
माँ के हाथों में जादू
माँ के हाथों में जादू
मेरी माँ के हाथों से अमृत बरसता,
क्या खाया है तुमने दाल भरा पराठा,
मैं कभी किसी पर नहीं चीख सकती,
मगर, माँ पर अपना हक़ जमाती,
वह माँ है मेरी, मुझे समझ जाएगी,
यही सोच मैं कुछ भी बोल जाती,
एक तुम हीं हो जिससे मैं अपना मन खोल पातीं,
अपनी कमज़ोरी और दुर्बलता का हाल बताती,
औरों से सून ‘तुम अपनी माँ पर गई हो’,
यह सुन, मैं ना जाने कितनी खुश हो जाती,
तुम्हारी तबीयत खराब जब होती माँ,
अजीब सी एक व्याकुलता आ जाती,
तुम्हें खुश और उत्साह में देख,
मैं भी तरो-ताजा और प्रफुल्लित हो जाती,
हम सब घर पर लड़ते-झगड़ते,
की माँ किससे ज्यादा प्यार करती,
भैया को चिढ़ाती और मैं बोलती,
माँ ,मुझे सबसे ज्यादा प्यार है करती,
खाना-पकाना माँ जब तुम सिखाती,
बेस्वाद खाने पर ना जानें क्या जादू कर जाती,
यही सवाल जब-जब मैं तुमसे करती,
“जब खुद माँ बनोगी तब समझोगे”,
यह कहकर हर वक्त तुम मुस्काती,
जिंदगी के थपेरों से जब भी हताश हो जातीं,
मुझे गले लगाकर , मेरे माथे को चूमतीं,
‘मैं हूं तुम्हारे साथ’, यह विश्वास तुम दिलाती,
तुम्हारा यही कहना, हिम्मत दें जाता माँ,
शायद कभी नहीं कहा होगा मैंने,
आज यह कहना चाहती हूं मैं यह तुमसे,
माँ, मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं,
मैं बहुत प्यार करती हूं।
रचयिता,
स्वेता गुप्ता
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