
ज़ख्म
ज़ख्म
उम्र बढ़ी तो इम्तिहां बढ़ा दिए?
देखा ना गया सब्र तो दरमियां बढ़ा दिए?
जिस्म के टुकड़े को देकर वो अज़ाब,
चैन ना मिला, कि सहारे छुड़ा दिए?
इतना भी क्या कर दिया ज़िंदगी में
हमसफ़र जो कल तक थे, यूँ ही छुड़ा दिए?
मूँग तो दली ही थी छाती पे,
ज़हालत ने तहज़ीब के परखच्चे ही उड़ा दिए।
कहाँ से आये थे, कहाँ को चल दिए,
ज़ख्म जो सूखे थे, नासूर कर दिए।
क्या छोड़ा है रास्ता अब कोई तुमने?
पकड़ी है जो रेत तो लगेगी फिसलने
जो बाँधोगी तो दूर निकल जायेगा,
जकड़ने पे हाथ से फिसल जाएगा,
नाज़ुक होता है रिश्ता ये प्यार का,
जो बिछाओगी जाल तो घुट के मर जायेगा।
“अलबेला”
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