सम्पर्क रखता है। शिष्य भी इसी स्थान से अपने गुरु से सीधा सम्पर्क रखता है। जागतिक कार्य हेतु भी विशेष दिशा निर्देश प्राप्त करता है। यहाँ से इन्द्रिय जनित प्रभाव से मन मुक्त हो जाता है। फिर मन वासना से मुक्त निर्मल होते ही गुरु का निर्देशन पकड़ने में समर्थ हो जाता है।

इसी चक्र का सबसे प्रसिद्ध नाम है-‘तीसरा नेत्र’। इसे शिव नेत्र कहते हैं। अन्तर्ज्ञान चक्षु भी कहते हैं। अक्सर पुरुष की अपेक्षा औरतों की तीसरी आँख जाने-अनजाने ज्यादा सक्रिय होती है। यही कारण है कि वे ज्यादा भक्त होती हैं। ये सिन्दूर लगाती हैं। जिसमें पारा होता है। जो तीसरे नेत्र को सक्रिय करता है।

पीनियल ग्रंथि को ही आज्ञा चक्र कह सकते हैं। जो मस्तिष्क में भ्रूमध्य के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी के एकदम ऊपर मेरूरज्जू में स्थित है। इसी तरह पीयूषिका ग्रंथि को सहस्रार कह सकते हैं। दोनों ग्रंथियों में निकटतम सम्बन्ध है। तांत्रिक इसे शिव ग्रंथि कहते हैं। यह तब तक नहीं खुलती है जब तक साधक सिद्धियों से सम्बन्ध नहीं तोड़ता। परम चेतना मार्ग की सिद्धियाँ बाधक हैं। चैतन्यता (ब्रह्म) की उपलब्धि के बाद ये सेविका हैं।

यहाँ तीनों नाड़ियाँ मिलती हैं। इसी से इसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। इसके अन्दर एक शून्य सा प्रतीत होता है। इस वृत्त या शून्य के अन्दर त्रिकोण दिखाई देता है। यही शक्ति ऊर्जा का केन्द्र है। इसके ऊपर श्याम शिवलिंग है। यही आपके ब्रह्म शरीर का प्रतीक है।

इस लिंगम् के ऊपर ॐ प्रकाश एवं ध्वनि युक्त है। इसी से ॐ को आज्ञा चक्र का प्रतीक माना गया है। जिसे तांत्रिक लोग इस चक्र का बीज मंत्र भी मानते हैं। यही ब्रह्म शरीर है। वेदज्ञ ऋषि इसे ॐ से इशारा किए हैं। इसके ऊपर इशारा भी नहीं किया जा सकता है। साधक की यहीं से छठवीं  इन्द्रिय क्रियाशील हो जाती है जिससे मन को गुरु से ज्ञान एवं दिशा-निर्देश मिलता रहता है।

साधक इस चक्र पर मद पीकर मतवाला सा प्रतीत होता है। चूंकि खेचरी से भी मद् धारा के रूप में प्रवाहित होने लगता है। यहाँ साधक सूर्य-चन्द्र सा प्रकाश देखता है। उन्हीं सूर्य-चन्द्रमा के क्षेत्र (लोक) में निवास भी करता है।

संसार के समस्त धर्म में पुरुष ही धर्म गुरु की भूमिका में प्रधान होता है। स्त्रियाँ सहयोगी होती हैं। भगवान महावीर तो स्त्री योनि में मुक्ति ही असम्भव मानते हैं। उस स्त्री को पुरुष का शरीर धारण करना ही होगा, तब मुक्त होगी। हिन्दुओं में शंकराचार्य ने स्त्रियों को नरक का द्वार कह दिया है। इन्हीं परिस्थितियों में तंत्र का आविष्कार हुआ, जिसमें स्त्री का स्थान गुरु का होता है। पुरूष का स्थान शिष्य का होता है। स्त्री ही तंत्र में शक्तिपात करती है-पुरुष को। वही दीक्षा देती है। पहले भी सूर्पनखा एवं ताड़िका तंत्रवेत्ता थीं। जिन्हें राक्षस कह दिया गया। वे भी विभिन्न प्रकार की सिद्धियों की स्वामिनी थीं। पुरुष वर्ग उनका शिष्य था। अभी भी भारत में उसी परम्परा में कुछ धर्म प्रचलित हैं। प्रकृति कभी किसी का बीज नाश नहीं करती। नारी से ही यौवन क्रीड़ा सम्भव है। वह इन सभी प्रारंभिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। वह पुरुष के मस्तक पर तिलक लगाती है। उन्मुक्त कामाचार में ध्यान में उतरने की विधि प्रदान करती है। नारी ही कर्ता एवं संचालक की भूमिका निभाती है। पुरुष उसका माध्यम होता है। तंत्र कहता है शक्ति के बिना शिव ‘शव’ (सामर्थ्य हीन) है। तंत्र में सबसे कठिन साधना है-वासना हीन दृष्टिकोण। संभोग के समय भी पुरुष का दृष्टिकोण दिव्य माँ अथवा देवी अथवा गुरु के रूप में होना चाहिए। पुरुष पूर्ण समर्पण-भक्ति भाव से भोग में उतरे तब सुषुम्ना का जागरण, कुण्डलिनी का जागरण, फिर मस्तिष्क में सुषुप्त केन्द्रों को क्रियाशील करना होता है। यह अभ्यास पक्का होता है, तब तीसरा नेत्र खुलता है।

इस क्रिया में लगभग एक लाख में कोई एक विरला ही तीसरे नेत्र को उपलब्ध हो पाता है। वही कई जन्म लगाकर करता है तब। अन्यथा शरीर स्तर पर ही लड़खड़ा कर भोग में गिरकर अधोपतन को प्राप्त करता है। यही कारण है कि वैष्णव भक्त इन्हें राक्षस कह दिए हैं। मेरा भी अपना व्यक्तिगत अनुभव है, जो लोग प्रेत योनि में, अपदेव योनि में या अन्य निम्न योनियों में भटक रहे हैं, दुःख भोग रहे हैं वे ऐसे ही तांत्रिकों का परिणाम हैं। जिसका अभी वर्तमान सदी में बाहुल्य है।

||हरि ॐ||

समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति शिव नेत्र से उद्धृत…

 

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‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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