गुरु ही पूर्ण है

Avatar
storyberrys

29 Jul 202417 min read

Published in spiritualism

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर सद्गुरुदेव का अमृतवचन…

 

 

 

गुरु ही पूर्ण है

 

अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।

 

प्रिय आत्मन्

जब आप लोग इस श्लोक का स्तवन करते हैं तो सृष्टि का आकलन जो नंगी आंखों से देखते हैं उतना ही करते होंगे। सृष्टि इससे अधिक है। विज्ञान ने भी अब मान लिया है कि सैकड़ों सूर्य व चन्द्रमा तथा तारों का अस्तित्व है। हर जगह व्याप्त परमात्मा हमें नंगी आंखों से नहीं दिखाई देता। यह ठीक उसी तरह मण्डलाकार आकृति में व्याप्त है (स्थित है) जैसे घी दूध में स्थित है। घी दूध में है परन्तु नंगी आंखों से दिखाई नहीं देता। टेक्निक (विधि, तरकीब, युक्ति, प्रोसेस, फार्मूला) द्वारा घी दूध से निकाला जाता है। दूध को दही में रुपान्तरित करते हैं। मथते हैं दही को। मक्खन प्राप्त किया जाता है फिर  गरम करने पर घी अस्तित्व में आता है। इसी तरह टेक्निक के माध्यम से ‘अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्’ को जाना जाता है, देखा जाता है, अनुभव किया जाता है। क्यों, मिठाई लाल! दूध से घी निकालते हो कि नहीं। आज व्यक्ति अगर-मगर, लेकिन, किन्तु, परन्तु करते-करते अनेक जन्म बर्बाद कर देते हैं। गुरु दीक्षा रूपी टेक्निक (युक्ति) के द्वारा ज्ञान रूपी परमात्मा जो चराचर में स्थित है-अवतरित करता है शिष्य में। तो जो प्रार्थना हम करते हैं-‘अखण्ड मण्डलाकारं’ इसका मतलब है कि जो हमें इस सत्य का दर्शन करा दे, उसको मैं प्रणाम कर रहा हूँ।

आज गुरु पूर्णिमा है। मेरे भी गुरु के विषय में आप लोगों ने काफी-कुछ सुना है। गुरु-पूर्णिमा वर्ष में एक दिन आती है। यह भारतवर्ष की खोज है। गुरु ही पूर्ण है। पूर्ण ही पूर्ण की यात्रा करा सकता है। अतः लोग गुरु की पूजा के लिए यत्र-तत्र दौड़ते हैं। आप सब भी दूर-दूर से आए हो। एक कथा है। नारद जी गुरुपूर्णिमा के दिन पृथ्वी पर मनुष्यों को देवी-देवताओं के मन्दिरों में न जाते देखकर विस्मित हो गए कि पृथ्वी के मनुष्यों को आज हो क्या गया है? क्यों लोग मनुष्य की पूजा कर रहे हैं? वे घबराए हुए नारायण (विष्णु) के यहाँ पहुँचे। नारायण से पूछते हैं-प्रभु! आज पृथ्वी पर सर्वत्र गुरु की ही पूजा हो रही है, देवताओं की नहीं, मनुष्यों को क्या हो गया है? नारायण जवाब देते हैं-नारद! आज गुरु पूर्णिमा है न। तुमने तो गुरु बनाया नहीं है। तुमसे कैसे बात करूँ? कैसे समझाऊँ? तू तो पंडित है। ज्ञानी है। तार्किक है। धर्मशास्त्रों का ज्ञाता है। तुझमें विराम कहाँ है? मैं स्वयं मनुष्य में अवतरित होता हूँ। जिसमें ईश्वरत्व आ जाता है, वह देवताओं से बड़ा हो जाता है। नारद ने नारायण से शास्त्रार्थ किया, अन्ततः रहस्य जानने का तरीका पूछा। भगवान नारायण ने कहा कि गंधमादन पर्वत पर जाओ, वहाँ एक कौआ है, उसी से पूछना तुम्हारी जिज्ञासा शान्त हो जाएगी।

 

नारदजी द्वारा गुरु की खोज

नारद जी गंधमादन पर्वत जाते हैं तो कौए को ध्यानस्थ पाते हैं। नारद जी जैसे ही उसके पास जाते हैं, वह वृद्ध कौआ इन्हें देखकर प्रणाम करता है एवं शरीर त्याग देता है। नारद अगले वर्ष गुरु पूर्णिमा पर पुनः लोगों को गुरु पूजा करते देखते हैं और फिर नारायण के यहाँ पहुँच जाते हैं। भगवान विष्णु से कहते हैं कि आपने पिछले गुरु पूर्णिमा पर गंधमादन भेजा तो मेरा प्रश्न मेरे ही पास रहा। उस वृद्ध कौए ने मुझे देखते ही शरीर त्याग दिया। मैं पाप का भागी बन गया। रहस्य अभी बना ही है। नारायण इस बार नारद को क्षीर सागर में हंस के पास भेजते हैं। नारद क्षीर सागर में जैसे ही ध्यानस्थ हंस के पास पहुँचते हैं, वह हंस आँख खोलता है, नारद को प्रणाम कर शरीर त्याग देता है। नारद कहते हैं मैं फिर पाप का भागी हो गया। प्रश्न भी अनुत्तरित रहा। तीसरे वर्ष की गुरु-पूर्णिमा आती है। नारद फिर विष्णु के पास जाते हैं। हंस के भी मरने की बात बताते हैं। इस बार विष्णु नारद को हिमाचल में, वहाँ के राजा के पाँच दिन के नवजात शिशु के पास उत्तर पाने के लिए भेजते हैं। नारद बौखला जाते हैं मगर हिमाचल जाते हैं। वहाँ के राजा नारद का बहुत सम्मान करते हैं। नारद कहते हैं राजा से, क्या आपके यहाँ पाँच दिन पहले कोई बच्चा पैदा हुआ है? राजा के हाँ कहने पर नवजात शिशु से एकान्त में मिलने को कहते हैं। जब नवजात सोते शिशु के पास जाते हैं तो नारायण कहकर प्रश्न का उत्तर मांगते हैं कि गुरु कैसे गोविन्द से बड़ा है? बच्चा नारायण कहते ही उठ बैठता है। कहता है नारद तुझे अभी तक उत्तर नहीं मिला! ऐसा इस कारण से हुआ कि तुम द्विज नहीं हुए हो। तुझे ज्ञान दान निरर्थक है।

द्विज न होने पर दूसरे के लिए किया गया धर्म, कर्म व्यर्थ जाता है। पैसा लेकर कर्मकाण्ड कराने वालों तथा पैसे पर प्रवचन करने वालों को ज्ञान दान निरर्थक जाता है। विष्णु पुराण व नारद पुराण में ऐसा कहा गया है। नारद, मैं ही वह कौआ था, गुरु का ध्यान कर रहा था, आपके दर्शन से ध्यान टूटा, मैंने गुरु की कृपा मानकर शरीर छोड़ दिया जिससे हंस की योनि में जन्म हुआ। हंस बनकर गुरु मंत्र का स्मरण कर रहा था, आपके दर्शन करके शरीर त्याग दिया कि गुरु अनुकम्पा हो गई। आज गुरु पूर्णिमा है, आपके दर्शन करके मैं चक्रवर्ती सम्राट बनने जा रहा हूँ। आपका दर्शन गुरु कृपा से हुआ। आपके दर्शन करने मात्र से अज्ञान गिर जाता है। वह बच्चा नारद से गुरु धारण करने को कहता है। ‘डग-मग छाँड़ि दे मन बौरा, गृह ते निकरी सती होन को देखन को जग दौरा|’ तुम ज्ञानी हो, तुमने बहुत पढ़ लिया है अतः पग डगमग कर रहे हैं। जैसे पढ़े-लिखे लोगों की भी आज यही दशा है। नारद जी भी अपने समान ज्ञानी पंडित गुरु करने के लिए काशी आते हैं क्योंकि काशी पंडितों, ज्ञानियों, धर्मशास्त्रज्ञों की नगरी है। नारद जी को भोर में एक मल्लाह जाल लिए दिखाई पड़ता है। नारद जी आँखें बंद कर लेते हैं कि मल्लाह गुरु बनाने योग्य नहीं है। नारायण से कामना करते हैं कि किसी महात्मा को भेजें। बार-बार आँख खोलते हैं-वही मल्लाह जाल लिए दिखाई पड़ता है। हार कर दीक्षा ले लेते हैं और नारायण के यहाँ पहुँचते हैं। वहाँ नारद का खूब सम्मान होता है। नारद आश्चर्यचकित होकर सम्मान देने का कारण पूछते हैं। नारायण कहते हैं-आज तू द्विज जो हो गया इसलिए। पहले जब तुम मेरे यहाँ आकर जहाँ खड़े होते थे उस जगह की मिट्टी तुम्हारे खड़े होने के कारण मुझे खुदवाकर हटवानी पड़ती थी।

 

नारद द्वारा गुरु निंदा

नारद ने कहा कि भगवन्! मेरे गुरु में और सब तो बढ़िया है मगर मच्छखौवा हैं, मल्लाह हैं। नारद की स्थिति आधुनिक शिष्य जैसी है जो गुरु निन्दा करते नहीं थकते। नारायण ने नारद को चौरासी में भ्रमण करने को कहा। नारद चक्कर में पड़ गए। कहते हैं-नारायण! तुमसे मिलने पर मुझे दिक्कतें घेर लेती हैं। एक बार बंदर का मुंह दिया। इस बार चैरासी में डाल दिया। तू स्वार्थी है। समुद्र मन्थन में मिली लक्ष्मी को हड़प लिया, शंख ले लिया, सुदर्शन चक्र लिया। अच्छा चौरासी से निकलने का क्या उपाय है? नारायण ने कहा-उपाय गुरु ही बता सकेगा। नारद पुनः काशी तट पर पहुँचे। कहीं मल्लाह रूपी गुरु नहीं दिखा। अब नारायण-नारायण छोड़कर जय गुरुदेव, जय-जय गुरुदेव का जाप करने लगे। गुरु प्रकट हुए। नारद को आश्चर्य हुआ। गुरु ने कहा कि मैं ही ब्रह्मा, विष्णु व महेश- तीनों हूँ। जब तकनीक बताता हूँ तो ब्रह्मा हूँ, जब विकास करता हूँ तो विष्णु हूँ और जब बुरी वृत्तियों का नाश करता हूँ तो शंकर हूँ। अतः जब तू परब्रह्म परमेश्वर के रूप का जन्म पाता है तो तुझे प्रणाम करता हूँ। कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।

 

नारद का चैरासी लाख योनियों से उद्धार

गुरु नारद से पूछते हैं-क्यों याद किया? नारद ने चैरासी लाख योनियों में भटकने के श्राप का जिक्र किया। गुरु ने जमीन पर चौरासी खाने खींचकर नारद को उस पर तीन बार इधर-उधर लोटने का आदेश दिया। नारद के जमीन पर लोटकर उठने पर कहा कि जाओ, नारायण से कहना मैं चौरासी भ्रमण कर आया। गुरु ने द्विज बना दिया नारद को। नारद जी, नारायण के पास जाकर सारी बात बताते हैं। भगवान विष्णु प्रसन्न होकर गुरु के ज्ञान की प्रशंसा करते हैं। कहते हैं-नारद, गुरु के कार्यों को तथा स्वयं गुरु को नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। सकारात्मक दृष्टि से देखना चाहिए। हो सकता है आपके गुरु सुबह-सुबह किसी का जीवन बचाने के लिए जाल लेकर जा रहे हों। तुम लोग भी नारद की तरह मानसिक शरीर पर विचरण करते हो। नारायण का दर्शन तो ब्रह्म शरीर पर पहुँचने

के फलस्वरूप होगा।

भीष्म महाभारत संग्राम में, बाणों की शैया पर पड़े दुःख भोग रहे थे। कथावाचक बताते हैं कि वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार कर रहे थे जिससे मुक्त हो सकें। वास्तविकता यह थी कि वे योगस्थ थे तथा आज्ञा चक्र में पहुँचकर शरीर छोड़ना चाहते थे। आज्ञा चक्र के नीचे के समस्त चक्रों का शरीर दक्षिणायन है भोग शरीर है। विशुद्धि चक्र आत्मा है। यहाँ पहुँचा साधक सबको आत्मा के रूप में देखता है। सभी शरीर में अपने को देखता है। आज्ञा चक्र ब्रह्म शरीर है। यहाँ पहुँचा साधक सर्वत्र ब्रह्ममय देखता है। सामने नारायण को उपस्थित पाता है। अतः भीष्म भी जब आज्ञाचक्र पर (सूर्य के उत्तरायण होने की अवस्था) पहुँचते हैं तो श्री कृष्ण (नारायण) सामने हैं।

कबीर साहब कहते हैं-‘जो मिला तो गुरु मिला, शिष्य मिला न कोय’ यानि उन्हें शिष्य नहीं मिला। आज भी आप लोग मेरे सामने अपनी-अपनी शर्त (टर्म एंड कंडीशन) रखते हो। ठीक उसी तरह जैसे मिट्टी कुम्हार से गिलास बनाने की शर्त तय करे| सोना सुनार से कुण्डल बनाने की शर्त रखता है? लकड़ी बढ़ई से कुर्सी बनाने की शर्त तय करती है? ऐसी अवस्था में सद्गुरु दीन-हीन, असहाय हो जाता है। कबीर को, कृष्ण को जानने वाले उनके समय में कितने हुए? कबीर को किसी ने नहीं जाना- न समझा। कृष्ण को मैं कहता हूँ, ढाई भक्त मिले। एक शिष्य (भक्त) भीष्म ने जाना तो उनके (कृष्ण) विरोध में ही लड़े। दूसरी भक्त द्रौपदी मिली तो वह अपने सांसारिक कार्यों में कृष्ण को दौड़ाती रही। अर्जुन आधे भक्त थे। महाभारत युद्ध के पूर्व अगर-मगर करते रहे| जिसके फलस्वरूप प्रश्न-उत्तर के क्रम में गीता के 18 अध्याय बन गए। अर्जुन कृष्ण से प्रश्न पर प्रश्न करता है। विद्वत्ता दिखाता है। तर्क करके युद्ध से विरत होना चाहता है। अपने परिजनों की हत्या के पाप से बचकर युद्ध विमुख होकर जंगल में तप करके मुक्त होना चाहता है। जबकि परमात्मा रूपी कृष्ण सामने हैं फिर भी जंगल जाना चाहता है। अर्जुन दिमाग लगाता है-कृष्ण तो मेरी उम्र का है, मेरा साला है, इसकी पूजा कैसे करूँ? विश्वमित्र की भी यही स्थिति रही है। जो शिष्य गुरु से कुछ याचना नहीं करता वही नारायण रूप में गुरु के सम्मुख आता है। वही शिष्य सद्गुरु की आग को बर्दाश्त कर सकता है।

 

धर्म गुरु और सद्गुरु में अंतर

धर्मगुरुओं के पास भीड़ है। साख (गुडविल) है। प्रचार तंत्र है। धर्मशास्त्रों के प्रमाण हैं। सद्गुरु के पास साख (गुडविल) नहीं है। धर्मशास्त्रों की बैसाखी नहीं है। इतिहास नहीं है। महात्मा राम के एक शिष्य ने मुझसे दीक्षा ली। मैंने उससे पूछा वहाँ दीक्षा कैसे दी जाती है? उसने बताया कि 5,000 या 6,000 लोगों की भीड़ में ही दीक्षा वहाँ पूरी हो जाती है। वे दीक्षित होने वाले लोगों का नाम पता लिख लेते हैं। 12 मंत्र बोलते हैं। इन्हीं मंत्रों में से इच्छानुसार एक मंत्र चुन लेने को कह देते हैं। जाप करने का माला के द्वारा तरीका बताते हैं। यह दीक्षा की पद्धति तो झोला छाप डॉक्टरों की उपचार पद्धति से मेल खाने वाली है। झोला छाप डॉक्टर भी किसी मरीज को अनुमान करके 10-12 गोलियाँ लिख देता है और खाने की सलाह देता है। योग्य डॉक्टर ढेर सारी दवाईयाँ नहीं देता है। योग्य गुरु भी अनेक मंत्र नहीं देता है। आप सब पूजा, जप, तप की मर्यादाओं में भी नहीं बंध पाते हो। भूख बर्दाश्त नहीं कर पाते हो। गुरु के आभामण्डल में हो, दिन भर कीर्तन करना चाहिए था। ऊर्जान्वित होना चाहिए था। यह उपवास नहीं है। मैं दिल्ली में 7 दिन की समाधि से बाहर जब आया तो परमाचार्य ने पूछा आप कैसे इतने दिन बगैर खाए-पीए गुफा में रहे! मैंने कहा-आत्मा को भूख कहाँ लगती है? भूख तो मन को लगती है। तुम अपने मन के गुलाम हो- you are a slave of your mind! शरीर में जो अतिरिक्त चर्बी (fat) है, वह एक महीने की भूख भर का अनाज है। यह आपातकालीन अनाज है। मेरे भक्तों में केवल आशा उपाध्याय ही है जो पूर्णिमा व अमावस्या को निर्जला व्रत रखती है। समाधि के दिनों में मैंने सुना है वह उपवास कर रही थी। खुदागंज से इन्हीं दिनों आनन्द उपाध्याय व उसकी पत्नी सुनीता का फोन आता था बार-बार। मेरे समाधि से बाहर आने पर टेलिफोन पर दोनों ने बताया गुरु जी, भूख नहीं लग रही थी व ध्यान भी नहीं हो पा रहा था। चूंकि इनका तारतम्य हम से बंधा है।

 

शिष्य कौन?

शिष्य तीन प्रकार के होते हैं-पहला शिष्य उत्तम कोटि का है। यह भावनाओं को जान लेता है। दूसरी कोटि का शिष्य इशारों (संकेतों) को समझने की सामर्थ्य रखता है। तीसरे प्रकार का शिष्य निम्न कोटि का है जो गुरु की ताड़ना (डंडे) से संचालित होता है। चौथा तो गधा है। इनकी परीक्षा कैसे हो? गुरु एक बैंगन लेकर कहता है-बैंगन गुणकारी है। स्वादिष्ट है। पहली कोटि का शिष्य कहता है-एकदम सही। ब्रह्म वाक्य, सत्य वचन। दूसरा शिष्य कहता है-संभव है गुणकारी हो। निम्न श्रेणी का शिष्य कहता है-अनर्गल प्रलाप। तीनों शिष्य बैंगन की गुणवत्ता पर विचार करते हैं। पुनः गुरु बैंगन के विषय में कहते हैं कि बैंगन अन्दर भी बाहर की ही तरह काला होता है। उत्तम शिष्य तपाक से कहता है सत्य वचन। मध्यम श्रेणी का शिष्य कहता है-बाहर ही काला होता है, इस पर मुझे ही संदेह था। निम्न कोटि का शिष्य कहता है-अनर्गल प्रलाप। गुरु ने प्रथम शिष्य से कहा कि बेटा, तुमने कैसे दोनों बार ‘सत्य वचन’ कहा? शिष्य ने कहा-गुरुदेव मैं आपका शिष्य हूँ, न कि बैंगन का। आपका वाक्य मेरे लिए ब्रह्म वाक्य है।

गुरुदेव ने प्रसन्न होकर उसके सिर पर हाथ रखा, वह क्षण भर में सभी कुछ जान गया। तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में लिखा है-

गुरु के वचन प्रतीति न जेहि।

सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही।।

सुना है, महाकश्यप को गौतम बुद्ध ने ज्ञानवान बना दिया। सिर पर हाथ रख दिया। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्। शिष्य को इकाई (unit) बनना होगा। गुरु कृपा तो वन वे ट्रैफिक है। कबीर साहब ने भी कहा-‘बहु पुरुषन के हीड़ते वैश्या रह गई बांझ।’ वैश्या पुत्र किसे बाप कहेगा? एक गुरु पर ही श्रद्धा करनी चाहिए जिससे गुरु की ऊर्जा (एनर्जी) शिष्य तक पहुँच सके। गुरु शून्य लेकर चलता है। शून्य ही ऊर्जा है, तुम्हें इकाई बनना होगा। तुम तो मैं-मैं, मेरा-मेरा ही किए जा रहे हो। कब मेरा-तेरा का भाव गिराकर गुरु गोविन्द के बनोगे? शरणागत भाव कब आएगा?

एक वर्ष गुरुपूर्णिमा के अवसर पर पाँच शिष्य गुरु के पास गए। एक शिष्य ने माला-फूल व एक रुपया गुरु चरणों में रखा। दूसरे शिष्य ने माला-फूल के साथ दस रुपया चढ़ाया। तीसरे शिष्य ने गुरु चरणों पर फल-फूल के साथ सौ रुपया चढ़ाया। चैथे शिष्य ने वस्त्रों सहित एक हजार रुपया चढ़ाया। पांचवां शिष्य एक सेठ था, उसने नोटों का पूरा थैला ही वस्त्रों, माला, फल-फूल के साथ गुरु चरणों में भेंट किया। गुरु ने सभी शिष्यों को एक ही मुद्रा में साधुवाद कहा। आशीर्वाद के लिए हाथ उठाया। वर्ष भर बाद सब शिष्य आपस में मिले, जिसने जितना गुरु को अर्पित किया था उन्हें उसी अनुपात में सम्पत्ति प्राप्त हुई। सेठ को सबसे ज्यादा फायदा हुआ। अन्य शिष्यों ने गुरु को दोष देना शुरु किया कि गुरु पक्षपात करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि गुरु तो सबको सोना, चांदी, हीरा, मोती दे रहा है, आप सकारात्मक तो बनें। गुरु अनुकम्पा में भी अन्य सांसारिक कार्यों की तरह न्यूटन का तीसरा नियम  लागू होता है। जिसके अनुसार प्रत्येक क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है। तुम सबके द्वारा किया गया कर्मकाण्ड ब्रह्माण्ड में गूंजता है। यही पुनः तुम सब पर बरसता है। विज्ञान भी यही कहता है। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आप सब एकत्र हो; जाति-पाति, धर्म-वर्ग के भाव को छोड़कर भाई का रिश्ता जोड़ो, सद्विप्र बनो।

मेरी लिखी रामायण (कबीर गुरु बसै बनारसी) पढ़ो। गुरु मंत्र का स्वर के सहारे जाप करो। गुरु मूर्ति का ध्यान करो। दुःख के कारण का निवारण करो।

डोमरी में आश्रम के निर्माण का कार्य चल रहा था। भवन निर्माण के लिए पानी की आवश्यकता यहाँ लोगों को महसूस हुई। जनार्दन ने दिल्ली मेरे पास फोन कर दिया कि गुरु जी पानी बरसा दीजिए कमरे नहीं बन पा रहे हैं। बड़ी दिक्कत है। मैंने कहा, जनार्दन! प्रकृति के क्रियाकलाप को रोकना परमपिता परमात्मा को असहयोग देना है। ठीक है, बारिश होगी मगर फिर ऐसी अशिष्टता मत करना। बारिश हुई। कमरे बन गए। अतः शिष्यों को गुरु को दांव पर नहीं लगाना चाहिए। राम सद्विप्र थे, उन्होंने स्वयं कष्ट सहे मगर गुरु को दाँव पर नहीं लगाया।

गुरु भी शिष्य के लिए सब कुछ दांव पर लगा देता है। कबीर साहब इसीलिए कहते हैं-‘वैष्णव का कुत्ता भला’ वैष्णव गुरु बनाता है। गुरु को परमात्मा मानता है। सब कुछ समर्पित करता है। इसलिए दुःख को गले लगाओ। दांव पर गुरु को मत लगाओ। व्यक्ति ब्रह्म अग्नि में जल-जल कर कठोर होता है। सोने की तरह चमकता है। मनुष्य जीवन आनंद मनाने का है। शरीर सेवा से शुद्ध होता है। धन, दान से तथा मन, सुमिरण से शुद्ध होता है। इन्हें चाल, चरित्र, चिन्तन को सबल बनाकर परिपक्व करना है। काक गति से हंस गति तथा हंस गति से राज गति को प्राप्त करो यही आशा करता हूँ। कोई भी वार्ता तथा समझौता समानता में ही होती है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को राजयोग देते हैं। तुम भी मन से राजा बनो। राजा की तरह रहो। राजा की तरह बोलो। भिखमंगों को कुछ नहीं मिलता। सुना है-एक ज्योतिष का प्रकांड पंडित, बुद्ध के पैरों के निशान देखते हुए जा रहा था। उसने पदचाप के निशान को ज्योतिष की दृष्टि से चक्रवर्ती सम्राट का पैर निश्चित किया। उसने दिमाग लगाया कि चक्रवर्ती सम्राट भला नंगे पांव क्यों चलेगा? मगर ऐसा निशान तो चक्रवर्ती सम्राटों के ही पैर में होना चाहिए। ज्योतिषी ने आगे बढ़ने पर एक शिला पर गौतम बुद्ध को बैठे देखा, फिर कहा-हे अकिंचन श्रमण! तुम कौन हो? मैं सम्राटों का सम्राट हूँ। परमात्मा को मैंने अपने में उतार लिया है। वही मुझमें बोल रहा है, मेरे द्वारा चल रहा है। ज्योतिषी पंडित समझ गया ये बुद्ध हैं। उसने अपना पाण्डित्य छोड़ दिया, ग्रन्थों को गंगा जल में प्रवाहित करके बुद्ध का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। मैं भी तुम सभी को बुद्ध की तरह दीक्षा दे रहा हूँ। आशीर्वाद दे रहा हूँ। तुम राजाओं के राजा हो। मेरा नमस्कार तुम्हारे अन्दर स्थित परमात्मा को है। मेरा नमस्कार स्वीकार करो।

समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति गुरु ही मुक्तिदाता से उद्धृत…

 

 

।। हरि ओम ।।

 

 

 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

SadGuru Dham 

SadGuru Dham Live

Comments (0)

Please login to share your comments.



गुरु ही पूर्ण है

Avatar
storyberrys

29 Jul 202417 min read

Published in spiritualism

गुरु पूर्णिमा के अवसर पर सद्गुरुदेव का अमृतवचन…

 

 

 

गुरु ही पूर्ण है

 

अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः।।

 

प्रिय आत्मन्

जब आप लोग इस श्लोक का स्तवन करते हैं तो सृष्टि का आकलन जो नंगी आंखों से देखते हैं उतना ही करते होंगे। सृष्टि इससे अधिक है। विज्ञान ने भी अब मान लिया है कि सैकड़ों सूर्य व चन्द्रमा तथा तारों का अस्तित्व है। हर जगह व्याप्त परमात्मा हमें नंगी आंखों से नहीं दिखाई देता। यह ठीक उसी तरह मण्डलाकार आकृति में व्याप्त है (स्थित है) जैसे घी दूध में स्थित है। घी दूध में है परन्तु नंगी आंखों से दिखाई नहीं देता। टेक्निक (विधि, तरकीब, युक्ति, प्रोसेस, फार्मूला) द्वारा घी दूध से निकाला जाता है। दूध को दही में रुपान्तरित करते हैं। मथते हैं दही को। मक्खन प्राप्त किया जाता है फिर  गरम करने पर घी अस्तित्व में आता है। इसी तरह टेक्निक के माध्यम से ‘अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्’ को जाना जाता है, देखा जाता है, अनुभव किया जाता है। क्यों, मिठाई लाल! दूध से घी निकालते हो कि नहीं। आज व्यक्ति अगर-मगर, लेकिन, किन्तु, परन्तु करते-करते अनेक जन्म बर्बाद कर देते हैं। गुरु दीक्षा रूपी टेक्निक (युक्ति) के द्वारा ज्ञान रूपी परमात्मा जो चराचर में स्थित है-अवतरित करता है शिष्य में। तो जो प्रार्थना हम करते हैं-‘अखण्ड मण्डलाकारं’ इसका मतलब है कि जो हमें इस सत्य का दर्शन करा दे, उसको मैं प्रणाम कर रहा हूँ।

आज गुरु पूर्णिमा है। मेरे भी गुरु के विषय में आप लोगों ने काफी-कुछ सुना है। गुरु-पूर्णिमा वर्ष में एक दिन आती है। यह भारतवर्ष की खोज है। गुरु ही पूर्ण है। पूर्ण ही पूर्ण की यात्रा करा सकता है। अतः लोग गुरु की पूजा के लिए यत्र-तत्र दौड़ते हैं। आप सब भी दूर-दूर से आए हो। एक कथा है। नारद जी गुरुपूर्णिमा के दिन पृथ्वी पर मनुष्यों को देवी-देवताओं के मन्दिरों में न जाते देखकर विस्मित हो गए कि पृथ्वी के मनुष्यों को आज हो क्या गया है? क्यों लोग मनुष्य की पूजा कर रहे हैं? वे घबराए हुए नारायण (विष्णु) के यहाँ पहुँचे। नारायण से पूछते हैं-प्रभु! आज पृथ्वी पर सर्वत्र गुरु की ही पूजा हो रही है, देवताओं की नहीं, मनुष्यों को क्या हो गया है? नारायण जवाब देते हैं-नारद! आज गुरु पूर्णिमा है न। तुमने तो गुरु बनाया नहीं है। तुमसे कैसे बात करूँ? कैसे समझाऊँ? तू तो पंडित है। ज्ञानी है। तार्किक है। धर्मशास्त्रों का ज्ञाता है। तुझमें विराम कहाँ है? मैं स्वयं मनुष्य में अवतरित होता हूँ। जिसमें ईश्वरत्व आ जाता है, वह देवताओं से बड़ा हो जाता है। नारद ने नारायण से शास्त्रार्थ किया, अन्ततः रहस्य जानने का तरीका पूछा। भगवान नारायण ने कहा कि गंधमादन पर्वत पर जाओ, वहाँ एक कौआ है, उसी से पूछना तुम्हारी जिज्ञासा शान्त हो जाएगी।

 

नारदजी द्वारा गुरु की खोज

नारद जी गंधमादन पर्वत जाते हैं तो कौए को ध्यानस्थ पाते हैं। नारद जी जैसे ही उसके पास जाते हैं, वह वृद्ध कौआ इन्हें देखकर प्रणाम करता है एवं शरीर त्याग देता है। नारद अगले वर्ष गुरु पूर्णिमा पर पुनः लोगों को गुरु पूजा करते देखते हैं और फिर नारायण के यहाँ पहुँच जाते हैं। भगवान विष्णु से कहते हैं कि आपने पिछले गुरु पूर्णिमा पर गंधमादन भेजा तो मेरा प्रश्न मेरे ही पास रहा। उस वृद्ध कौए ने मुझे देखते ही शरीर त्याग दिया। मैं पाप का भागी बन गया। रहस्य अभी बना ही है। नारायण इस बार नारद को क्षीर सागर में हंस के पास भेजते हैं। नारद क्षीर सागर में जैसे ही ध्यानस्थ हंस के पास पहुँचते हैं, वह हंस आँख खोलता है, नारद को प्रणाम कर शरीर त्याग देता है। नारद कहते हैं मैं फिर पाप का भागी हो गया। प्रश्न भी अनुत्तरित रहा। तीसरे वर्ष की गुरु-पूर्णिमा आती है। नारद फिर विष्णु के पास जाते हैं। हंस के भी मरने की बात बताते हैं। इस बार विष्णु नारद को हिमाचल में, वहाँ के राजा के पाँच दिन के नवजात शिशु के पास उत्तर पाने के लिए भेजते हैं। नारद बौखला जाते हैं मगर हिमाचल जाते हैं। वहाँ के राजा नारद का बहुत सम्मान करते हैं। नारद कहते हैं राजा से, क्या आपके यहाँ पाँच दिन पहले कोई बच्चा पैदा हुआ है? राजा के हाँ कहने पर नवजात शिशु से एकान्त में मिलने को कहते हैं। जब नवजात सोते शिशु के पास जाते हैं तो नारायण कहकर प्रश्न का उत्तर मांगते हैं कि गुरु कैसे गोविन्द से बड़ा है? बच्चा नारायण कहते ही उठ बैठता है। कहता है नारद तुझे अभी तक उत्तर नहीं मिला! ऐसा इस कारण से हुआ कि तुम द्विज नहीं हुए हो। तुझे ज्ञान दान निरर्थक है।

द्विज न होने पर दूसरे के लिए किया गया धर्म, कर्म व्यर्थ जाता है। पैसा लेकर कर्मकाण्ड कराने वालों तथा पैसे पर प्रवचन करने वालों को ज्ञान दान निरर्थक जाता है। विष्णु पुराण व नारद पुराण में ऐसा कहा गया है। नारद, मैं ही वह कौआ था, गुरु का ध्यान कर रहा था, आपके दर्शन से ध्यान टूटा, मैंने गुरु की कृपा मानकर शरीर छोड़ दिया जिससे हंस की योनि में जन्म हुआ। हंस बनकर गुरु मंत्र का स्मरण कर रहा था, आपके दर्शन करके शरीर त्याग दिया कि गुरु अनुकम्पा हो गई। आज गुरु पूर्णिमा है, आपके दर्शन करके मैं चक्रवर्ती सम्राट बनने जा रहा हूँ। आपका दर्शन गुरु कृपा से हुआ। आपके दर्शन करने मात्र से अज्ञान गिर जाता है। वह बच्चा नारद से गुरु धारण करने को कहता है। ‘डग-मग छाँड़ि दे मन बौरा, गृह ते निकरी सती होन को देखन को जग दौरा|’ तुम ज्ञानी हो, तुमने बहुत पढ़ लिया है अतः पग डगमग कर रहे हैं। जैसे पढ़े-लिखे लोगों की भी आज यही दशा है। नारद जी भी अपने समान ज्ञानी पंडित गुरु करने के लिए काशी आते हैं क्योंकि काशी पंडितों, ज्ञानियों, धर्मशास्त्रज्ञों की नगरी है। नारद जी को भोर में एक मल्लाह जाल लिए दिखाई पड़ता है। नारद जी आँखें बंद कर लेते हैं कि मल्लाह गुरु बनाने योग्य नहीं है। नारायण से कामना करते हैं कि किसी महात्मा को भेजें। बार-बार आँख खोलते हैं-वही मल्लाह जाल लिए दिखाई पड़ता है। हार कर दीक्षा ले लेते हैं और नारायण के यहाँ पहुँचते हैं। वहाँ नारद का खूब सम्मान होता है। नारद आश्चर्यचकित होकर सम्मान देने का कारण पूछते हैं। नारायण कहते हैं-आज तू द्विज जो हो गया इसलिए। पहले जब तुम मेरे यहाँ आकर जहाँ खड़े होते थे उस जगह की मिट्टी तुम्हारे खड़े होने के कारण मुझे खुदवाकर हटवानी पड़ती थी।

 

नारद द्वारा गुरु निंदा

नारद ने कहा कि भगवन्! मेरे गुरु में और सब तो बढ़िया है मगर मच्छखौवा हैं, मल्लाह हैं। नारद की स्थिति आधुनिक शिष्य जैसी है जो गुरु निन्दा करते नहीं थकते। नारायण ने नारद को चौरासी में भ्रमण करने को कहा। नारद चक्कर में पड़ गए। कहते हैं-नारायण! तुमसे मिलने पर मुझे दिक्कतें घेर लेती हैं। एक बार बंदर का मुंह दिया। इस बार चैरासी में डाल दिया। तू स्वार्थी है। समुद्र मन्थन में मिली लक्ष्मी को हड़प लिया, शंख ले लिया, सुदर्शन चक्र लिया। अच्छा चौरासी से निकलने का क्या उपाय है? नारायण ने कहा-उपाय गुरु ही बता सकेगा। नारद पुनः काशी तट पर पहुँचे। कहीं मल्लाह रूपी गुरु नहीं दिखा। अब नारायण-नारायण छोड़कर जय गुरुदेव, जय-जय गुरुदेव का जाप करने लगे। गुरु प्रकट हुए। नारद को आश्चर्य हुआ। गुरु ने कहा कि मैं ही ब्रह्मा, विष्णु व महेश- तीनों हूँ। जब तकनीक बताता हूँ तो ब्रह्मा हूँ, जब विकास करता हूँ तो विष्णु हूँ और जब बुरी वृत्तियों का नाश करता हूँ तो शंकर हूँ। अतः जब तू परब्रह्म परमेश्वर के रूप का जन्म पाता है तो तुझे प्रणाम करता हूँ। कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।

 

नारद का चैरासी लाख योनियों से उद्धार

गुरु नारद से पूछते हैं-क्यों याद किया? नारद ने चैरासी लाख योनियों में भटकने के श्राप का जिक्र किया। गुरु ने जमीन पर चौरासी खाने खींचकर नारद को उस पर तीन बार इधर-उधर लोटने का आदेश दिया। नारद के जमीन पर लोटकर उठने पर कहा कि जाओ, नारायण से कहना मैं चौरासी भ्रमण कर आया। गुरु ने द्विज बना दिया नारद को। नारद जी, नारायण के पास जाकर सारी बात बताते हैं। भगवान विष्णु प्रसन्न होकर गुरु के ज्ञान की प्रशंसा करते हैं। कहते हैं-नारद, गुरु के कार्यों को तथा स्वयं गुरु को नकारात्मक दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। सकारात्मक दृष्टि से देखना चाहिए। हो सकता है आपके गुरु सुबह-सुबह किसी का जीवन बचाने के लिए जाल लेकर जा रहे हों। तुम लोग भी नारद की तरह मानसिक शरीर पर विचरण करते हो। नारायण का दर्शन तो ब्रह्म शरीर पर पहुँचने

के फलस्वरूप होगा।

भीष्म महाभारत संग्राम में, बाणों की शैया पर पड़े दुःख भोग रहे थे। कथावाचक बताते हैं कि वे सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार कर रहे थे जिससे मुक्त हो सकें। वास्तविकता यह थी कि वे योगस्थ थे तथा आज्ञा चक्र में पहुँचकर शरीर छोड़ना चाहते थे। आज्ञा चक्र के नीचे के समस्त चक्रों का शरीर दक्षिणायन है भोग शरीर है। विशुद्धि चक्र आत्मा है। यहाँ पहुँचा साधक सबको आत्मा के रूप में देखता है। सभी शरीर में अपने को देखता है। आज्ञा चक्र ब्रह्म शरीर है। यहाँ पहुँचा साधक सर्वत्र ब्रह्ममय देखता है। सामने नारायण को उपस्थित पाता है। अतः भीष्म भी जब आज्ञाचक्र पर (सूर्य के उत्तरायण होने की अवस्था) पहुँचते हैं तो श्री कृष्ण (नारायण) सामने हैं।

कबीर साहब कहते हैं-‘जो मिला तो गुरु मिला, शिष्य मिला न कोय’ यानि उन्हें शिष्य नहीं मिला। आज भी आप लोग मेरे सामने अपनी-अपनी शर्त (टर्म एंड कंडीशन) रखते हो। ठीक उसी तरह जैसे मिट्टी कुम्हार से गिलास बनाने की शर्त तय करे| सोना सुनार से कुण्डल बनाने की शर्त रखता है? लकड़ी बढ़ई से कुर्सी बनाने की शर्त तय करती है? ऐसी अवस्था में सद्गुरु दीन-हीन, असहाय हो जाता है। कबीर को, कृष्ण को जानने वाले उनके समय में कितने हुए? कबीर को किसी ने नहीं जाना- न समझा। कृष्ण को मैं कहता हूँ, ढाई भक्त मिले। एक शिष्य (भक्त) भीष्म ने जाना तो उनके (कृष्ण) विरोध में ही लड़े। दूसरी भक्त द्रौपदी मिली तो वह अपने सांसारिक कार्यों में कृष्ण को दौड़ाती रही। अर्जुन आधे भक्त थे। महाभारत युद्ध के पूर्व अगर-मगर करते रहे| जिसके फलस्वरूप प्रश्न-उत्तर के क्रम में गीता के 18 अध्याय बन गए। अर्जुन कृष्ण से प्रश्न पर प्रश्न करता है। विद्वत्ता दिखाता है। तर्क करके युद्ध से विरत होना चाहता है। अपने परिजनों की हत्या के पाप से बचकर युद्ध विमुख होकर जंगल में तप करके मुक्त होना चाहता है। जबकि परमात्मा रूपी कृष्ण सामने हैं फिर भी जंगल जाना चाहता है। अर्जुन दिमाग लगाता है-कृष्ण तो मेरी उम्र का है, मेरा साला है, इसकी पूजा कैसे करूँ? विश्वमित्र की भी यही स्थिति रही है। जो शिष्य गुरु से कुछ याचना नहीं करता वही नारायण रूप में गुरु के सम्मुख आता है। वही शिष्य सद्गुरु की आग को बर्दाश्त कर सकता है।

 

धर्म गुरु और सद्गुरु में अंतर

धर्मगुरुओं के पास भीड़ है। साख (गुडविल) है। प्रचार तंत्र है। धर्मशास्त्रों के प्रमाण हैं। सद्गुरु के पास साख (गुडविल) नहीं है। धर्मशास्त्रों की बैसाखी नहीं है। इतिहास नहीं है। महात्मा राम के एक शिष्य ने मुझसे दीक्षा ली। मैंने उससे पूछा वहाँ दीक्षा कैसे दी जाती है? उसने बताया कि 5,000 या 6,000 लोगों की भीड़ में ही दीक्षा वहाँ पूरी हो जाती है। वे दीक्षित होने वाले लोगों का नाम पता लिख लेते हैं। 12 मंत्र बोलते हैं। इन्हीं मंत्रों में से इच्छानुसार एक मंत्र चुन लेने को कह देते हैं। जाप करने का माला के द्वारा तरीका बताते हैं। यह दीक्षा की पद्धति तो झोला छाप डॉक्टरों की उपचार पद्धति से मेल खाने वाली है। झोला छाप डॉक्टर भी किसी मरीज को अनुमान करके 10-12 गोलियाँ लिख देता है और खाने की सलाह देता है। योग्य डॉक्टर ढेर सारी दवाईयाँ नहीं देता है। योग्य गुरु भी अनेक मंत्र नहीं देता है। आप सब पूजा, जप, तप की मर्यादाओं में भी नहीं बंध पाते हो। भूख बर्दाश्त नहीं कर पाते हो। गुरु के आभामण्डल में हो, दिन भर कीर्तन करना चाहिए था। ऊर्जान्वित होना चाहिए था। यह उपवास नहीं है। मैं दिल्ली में 7 दिन की समाधि से बाहर जब आया तो परमाचार्य ने पूछा आप कैसे इतने दिन बगैर खाए-पीए गुफा में रहे! मैंने कहा-आत्मा को भूख कहाँ लगती है? भूख तो मन को लगती है। तुम अपने मन के गुलाम हो- you are a slave of your mind! शरीर में जो अतिरिक्त चर्बी (fat) है, वह एक महीने की भूख भर का अनाज है। यह आपातकालीन अनाज है। मेरे भक्तों में केवल आशा उपाध्याय ही है जो पूर्णिमा व अमावस्या को निर्जला व्रत रखती है। समाधि के दिनों में मैंने सुना है वह उपवास कर रही थी। खुदागंज से इन्हीं दिनों आनन्द उपाध्याय व उसकी पत्नी सुनीता का फोन आता था बार-बार। मेरे समाधि से बाहर आने पर टेलिफोन पर दोनों ने बताया गुरु जी, भूख नहीं लग रही थी व ध्यान भी नहीं हो पा रहा था। चूंकि इनका तारतम्य हम से बंधा है।

 

शिष्य कौन?

शिष्य तीन प्रकार के होते हैं-पहला शिष्य उत्तम कोटि का है। यह भावनाओं को जान लेता है। दूसरी कोटि का शिष्य इशारों (संकेतों) को समझने की सामर्थ्य रखता है। तीसरे प्रकार का शिष्य निम्न कोटि का है जो गुरु की ताड़ना (डंडे) से संचालित होता है। चौथा तो गधा है। इनकी परीक्षा कैसे हो? गुरु एक बैंगन लेकर कहता है-बैंगन गुणकारी है। स्वादिष्ट है। पहली कोटि का शिष्य कहता है-एकदम सही। ब्रह्म वाक्य, सत्य वचन। दूसरा शिष्य कहता है-संभव है गुणकारी हो। निम्न श्रेणी का शिष्य कहता है-अनर्गल प्रलाप। तीनों शिष्य बैंगन की गुणवत्ता पर विचार करते हैं। पुनः गुरु बैंगन के विषय में कहते हैं कि बैंगन अन्दर भी बाहर की ही तरह काला होता है। उत्तम शिष्य तपाक से कहता है सत्य वचन। मध्यम श्रेणी का शिष्य कहता है-बाहर ही काला होता है, इस पर मुझे ही संदेह था। निम्न कोटि का शिष्य कहता है-अनर्गल प्रलाप। गुरु ने प्रथम शिष्य से कहा कि बेटा, तुमने कैसे दोनों बार ‘सत्य वचन’ कहा? शिष्य ने कहा-गुरुदेव मैं आपका शिष्य हूँ, न कि बैंगन का। आपका वाक्य मेरे लिए ब्रह्म वाक्य है।

गुरुदेव ने प्रसन्न होकर उसके सिर पर हाथ रखा, वह क्षण भर में सभी कुछ जान गया। तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में लिखा है-

गुरु के वचन प्रतीति न जेहि।

सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेही।।

सुना है, महाकश्यप को गौतम बुद्ध ने ज्ञानवान बना दिया। सिर पर हाथ रख दिया। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यम्। शिष्य को इकाई (unit) बनना होगा। गुरु कृपा तो वन वे ट्रैफिक है। कबीर साहब ने भी कहा-‘बहु पुरुषन के हीड़ते वैश्या रह गई बांझ।’ वैश्या पुत्र किसे बाप कहेगा? एक गुरु पर ही श्रद्धा करनी चाहिए जिससे गुरु की ऊर्जा (एनर्जी) शिष्य तक पहुँच सके। गुरु शून्य लेकर चलता है। शून्य ही ऊर्जा है, तुम्हें इकाई बनना होगा। तुम तो मैं-मैं, मेरा-मेरा ही किए जा रहे हो। कब मेरा-तेरा का भाव गिराकर गुरु गोविन्द के बनोगे? शरणागत भाव कब आएगा?

एक वर्ष गुरुपूर्णिमा के अवसर पर पाँच शिष्य गुरु के पास गए। एक शिष्य ने माला-फूल व एक रुपया गुरु चरणों में रखा। दूसरे शिष्य ने माला-फूल के साथ दस रुपया चढ़ाया। तीसरे शिष्य ने गुरु चरणों पर फल-फूल के साथ सौ रुपया चढ़ाया। चैथे शिष्य ने वस्त्रों सहित एक हजार रुपया चढ़ाया। पांचवां शिष्य एक सेठ था, उसने नोटों का पूरा थैला ही वस्त्रों, माला, फल-फूल के साथ गुरु चरणों में भेंट किया। गुरु ने सभी शिष्यों को एक ही मुद्रा में साधुवाद कहा। आशीर्वाद के लिए हाथ उठाया। वर्ष भर बाद सब शिष्य आपस में मिले, जिसने जितना गुरु को अर्पित किया था उन्हें उसी अनुपात में सम्पत्ति प्राप्त हुई। सेठ को सबसे ज्यादा फायदा हुआ। अन्य शिष्यों ने गुरु को दोष देना शुरु किया कि गुरु पक्षपात करते हैं। वास्तविकता तो यह है कि गुरु तो सबको सोना, चांदी, हीरा, मोती दे रहा है, आप सकारात्मक तो बनें। गुरु अनुकम्पा में भी अन्य सांसारिक कार्यों की तरह न्यूटन का तीसरा नियम  लागू होता है। जिसके अनुसार प्रत्येक क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है। तुम सबके द्वारा किया गया कर्मकाण्ड ब्रह्माण्ड में गूंजता है। यही पुनः तुम सब पर बरसता है। विज्ञान भी यही कहता है। गुरु पूर्णिमा के अवसर पर आप सब एकत्र हो; जाति-पाति, धर्म-वर्ग के भाव को छोड़कर भाई का रिश्ता जोड़ो, सद्विप्र बनो।

मेरी लिखी रामायण (कबीर गुरु बसै बनारसी) पढ़ो। गुरु मंत्र का स्वर के सहारे जाप करो। गुरु मूर्ति का ध्यान करो। दुःख के कारण का निवारण करो।

डोमरी में आश्रम के निर्माण का कार्य चल रहा था। भवन निर्माण के लिए पानी की आवश्यकता यहाँ लोगों को महसूस हुई। जनार्दन ने दिल्ली मेरे पास फोन कर दिया कि गुरु जी पानी बरसा दीजिए कमरे नहीं बन पा रहे हैं। बड़ी दिक्कत है। मैंने कहा, जनार्दन! प्रकृति के क्रियाकलाप को रोकना परमपिता परमात्मा को असहयोग देना है। ठीक है, बारिश होगी मगर फिर ऐसी अशिष्टता मत करना। बारिश हुई। कमरे बन गए। अतः शिष्यों को गुरु को दांव पर नहीं लगाना चाहिए। राम सद्विप्र थे, उन्होंने स्वयं कष्ट सहे मगर गुरु को दाँव पर नहीं लगाया।

गुरु भी शिष्य के लिए सब कुछ दांव पर लगा देता है। कबीर साहब इसीलिए कहते हैं-‘वैष्णव का कुत्ता भला’ वैष्णव गुरु बनाता है। गुरु को परमात्मा मानता है। सब कुछ समर्पित करता है। इसलिए दुःख को गले लगाओ। दांव पर गुरु को मत लगाओ। व्यक्ति ब्रह्म अग्नि में जल-जल कर कठोर होता है। सोने की तरह चमकता है। मनुष्य जीवन आनंद मनाने का है। शरीर सेवा से शुद्ध होता है। धन, दान से तथा मन, सुमिरण से शुद्ध होता है। इन्हें चाल, चरित्र, चिन्तन को सबल बनाकर परिपक्व करना है। काक गति से हंस गति तथा हंस गति से राज गति को प्राप्त करो यही आशा करता हूँ। कोई भी वार्ता तथा समझौता समानता में ही होती है।

श्रीकृष्ण अर्जुन को राजयोग देते हैं। तुम भी मन से राजा बनो। राजा की तरह रहो। राजा की तरह बोलो। भिखमंगों को कुछ नहीं मिलता। सुना है-एक ज्योतिष का प्रकांड पंडित, बुद्ध के पैरों के निशान देखते हुए जा रहा था। उसने पदचाप के निशान को ज्योतिष की दृष्टि से चक्रवर्ती सम्राट का पैर निश्चित किया। उसने दिमाग लगाया कि चक्रवर्ती सम्राट भला नंगे पांव क्यों चलेगा? मगर ऐसा निशान तो चक्रवर्ती सम्राटों के ही पैर में होना चाहिए। ज्योतिषी ने आगे बढ़ने पर एक शिला पर गौतम बुद्ध को बैठे देखा, फिर कहा-हे अकिंचन श्रमण! तुम कौन हो? मैं सम्राटों का सम्राट हूँ। परमात्मा को मैंने अपने में उतार लिया है। वही मुझमें बोल रहा है, मेरे द्वारा चल रहा है। ज्योतिषी पंडित समझ गया ये बुद्ध हैं। उसने अपना पाण्डित्य छोड़ दिया, ग्रन्थों को गंगा जल में प्रवाहित करके बुद्ध का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। मैं भी तुम सभी को बुद्ध की तरह दीक्षा दे रहा हूँ। आशीर्वाद दे रहा हूँ। तुम राजाओं के राजा हो। मेरा नमस्कार तुम्हारे अन्दर स्थित परमात्मा को है। मेरा नमस्कार स्वीकार करो।

समय के सद्गुरु स्वामी श्री कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति गुरु ही मुक्तिदाता से उद्धृत…

 

 

।। हरि ओम ।।

 

 

 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

SadGuru Dham 

SadGuru Dham Live

Comments (0)

Please login to share your comments.