परिंदे

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meenu yatin

29 Jul 20241 min read

Published in poetry

परिंदे

वो जो थोड़े शैतान  होते हैं
वो बच्चे मोहल्ले की  जान होते हैं
आसमां नापने को घोंसला छोड़ जाते हैं
सयाने बन लौटते हैं वो  परिंदे,
जो कभी नादान होते हैं ।

अपने अस्तित्व को तराशने निकले
कलेजे के टुकडे़ ,
जो घर का मान  होते हैं ।

दूर तक निगाहें पीछा करती हैं
दूर तलक पैरों के निशान  होते हैं

बड़ी हसरत से  छत की  मुँडेर राह तकती है
त्यौहार आते ही आस बँध जाती है
रसोई में उठने लगती है
पकवानों की  खुशबू
चहक उठते हैं घर के कोने तक
जो  उन बिन सुनसान होते हैं ।

रौनक तो घर की बच्चे हैं
वरना तो घर बस मकान होते हैं।

 

रचयिता – मीनू यतिन

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29 Jul 20241 min read

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परिंदे

वो जो थोड़े शैतान  होते हैं
वो बच्चे मोहल्ले की  जान होते हैं
आसमां नापने को घोंसला छोड़ जाते हैं
सयाने बन लौटते हैं वो  परिंदे,
जो कभी नादान होते हैं ।

अपने अस्तित्व को तराशने निकले
कलेजे के टुकडे़ ,
जो घर का मान  होते हैं ।

दूर तक निगाहें पीछा करती हैं
दूर तलक पैरों के निशान  होते हैं

बड़ी हसरत से  छत की  मुँडेर राह तकती है
त्यौहार आते ही आस बँध जाती है
रसोई में उठने लगती है
पकवानों की  खुशबू
चहक उठते हैं घर के कोने तक
जो  उन बिन सुनसान होते हैं ।

रौनक तो घर की बच्चे हैं
वरना तो घर बस मकान होते हैं।

 

रचयिता – मीनू यतिन

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