My old office

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arati samant

21 Mar 20252 min read

Published in poetrylatest

After my promotion and posting in new office initial days were very difficult in new environment. Its all together new feeling with new people new workplace and not easy to leave behind the bond of 11 years which I have spent in old office. Dedicating this poem to my old office bunch of friends and colleagues. Adjusting and trying to be happy in new office with new friends and accepting that Change is only permanent in this world🙂

वो भी क्या दिन थे .......

सुबह उठकर भी महसूस नहीं होती ताजगी,
मायूस सी मैं हँसी में भी छलकती नाराज़गी।
गुमसुम सी मैं अब दिल भी खामोश रह जाता है।
उससे जुदा हुई हूँ जब से , दिन बीतता नहीं कट जाता है।
ना घर से बाहर निकलने की खुशी, ना उसे देखने की चाहत में मन चहचहाता है।
मैं जैसे ठहर गयी हूँ उसी रास्ते पर जहाँ हमारे मिलने का मोड़ आता है।
दिन बीतता नहीं बस कट जाता है।
अब रोज मिलना उससे काश ही रह गया है।
वो खूबसूरत लम्हा कहीं वक्त के साथ बह गया है।
किसने सोचा था जिंदगी में ऐसा समय भी आता है।

दिन बीतता नहीं....

कहाँ अब वो ठहाके, कहाँ अब इशारों में बात होती है।
मेरे सजने संवरने से किसको फर्क पड़ता है, किसके आँखों में चमक आती है।
कोई नहीं अब जो मुझे देखकर अपनी बाँहें फैलाता है।
दिन बीतता नहीं सिर्फ कट जाता है...😢मायूस सी मैं हँसी में भी छलकती नाराज़गी।
गुमसुम सी मैं अब दिल भी खामोश रह जाता है।
पुराना ऑफिस छोड़ा है जब से , दिन बीतता नहीं कट जाता है।
ना घर से बाहर निकलने की खुशी, ना पुराने दोस्तों को देखने की चाहत में मन चहचहाता है।
मैं जैसे ठहर गयी हूँ उसी रास्ते पर जहाँ हमारे मिलने का मोड़ आता है।
दिन बीतता नहीं बस कट जाता है।

अब रोज मिलना उन लोगों से काश ही रह गया है।
वो खूबसूरत लम्हा कहीं वक्त के साथ बह गया है।
किसने सोचा था जिंदगी में ऐसा समय भी आता है।

दिन बीतता नहीं....

कहाँ अब वो लंच के ठहाके, कहाँ अब इशारों में बात होती है।
मेरे सजने संवरने से किसको फर्क पड़ता है, किसके आँखों में चमक आती है।
कोई नहीं अब जो मुझे देखते ही अपनी बाँहें फैलाता है।
दिन बीतता नहीं सिर्फ कट जाता है...😢

आरती सामंत

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After my promotion and posting in new office initial days were very difficult in new environment. Its all together new feeling with new people new workplace and not easy to leave behind the bond of 11 years which I have spent in old office. Dedicating this poem to my old office bunch of friends and colleagues. Adjusting and trying to be happy in new office with new friends and accepting that Change is only permanent in this world🙂

वो भी क्या दिन थे .......

सुबह उठकर भी महसूस नहीं होती ताजगी,
मायूस सी मैं हँसी में भी छलकती नाराज़गी।
गुमसुम सी मैं अब दिल भी खामोश रह जाता है।
उससे जुदा हुई हूँ जब से , दिन बीतता नहीं कट जाता है।
ना घर से बाहर निकलने की खुशी, ना उसे देखने की चाहत में मन चहचहाता है।
मैं जैसे ठहर गयी हूँ उसी रास्ते पर जहाँ हमारे मिलने का मोड़ आता है।
दिन बीतता नहीं बस कट जाता है।
अब रोज मिलना उससे काश ही रह गया है।
वो खूबसूरत लम्हा कहीं वक्त के साथ बह गया है।
किसने सोचा था जिंदगी में ऐसा समय भी आता है।

दिन बीतता नहीं....

कहाँ अब वो ठहाके, कहाँ अब इशारों में बात होती है।
मेरे सजने संवरने से किसको फर्क पड़ता है, किसके आँखों में चमक आती है।
कोई नहीं अब जो मुझे देखकर अपनी बाँहें फैलाता है।
दिन बीतता नहीं सिर्फ कट जाता है...😢मायूस सी मैं हँसी में भी छलकती नाराज़गी।
गुमसुम सी मैं अब दिल भी खामोश रह जाता है।
पुराना ऑफिस छोड़ा है जब से , दिन बीतता नहीं कट जाता है।
ना घर से बाहर निकलने की खुशी, ना पुराने दोस्तों को देखने की चाहत में मन चहचहाता है।
मैं जैसे ठहर गयी हूँ उसी रास्ते पर जहाँ हमारे मिलने का मोड़ आता है।
दिन बीतता नहीं बस कट जाता है।

अब रोज मिलना उन लोगों से काश ही रह गया है।
वो खूबसूरत लम्हा कहीं वक्त के साथ बह गया है।
किसने सोचा था जिंदगी में ऐसा समय भी आता है।

दिन बीतता नहीं....

कहाँ अब वो लंच के ठहाके, कहाँ अब इशारों में बात होती है।
मेरे सजने संवरने से किसको फर्क पड़ता है, किसके आँखों में चमक आती है।
कोई नहीं अब जो मुझे देखते ही अपनी बाँहें फैलाता है।
दिन बीतता नहीं सिर्फ कट जाता है...😢

आरती सामंत

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