सफ़र, प्यार और एक अधूरी दास्ताँ (Part 2)

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sagar gupta

21 Jul 20247 min read

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सफ़र, प्यार और एक अधूरी दास्ताँ

कुछ कहानियों में अनेकों कहानियां छिपी होती। शायद मेरी कहानी भी इन्हीं में से एक है।

अब तक आपने पहले अध्याय में पढ़ा कि कैसे वंशिका और अंशुमन की मुलाकात कुछ अलग तरह से ट्रैन पकड़ने के दौरान हुई। वंशिका को अंशुमन ने अब तक नहीं देखा है, पर फिर भी उसकी रूप-रेखा उसने अपने दिल में रेखांकित कर दी है। यूं तो उनकी मुलाकात के बाद उनदोनों में छोटी-मोटी नोकझोक ही हो रही, फिर भी दोनों के दिलों में प्यार के बादल मंडराते हुए साफ़ नज़र आ रहे है। चलिए, अब आगे देखते है कि इनकी प्यार भरी नैया कहाँ तक इन्हें ले जाती है…

अध्याय 2- रात बाकी, बात बाकी

मुझे कब नींद आ गई, पता भी न चला। रात के लगभग 8 बज चुके थे। किसी स्टेशन में गाड़ी रुकी हुई थी। दिन में अपने प्रेमी के किसी बात से रूठ कर आगबबुला हो गई हवा अब शांत होकर शीतलता बिखेरने लगी थी। चाँद भी अपने चांदनी से धरती को शुकून की नींद में सुलाने की जद्दोजहद में लगा हुआ था। पक्षियां भी दिनभर के काम से थकी-हारी अपने-अपने घोसले में आराम फरमा रही थी।

मूंगफली वाले और “सबसे घटिया चाय” बेचने वालों की आवाज़ सुनकर मेरी नींद खुल गयी और जैसे मैंने आँखें खोली तो देखा, वंशिका मुझे ही देख रही थी।

मेरे अचानक उसे देखने पर, वह झेप गई और दूसरी ओर देखने लगी। पर अब कोई फायदा न था क्यूंकि उसकी चोरी पकड़ी जा चुकी थी।

“अच्छा जी, मुझे गौर से देखा जा रहा है। क्या बात है?” मैंने शरारत भरी नजरों को उस पर केन्द्रित करते हुए पूछा।

“कुछ भी मत बोलो। शक्ल देखे हो कभी आईने में?” उसने नजरें चुराते हुए उत्तर दिया।

“देखा तो हूँ। शाहिद कपूर जैसा लगता हूँ।” मैंने उसकी चुटकी लेते हुए कहा।

“शाहिद कपूर मेरा सबसे पसंदीदा हीरो है। तुम्हें भी पसंद है क्या?” उसने इस बात पर चहकते हुए उत्तर दिया, मानो मैंने उसके बॉयफ्रेंड का नाम ले लिया हो।

“मतलब मैं भी तुम्हें पसंद हूँ।” मैं उसे तंग करने का एक भी मौका छोड़ना नहीं चाहता था।

“चुप रहो। चेप मत हो।” उसने अपने आँखों से झूठा गुस्सा दिखाते हुए जवाब दिया। पर उसके इस झूठे गुस्से के पीछे की हँसी साफ़ नज़र आ रही थी।

“मजाक कर रहा था यार।” मैंने बात संभालते हुए कहा।

“तुम तो घोड़ा बेच कर कुंभकरण की तरह सो रहे थे। तुम्हें पता भी है कि आगे कोई ट्रैन ट्रैक से नीचे उतर गई है। किसी के हताहत होने की कोई ख़बर तो नहीं है, पर ये अभी तक पता नहीं है कि ट्रैक क्लियर होने में कितना समय लगेगा। ट्रेन तो वैसे भी 6 घंटे देरी से चल रही है, अब हमलोग विजयगढ़ कब पहुंचेगे, ये भगवान ही जाने।“

“अच्छी बात तो है। इस बहाने हमें एक-दूसरे को जानने-समझने का मौका मिलेगा।” मैंने उत्साहित होते हुए कहा।

उसने इस बात पर कुछ न कहा और खिड़की से बाहर झाँकने लगी।

“तुमने अभी तक मुझे अपना चेहरा तक नहीं दिखाया।” मैंने थोड़ी देर बाद उसे तंग करने के बहाने पूछा।

“क्यों देखना है?” उसने खिड़की से बाहर देखते हुए जवाब दिया।

“हमदोनों इतने देर से साथ में सफर कर रहे, अब इतना तो हक बनता ही है कि जिसके साथ सफर कर रहे, पता तो चले कि वो कैसी दिखती है।” मैं बिना डरे निर्भीक सब कहता जा रहा था।

“क्यों? अच्छी नहीं दिखी तो बात करना बंद कर दोगे क्या?” उसने मेरी तरफ नम भरी आँखों से देखते हुए पूछा।

उसकी नम हुई आँख देख मैं सकपका गया। मैं तो बस उससे मजाक में सब कह रहा था। मुझे नहीं पता था कि इस छोटी-सी बात से वो इतना भावुक हो जाएगी।

“नहीं..नहीं। ऐसा कुछ नहीं है। ठीक है, तुम मत दिखाओ। मैं खुद ही तुम्हारी एक कलाकृति बना लेता हूँ अपने मन में।” मैंने परिस्थिति सँभालते हुए उत्तर दिया।

“रात हो गई है। खाने-वाने के लिए कुछ लाये हो तुम या अपना झोला उठा कर ऐसे ही चल दिए।” उसने बात को बदलते हुए पूछा।

“कुछ लाया तो नहीं हूँ। भूख भी लगी है। पर ऐसे स्टेशन में गाड़ी रुकी हुई हैं, जहाँ दूर-दूर तक कुछ खाने को भी नज़र नहीं आ रहा। लगता है, बादाम खा कर ही काम चलाना होगा।” मैंने अपने पेट को थप-थपाते हुए जवाब दिया, मानो अपने पेट को मैं समझा रहा हूँ कि शान्त हो जा मुन्ना, रो मत, कुछ न कुछ तुम्हें खिला ही दूँगा।

इस बात पर उसने अपने गुलाबी रंग के बैग के बीच वाली चैन को खोल कर उससे एक नीले रंग की टिपिन, जिसमें सिंड्रेला, जैस्मिन, स्नो वाईट जैसे अलग-अलग डिज्नी प्रिंसेस के चित्र बने हुए थे, निकाल कर मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, “लो। पूरी और सब्जी है इसमें। खा लो।”

“मेरी इतनी चिंता! ओ हो..” मैं उसे तंग करने का कोई भी मौका छोड़ना नहीं चाहता था।

“हाँ, चिंता तो करूँगी ही न। पति-परमेश्वर जो हो आप मेरे।”

“तुम्हारें पति के पैर में बहुत दर्द हो रहा। थोड़ा-सा दाब दो।” मैंने अपने एक पैर को उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा।

“हाँ, आओ इधर। पैर क्या, तुम्हारा गला न दबा दूँ मैं।” उसने अपने दोनों हाथों को मेरे गले की करीब लाते हुए कहा।

हमदोनों इस बात पर खूब हँसे।

मेरे पेट के चूहे अब पूरे पेट में कोहराम मचाये हुए थे। मुझसे रहा नहीं गया और मैं उस टिफिन पर कूद पड़ा।

“इतना स्वादिष्ट खाना मैंने बहुत दिन बाद खाया है। माँ के हाथ की याद आ गई। किसने बनाया है? तुमने?” मैंने अपनी तर्जनी वाली ऊँगली, जिसमें आलू की सब्जी का रस लगा हुआ था, को चाटते हुए पूछा।

“तुम्हारी खाना बनाने वाली मैड(maid) आई थी, खाना बनाने मेरे घर।”

“मेरी मैड(maid) तुम्हें जानती है? पर कैसे?” मैंने चौंकते हुए पूछा।

“तुम बुद्धु के बुद्धु ही रहोगें।” उसने मेरे सर पर अपने हाथ से हल्की-सी थपकी लगाई और दुबारा खिड़की से बाहर झाँकने लगी।

उसे कहाँ पता था कि मेरी ये नादानियाँ मैंने अनजाने में नहीं बल्कि जानबूझ कर की थी ताकि उसके प्यार भरी बातों को सुन सकूँ। प्यार भी अजीब होती है न। जिससे आप प्यार करते हो, अगर वो आपके पास हो तो मानो घड़ी की सुईयां अपने आप तेज़ी से चलने लगती है। आप उस पल को कितना भी रोकने की कोशिश कर लो, पर वो निरंतर गतिमान रहती। मैं भी उस पल में अपनी पूरी जिंदगी जी लेना चाहता था। काश मेरी पूरी जिंदगी उस ट्रैन में ही बीत जाती, जहाँ मेरी अंशिका मेरे साथ थी। मुझे अब कुछ और पाने की लालसा न हो रही थी। यद्पि मैंने अब तक उसे देखा नहीं था, पर मुझे पता था कि वो जिस प्रकार दिल से खुबसूरत है, उससे कई ज्यादा खुबसूरत चेहरे से होगी। मैं बस उसका साथ चाहता था और शायद इस बार भी भगवान ने मेरी सुन ली थी, तभी तो ट्रेन किसी न किसी बहाने देरी से चल रही थी।

 

अगले अध्याय में हम देखेंगे कि क्या अंशुमन, वंशिका का चेहरा देखने में सफल हो पाता है या नहीं? कुछ हास्यपद घटनाएं भी आपको देखने को मिलेगी, जो आपने भी कभी ट्रेन में सफर के दौरान करने का सोचा होगा, पर किया नहीं किया होगा।
तो मिलते है अगले अध्याय में…

सागर गुप्ता

 

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कुछ कहानियों में अनेकों कहानियां छिपी होती। शायद मेरी कहानी भी इन्हीं में से एक है।

अब तक आपने पहले अध्याय में पढ़ा कि कैसे वंशिका और अंशुमन की मुलाकात कुछ अलग तरह से ट्रैन पकड़ने के दौरान हुई। वंशिका को अंशुमन ने अब तक नहीं देखा है, पर फिर भी उसकी रूप-रेखा उसने अपने दिल में रेखांकित कर दी है। यूं तो उनकी मुलाकात के बाद उनदोनों में छोटी-मोटी नोकझोक ही हो रही, फिर भी दोनों के दिलों में प्यार के बादल मंडराते हुए साफ़ नज़र आ रहे है। चलिए, अब आगे देखते है कि इनकी प्यार भरी नैया कहाँ तक इन्हें ले जाती है…

अध्याय 2- रात बाकी, बात बाकी

मुझे कब नींद आ गई, पता भी न चला। रात के लगभग 8 बज चुके थे। किसी स्टेशन में गाड़ी रुकी हुई थी। दिन में अपने प्रेमी के किसी बात से रूठ कर आगबबुला हो गई हवा अब शांत होकर शीतलता बिखेरने लगी थी। चाँद भी अपने चांदनी से धरती को शुकून की नींद में सुलाने की जद्दोजहद में लगा हुआ था। पक्षियां भी दिनभर के काम से थकी-हारी अपने-अपने घोसले में आराम फरमा रही थी।

मूंगफली वाले और “सबसे घटिया चाय” बेचने वालों की आवाज़ सुनकर मेरी नींद खुल गयी और जैसे मैंने आँखें खोली तो देखा, वंशिका मुझे ही देख रही थी।

मेरे अचानक उसे देखने पर, वह झेप गई और दूसरी ओर देखने लगी। पर अब कोई फायदा न था क्यूंकि उसकी चोरी पकड़ी जा चुकी थी।

“अच्छा जी, मुझे गौर से देखा जा रहा है। क्या बात है?” मैंने शरारत भरी नजरों को उस पर केन्द्रित करते हुए पूछा।

“कुछ भी मत बोलो। शक्ल देखे हो कभी आईने में?” उसने नजरें चुराते हुए उत्तर दिया।

“देखा तो हूँ। शाहिद कपूर जैसा लगता हूँ।” मैंने उसकी चुटकी लेते हुए कहा।

“शाहिद कपूर मेरा सबसे पसंदीदा हीरो है। तुम्हें भी पसंद है क्या?” उसने इस बात पर चहकते हुए उत्तर दिया, मानो मैंने उसके बॉयफ्रेंड का नाम ले लिया हो।

“मतलब मैं भी तुम्हें पसंद हूँ।” मैं उसे तंग करने का एक भी मौका छोड़ना नहीं चाहता था।

“चुप रहो। चेप मत हो।” उसने अपने आँखों से झूठा गुस्सा दिखाते हुए जवाब दिया। पर उसके इस झूठे गुस्से के पीछे की हँसी साफ़ नज़र आ रही थी।

“मजाक कर रहा था यार।” मैंने बात संभालते हुए कहा।

“तुम तो घोड़ा बेच कर कुंभकरण की तरह सो रहे थे। तुम्हें पता भी है कि आगे कोई ट्रैन ट्रैक से नीचे उतर गई है। किसी के हताहत होने की कोई ख़बर तो नहीं है, पर ये अभी तक पता नहीं है कि ट्रैक क्लियर होने में कितना समय लगेगा। ट्रेन तो वैसे भी 6 घंटे देरी से चल रही है, अब हमलोग विजयगढ़ कब पहुंचेगे, ये भगवान ही जाने।“

“अच्छी बात तो है। इस बहाने हमें एक-दूसरे को जानने-समझने का मौका मिलेगा।” मैंने उत्साहित होते हुए कहा।

उसने इस बात पर कुछ न कहा और खिड़की से बाहर झाँकने लगी।

“तुमने अभी तक मुझे अपना चेहरा तक नहीं दिखाया।” मैंने थोड़ी देर बाद उसे तंग करने के बहाने पूछा।

“क्यों देखना है?” उसने खिड़की से बाहर देखते हुए जवाब दिया।

“हमदोनों इतने देर से साथ में सफर कर रहे, अब इतना तो हक बनता ही है कि जिसके साथ सफर कर रहे, पता तो चले कि वो कैसी दिखती है।” मैं बिना डरे निर्भीक सब कहता जा रहा था।

“क्यों? अच्छी नहीं दिखी तो बात करना बंद कर दोगे क्या?” उसने मेरी तरफ नम भरी आँखों से देखते हुए पूछा।

उसकी नम हुई आँख देख मैं सकपका गया। मैं तो बस उससे मजाक में सब कह रहा था। मुझे नहीं पता था कि इस छोटी-सी बात से वो इतना भावुक हो जाएगी।

“नहीं..नहीं। ऐसा कुछ नहीं है। ठीक है, तुम मत दिखाओ। मैं खुद ही तुम्हारी एक कलाकृति बना लेता हूँ अपने मन में।” मैंने परिस्थिति सँभालते हुए उत्तर दिया।

“रात हो गई है। खाने-वाने के लिए कुछ लाये हो तुम या अपना झोला उठा कर ऐसे ही चल दिए।” उसने बात को बदलते हुए पूछा।

“कुछ लाया तो नहीं हूँ। भूख भी लगी है। पर ऐसे स्टेशन में गाड़ी रुकी हुई हैं, जहाँ दूर-दूर तक कुछ खाने को भी नज़र नहीं आ रहा। लगता है, बादाम खा कर ही काम चलाना होगा।” मैंने अपने पेट को थप-थपाते हुए जवाब दिया, मानो अपने पेट को मैं समझा रहा हूँ कि शान्त हो जा मुन्ना, रो मत, कुछ न कुछ तुम्हें खिला ही दूँगा।

इस बात पर उसने अपने गुलाबी रंग के बैग के बीच वाली चैन को खोल कर उससे एक नीले रंग की टिपिन, जिसमें सिंड्रेला, जैस्मिन, स्नो वाईट जैसे अलग-अलग डिज्नी प्रिंसेस के चित्र बने हुए थे, निकाल कर मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा, “लो। पूरी और सब्जी है इसमें। खा लो।”

“मेरी इतनी चिंता! ओ हो..” मैं उसे तंग करने का कोई भी मौका छोड़ना नहीं चाहता था।

“हाँ, चिंता तो करूँगी ही न। पति-परमेश्वर जो हो आप मेरे।”

“तुम्हारें पति के पैर में बहुत दर्द हो रहा। थोड़ा-सा दाब दो।” मैंने अपने एक पैर को उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा।

“हाँ, आओ इधर। पैर क्या, तुम्हारा गला न दबा दूँ मैं।” उसने अपने दोनों हाथों को मेरे गले की करीब लाते हुए कहा।

हमदोनों इस बात पर खूब हँसे।

मेरे पेट के चूहे अब पूरे पेट में कोहराम मचाये हुए थे। मुझसे रहा नहीं गया और मैं उस टिफिन पर कूद पड़ा।

“इतना स्वादिष्ट खाना मैंने बहुत दिन बाद खाया है। माँ के हाथ की याद आ गई। किसने बनाया है? तुमने?” मैंने अपनी तर्जनी वाली ऊँगली, जिसमें आलू की सब्जी का रस लगा हुआ था, को चाटते हुए पूछा।

“तुम्हारी खाना बनाने वाली मैड(maid) आई थी, खाना बनाने मेरे घर।”

“मेरी मैड(maid) तुम्हें जानती है? पर कैसे?” मैंने चौंकते हुए पूछा।

“तुम बुद्धु के बुद्धु ही रहोगें।” उसने मेरे सर पर अपने हाथ से हल्की-सी थपकी लगाई और दुबारा खिड़की से बाहर झाँकने लगी।

उसे कहाँ पता था कि मेरी ये नादानियाँ मैंने अनजाने में नहीं बल्कि जानबूझ कर की थी ताकि उसके प्यार भरी बातों को सुन सकूँ। प्यार भी अजीब होती है न। जिससे आप प्यार करते हो, अगर वो आपके पास हो तो मानो घड़ी की सुईयां अपने आप तेज़ी से चलने लगती है। आप उस पल को कितना भी रोकने की कोशिश कर लो, पर वो निरंतर गतिमान रहती। मैं भी उस पल में अपनी पूरी जिंदगी जी लेना चाहता था। काश मेरी पूरी जिंदगी उस ट्रैन में ही बीत जाती, जहाँ मेरी अंशिका मेरे साथ थी। मुझे अब कुछ और पाने की लालसा न हो रही थी। यद्पि मैंने अब तक उसे देखा नहीं था, पर मुझे पता था कि वो जिस प्रकार दिल से खुबसूरत है, उससे कई ज्यादा खुबसूरत चेहरे से होगी। मैं बस उसका साथ चाहता था और शायद इस बार भी भगवान ने मेरी सुन ली थी, तभी तो ट्रेन किसी न किसी बहाने देरी से चल रही थी।

 

अगले अध्याय में हम देखेंगे कि क्या अंशुमन, वंशिका का चेहरा देखने में सफल हो पाता है या नहीं? कुछ हास्यपद घटनाएं भी आपको देखने को मिलेगी, जो आपने भी कभी ट्रेन में सफर के दौरान करने का सोचा होगा, पर किया नहीं किया होगा।
तो मिलते है अगले अध्याय में…

सागर गुप्ता

 

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