जीती भी वो ही जो अडी़ रही।

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meenu yatin

17 Aug 20241 min read

Published in poetry

जीती भी वो ही जो अडी़ रही

कहीं किसी की पलकों में पल रही है
कहीं जन्म से ही खल रही है
कहीं किसी के है आसरे वो
कहीं सरहदों पे लड़ रही है
कहीं किसी ने समझा सराहा
कभी खुद ही से उलझ रही है
है किसी की प्रेरणा वो
किसी को बोझ सी लग रही है
कोई सोचता है मगरूर है वो
अपनों के ही हाथों
कहीं मजबूर है वो
कोई देवी का स्वरुप समझे
कोई रंग कद से कुरूप समझे
कहीं अपने पर है गुमान उसको
प्यारा है अपना स्वाभिमान उसको
कहीं अस्मत बचा रही है
चुभती निगाहों से
खुद को छुपा रही है
अपनी किस्मत आजमा रही है
कहीं किस्मत का
लिखा चुका रही है ,
बचपन से जैसे तराशा गया है
वो वैसी ढलती गई
नियति जिसकी जैसी रही
वो वैसे जीती रही।
कुछ ने वक्त को पलट दिया
कुछ ने समझौते कर लिए
कोई वक्त से लड़ती गई।
अपने लिए जो खड़ी रही
जीती भी वो ही जो अड़ी रही।

 

मीनू यतिन

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जीती भी वो ही जो अडी़ रही

कहीं किसी की पलकों में पल रही है
कहीं जन्म से ही खल रही है
कहीं किसी के है आसरे वो
कहीं सरहदों पे लड़ रही है
कहीं किसी ने समझा सराहा
कभी खुद ही से उलझ रही है
है किसी की प्रेरणा वो
किसी को बोझ सी लग रही है
कोई सोचता है मगरूर है वो
अपनों के ही हाथों
कहीं मजबूर है वो
कोई देवी का स्वरुप समझे
कोई रंग कद से कुरूप समझे
कहीं अपने पर है गुमान उसको
प्यारा है अपना स्वाभिमान उसको
कहीं अस्मत बचा रही है
चुभती निगाहों से
खुद को छुपा रही है
अपनी किस्मत आजमा रही है
कहीं किस्मत का
लिखा चुका रही है ,
बचपन से जैसे तराशा गया है
वो वैसी ढलती गई
नियति जिसकी जैसी रही
वो वैसे जीती रही।
कुछ ने वक्त को पलट दिया
कुछ ने समझौते कर लिए
कोई वक्त से लड़ती गई।
अपने लिए जो खड़ी रही
जीती भी वो ही जो अड़ी रही।

 

मीनू यतिन

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