गरमा-गर्म पकौड़े और चाय!

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dineshkumar singh

28 Jul 20243 min read

Published in stories

गरमा-गर्म पकौड़े और चाय!

 

दोस्ती जिंदगी है! बात उन दिनों की है, जब हम अपने उम्र के उस पड़ाव में थे जब सपने बुने जाते है, कुछ नया करने की इच्छा होती है।  हम तीन दोस्त अक्सर सप्ताह के अंत में, शहर से दूर खेती लायक जमीन देखने निकल पड़ते।  कभी कभी तो हम १०० किलोमीटर भी चले जाते। एक बार हम इसी तरह एक बरसाती दिनों में निकले।  काफ़ी तेज़ बरसात हो रही थी। हायवे (highway) छोड़ने के बाद रास्ता संकरा हो गया था। जगह जगह पहाड़ों में छोटे-छोटे झरने बन गए थे। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली फ़ैल गई थी।  रास्तों पर इक्का दुक्का गाड़ियों को छोड़ कर कोई और नहीं था।  सफ़र में काफी आनंद आ रहा था।

ऐसे मौसम में चाय की तलब बढ़ जाती है। आखिर में हमने कहीं रूककर चाय पीने का निर्णय लिया। फिर शुरू हुई एक ऐसी जगह की खोज जहाँ की गाड़ी खड़ी कर पाए, जहाँ टॉयलेट की व्यवस्था हो और साफ़ सफाई हो।  कुछ मशक्क़त के बाद एक ऐसा खाने पीने का ढाबा दिखाई दिया।  वहाँ पर पहले से ही कुछ चहल पहल थी।

हम गाड़ी से उतरकर शौच इत्यादि से फारिग हुए। हमने चाय आर्डर की। पानी अभी भी बरस रहा था।

जल्दी चाय भी आ गई।  चाय की पहली चुस्की मुंह में जाते ही एक सुखदायी भाव का अहसास हुआ। बहुत अच्छा लगा।  ढाबा वाला गरम गरम पकौड़े निकल रहा था।  और वँहा खड़े लोग उसे गपागप खा रहे थे।  ठन्डे मौसम में, खासकर जब बरसात हो रही हो, उन पकौड़ों को देखकर हमारे मुंह में भी पानी आ गया। हमने भी प्याज़ के पकौड़े मंगाए। देखते ही देखते पकौड़े आए भी और ख़त्म भी हो गए।  पकौड़ों की भूख और बढ़ गई। हमने आलू के पकौडे मंगाए। वह भी ख़त्म हो गए। फिर हमने मिक्स्ड पकौड़े मंगाए। साथ में चाय भी चल रही थी। चाय और पकौड़ों की यह स्पर्धा देखकर ढाबा वाला भी खिलखिलाकर हँस पड़ा। योजना के मुताबिक़, हमारी १० मिनट के चाय ब्रेक को ४० मिनट से ज्यादा बीत गया था। आखिर में पेट ने कहा की अब बस भी करो !

खैर हम वहां से निकले और दिन भर अलग अलग जगह घूमने के बाद घर की ओर लौट आए।  पर दिन भर ना तो भूक लगी और ना ही प्यास। पर हमारी वो पकौड़े की कहानी रह रह कर याद आती रही।  वो पकौड़े, वो चाय, साथ में हमारी स्पर्धा और बकवास बातें। यह एक अविस्मरणीय घटना बन गई और कई दिनों तक याद रही।

 

दिनेश कुमार सिंह

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दोस्ती जिंदगी है! बात उन दिनों की है, जब हम अपने उम्र के उस पड़ाव में थे जब सपने बुने जाते है, कुछ नया करने की इच्छा होती है।  हम तीन दोस्त अक्सर सप्ताह के अंत में, शहर से दूर खेती लायक जमीन देखने निकल पड़ते।  कभी कभी तो हम १०० किलोमीटर भी चले जाते। एक बार हम इसी तरह एक बरसाती दिनों में निकले।  काफ़ी तेज़ बरसात हो रही थी। हायवे (highway) छोड़ने के बाद रास्ता संकरा हो गया था। जगह जगह पहाड़ों में छोटे-छोटे झरने बन गए थे। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली फ़ैल गई थी।  रास्तों पर इक्का दुक्का गाड़ियों को छोड़ कर कोई और नहीं था।  सफ़र में काफी आनंद आ रहा था।

ऐसे मौसम में चाय की तलब बढ़ जाती है। आखिर में हमने कहीं रूककर चाय पीने का निर्णय लिया। फिर शुरू हुई एक ऐसी जगह की खोज जहाँ की गाड़ी खड़ी कर पाए, जहाँ टॉयलेट की व्यवस्था हो और साफ़ सफाई हो।  कुछ मशक्क़त के बाद एक ऐसा खाने पीने का ढाबा दिखाई दिया।  वहाँ पर पहले से ही कुछ चहल पहल थी।

हम गाड़ी से उतरकर शौच इत्यादि से फारिग हुए। हमने चाय आर्डर की। पानी अभी भी बरस रहा था।

जल्दी चाय भी आ गई।  चाय की पहली चुस्की मुंह में जाते ही एक सुखदायी भाव का अहसास हुआ। बहुत अच्छा लगा।  ढाबा वाला गरम गरम पकौड़े निकल रहा था।  और वँहा खड़े लोग उसे गपागप खा रहे थे।  ठन्डे मौसम में, खासकर जब बरसात हो रही हो, उन पकौड़ों को देखकर हमारे मुंह में भी पानी आ गया। हमने भी प्याज़ के पकौड़े मंगाए। देखते ही देखते पकौड़े आए भी और ख़त्म भी हो गए।  पकौड़ों की भूख और बढ़ गई। हमने आलू के पकौडे मंगाए। वह भी ख़त्म हो गए। फिर हमने मिक्स्ड पकौड़े मंगाए। साथ में चाय भी चल रही थी। चाय और पकौड़ों की यह स्पर्धा देखकर ढाबा वाला भी खिलखिलाकर हँस पड़ा। योजना के मुताबिक़, हमारी १० मिनट के चाय ब्रेक को ४० मिनट से ज्यादा बीत गया था। आखिर में पेट ने कहा की अब बस भी करो !

खैर हम वहां से निकले और दिन भर अलग अलग जगह घूमने के बाद घर की ओर लौट आए।  पर दिन भर ना तो भूक लगी और ना ही प्यास। पर हमारी वो पकौड़े की कहानी रह रह कर याद आती रही।  वो पकौड़े, वो चाय, साथ में हमारी स्पर्धा और बकवास बातें। यह एक अविस्मरणीय घटना बन गई और कई दिनों तक याद रही।

 

दिनेश कुमार सिंह

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