
खुली किताब
खुली किताब
ज़िन्दगी को खुली किताब की तरह रखो यारों
जिसको पढने में किसी को ज्यादा समय न लगे
किताब के हर पन्ने में,
खुशियों का समावेश हो
हर किसी के लिए प्यार हो, इज्ज़त हो
किसी के प्रति न कोई द्वेष हो,
कभी-कभी हम किताब के पन्नो में उलझने लगते है ,
ज़िन्दगी है बहुत सरल -सी,
पर इसे हम कठिन समझने लगते है
ज्यादा उलझकर किसको क्या मिला यहाँ पर?
ठहर -सी जाती है ज़िन्दगी, रुक जाती है वहीँ,
थी पहले जहाँ पर
दोस्तों !ज़िन्दगी तो है बस चार दिन की
कुछ लोग इस चार दिन की ज़िन्दगी को सार्थक कर देते है……
अपने जीवित रहने के उद्देश्य से,
ज़िन्दगी को पूरी तरह परिभाषित कर देते है,
पर कुछ लोग ऐसे भी है जो,
अतीत के साए में ही जीते है
क्या हुआ? क्यूँ हुआ?……
इन निरर्थक प्रश्नों के उत्तर को
तलाशने में ज़िन्दगी गवा देते है,
और एक दिन समय निकल जाने के बाद…..
रेत की तरह हाथों से
कीमती वक़्त भी निकल जाता है….
एक मशहूर कवि की दो पंक्तियाँ याद आ रही है……
“उड़ गया तेरा समय जैसे विहंगम
और खाली हाथ जीवन रह गया है”
नम्रता गुप्ता
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