
दास्तां
दास्तां
यूं ग़म को गले लगाया की खुशियां शिकायतें करने लगी,
यूं अंधेरे में डूब गए की रोशनी दस्तक देने लगी।
यूं खामोशियों में समाए की आहटें शोर करने लगी,
यूं अश्कों में बह गए कि सागर में लहरें उमड़ने लगीं।
यूं तो शिकायतें उनसे भी नहीं जिन्हें जान बना बैठें हैं हम,
तकलीफ़ तो तब होती है जब उनके आंखों में किसी और का ख़्याल होता है।
यूं तो छेड़ा नहीं था किसी और का ज़िक्र हमने,
तकलीफ़ तो तब होती है जब उनके होठों पर किसी और का नाम होता है।
यूं तो दिल्लगी के चर्चें पूरे शहर में हो गई मगर,
तकलीफ़ तो तब होती है जब उनसे नाउम्मीदी का ख़्याल बार-बार होता है।
रचयिता,
श्वेता गुप्ता
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