माँ

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dineshkumar singh

18 Jul 20241 min read

Published in poetry

माँ 

 

जीवन जहाँ अंकुरित होता है,

जहाँ उसे रूप मिलता है,

जहाँ वह पलता है, बढ़ता है, संभलता है,

उस आँगन को माँ कहते हैं।

 

 

जिसका धर्म ही सिर्फ देना है,

जिसका फ़र्ज़ सिर्फ सहेजना है,

जो पौधों को रोपता है,

उन्हें अपने लहू से सींचता है,

जिस गंगा में सिर्फ आशीष बहते हैं,

उस सरिता को माँ कहते हैं।

 

 

जिसकी कल्पना में सिर्फ मिठास है,

जिसकी याद भर से ही,

एक ताकत का अहसास है,

जिसने भक्ति दी, जो खुद एक शक्ति है,

जो सिर्फ जीवन देती है,

उस शक्ति को माँ कहते हैं।

 

 

भगवान को भी माँ की जरूरत होती है,

उससे ही जीवन की शुरूआत होती है ,

वह है तो जीवन है, अथवा यह एक कँटीला वन है

जिसके चरणों में तीनों लोक रहते हैं,

उस ममता को माँ कहते हैं।

 

रचयिता-

दिनेश कुमार सिंह

 

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dineshkumar singh

18 Jul 20241 min read

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माँ 

 

जीवन जहाँ अंकुरित होता है,

जहाँ उसे रूप मिलता है,

जहाँ वह पलता है, बढ़ता है, संभलता है,

उस आँगन को माँ कहते हैं।

 

 

जिसका धर्म ही सिर्फ देना है,

जिसका फ़र्ज़ सिर्फ सहेजना है,

जो पौधों को रोपता है,

उन्हें अपने लहू से सींचता है,

जिस गंगा में सिर्फ आशीष बहते हैं,

उस सरिता को माँ कहते हैं।

 

 

जिसकी कल्पना में सिर्फ मिठास है,

जिसकी याद भर से ही,

एक ताकत का अहसास है,

जिसने भक्ति दी, जो खुद एक शक्ति है,

जो सिर्फ जीवन देती है,

उस शक्ति को माँ कहते हैं।

 

 

भगवान को भी माँ की जरूरत होती है,

उससे ही जीवन की शुरूआत होती है ,

वह है तो जीवन है, अथवा यह एक कँटीला वन है

जिसके चरणों में तीनों लोक रहते हैं,

उस ममता को माँ कहते हैं।

 

रचयिता-

दिनेश कुमार सिंह

 

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