सुनो ना, मां

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sweta gupta

19 Aug 20241 min read

Published in poetry

सुनो ना, मां

 

मां, ओ मेरी मां ,आज लिखा है कुछ तुम्हारे लिए सुनो ना ,
मन करता है पूछूं तुमसे, कैसे मन पढ़ जाती हो।

मन के कौन से दूरबीन से, तुम दूर दृष्टि कर जाती हो,
मां मेरी तुम बहुत सरल हो, कहां से निर्मलता लें आती हो।

मन के कठिन-जटिल उलझनों को, कैसे चुटकियों में सुलझाती हो ,
आंखें पढ़ कर तुरंत सारा खेल कैसे समझ जाती हो।

परिस्थितियों में भी, तुम चुप रहकर समझाती हो,
बाहर के तेज़ गति पर भी, अंदर से इतनी स्थिरता कहां से लें आती हो।

जब मैं बेचैन होती हूं, तुम मुझ में भरपूर हिम्मत जुटाती हो ,
समय चाहे जो भी हो, तुम हमेशा मेरी बात सुन जाती हो।

मेरी झिझक भरी हंसी को भी, जाने कैसे समझ जाती हो,
मेरे गुस्से को समझ तुम, कैसे मुझ पर प्रेम लुटाती हो।

मां, आज बहुत दिनों बाद कुछ लिखा हैं तुम्हारे लिए, सुनो ना। 

स्वेता गुप्ता

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सुनो ना, मां

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sweta gupta

19 Aug 20241 min read

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सुनो ना, मां

 

मां, ओ मेरी मां ,आज लिखा है कुछ तुम्हारे लिए सुनो ना ,
मन करता है पूछूं तुमसे, कैसे मन पढ़ जाती हो।

मन के कौन से दूरबीन से, तुम दूर दृष्टि कर जाती हो,
मां मेरी तुम बहुत सरल हो, कहां से निर्मलता लें आती हो।

मन के कठिन-जटिल उलझनों को, कैसे चुटकियों में सुलझाती हो ,
आंखें पढ़ कर तुरंत सारा खेल कैसे समझ जाती हो।

परिस्थितियों में भी, तुम चुप रहकर समझाती हो,
बाहर के तेज़ गति पर भी, अंदर से इतनी स्थिरता कहां से लें आती हो।

जब मैं बेचैन होती हूं, तुम मुझ में भरपूर हिम्मत जुटाती हो ,
समय चाहे जो भी हो, तुम हमेशा मेरी बात सुन जाती हो।

मेरी झिझक भरी हंसी को भी, जाने कैसे समझ जाती हो,
मेरे गुस्से को समझ तुम, कैसे मुझ पर प्रेम लुटाती हो।

मां, आज बहुत दिनों बाद कुछ लिखा हैं तुम्हारे लिए, सुनो ना। 

स्वेता गुप्ता

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