
कठिन डगर
कठिन डगर
संघर्षों का दौर जब भी आता है,
यह मानव डर जाता है,
प्रश्न कई रहते है,
उत्तर कोई नही समझ आता है।
तब पथ का कंकड़ भी,
चट्टानों सा फैला नज़र आता है।
हर प्रयास, हार सा प्रतीत होता है।
हर प्रयास पर जी घबराता है।
दिखता नहीं साफ साफ कुछ भी,
आंखों पर भ्रम का पर्दा पड़ जाता है।
बस तलाश रहती है किसी सहारे की,
हर छोटी सी मदत पर,
दिल भर आता है।
फिर हर छोटी छोटी सकारात्मक
घटनाओं से,
खोया विश्वास लौट आता है।
कठिन डगर पर, मंजिल की राह
कठिन होती है,
संघर्षों का तूफ़ान उसे और
मुश्किल बना देता है।
हताशा, घबराहट, जायज़ है।
पर यह सफर ही, एक नए
इंसान को जन्म देता है।
रचयिता
दिनेश कुमार सिंह
Comments (0)
Please login to share your comments.