महापुरुषों का अवतरण

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29 Jul 20247 min read

Published in spiritualism

||श्री सद्गुरवे नमः||

 

‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज के 73वें प्रगटोदिवस (अवतरण दिवस, दिनांक 8. 12. 2022) के पुण्य अवसर पर विशेष…

 

 

महापुरुषों का अवतरण

 

निर्वाण शरीर (bodyless body) को प्राप्त योगी

सहस्रार चक्र सातवाँ चक्र है| यहाँ पर परब्रह्म परमात्मा का स्थान है| हज़ार दल वाला यह चक्र अनंत सूर्यों से प्रकाशित है| यह सतलोक है जहाँ देवतापन के भी देवता परब्रह्म परमात्मा स्वयं विराजमान हैं| यहाँ पूजक एवं पूज्य एक हो पाते हैं| साध्य एवं साधक एक हो गए| बूंद समुद्र में चला गया| यही पर असम्प्रज्ञात समाधि लग जाती है| अतएव शरीर का भान भी समाप्त हो जाता है| यहाँ पर 24 घंटे में 21,600 जाप अपनेआप होता रहता है, परन्तु साधक अब जाप से भी ऊपर उठ जाता है| चूँकि यही ब्रह्माण्ड है| यहीं से नीचे के सारे पिण्डों की सृष्टि होती है| यही से सबका नियंत्रण होता है| अक्षर का भी नियंत्रण यही से होता है| निराकार निर्गुण ब्रह्म यहीं है| अतः तुरीयातीत अवस्था को साधक उपलब्ध हो जाता है| यहाँ अनहद की गति नहीं है| यही परम शुद्ध चित्त आनंद है| यहाँ बिलकुल शुद्ध सतोगुण है| योगी पूर्ण-सतोगुण में यहीं कल्पों निवास करता है| सातवाँ शरीर निर्वाण शरीर है| ब्रह्म शरीर में कुछ जानने को शेष रह गया था, वह जानना है| न जानने का, न होने का, पूरी तरह मिट जाना ही निर्वाण शरीर है| बुद्ध इसी स्थिति को कहे थे- जैसे दीपक जल रहा हो, उसको समझ जाना| प्रकाश से आया था, कहाँ चला गया? यह अबूझ पहेली है| इस शरीर में जो कुछ भी हो जाये, वह मात्र बताना है| चूँकि कहा नहीं जा सकता कुछ भी| जो कुछ भी जाना गया, वह भी इस शरीर में छूट गया| यह स्थिति मांगी नहीं जा सकती| माँगता तो भिखारी है| बहादुर साधक गुरु निर्देश से छलांग लगा लेता है| फिर पाता है| अब कहाँ गुरु- कहाँ शिष्य(चेला)! फिर तो मुक्त है इस झमेले से|

सातवें शरीर के व्यक्ति से प्रकृति में कोई रहस्य नहीं रह जाता है| वह परम शून्य होता है| शून्य से शून्य में गति अपनेआप ही हो जाती है, बिना प्रयास के| इस शरीर का गुरु अत्यंत दुर्लभ होता है| यदि होगा भी तो पहचानेगा कौन? आप तो पहचानते उसी को, जिसमें विद्वता हो| जिनका प्रवचन पत्र-पत्रिकाओं में आता हो| जिनके यहाँ बड़े-बड़े नेतागण एवं अधिकारी आते हों| यही रही आपकी खरी कसौटी| उसे पहचानने वाले भी उसी तरह के एकाध पागल की तरह होंगे| उस पागल पर आप हँसोगे| चूँकि उस शरीर को प्राप्त व्यक्ति ही सहज होगा|

सातवाँ शरीर जीवन और मृत्यु दोनों से पार का है| चूँकि जीवन यदि पहला- भौतिक शरीर है तो मृत्यु सातवें शरीर की शुरुआत है| दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| यह शरीर दोनों से पार कर जाता है| अब आगे कहना शब्दातीत प्रतीत होता है| अब आगे कहना शब्दाभाव प्रतीत होता है| अतएव यही है महामृत्यु| यही है क्रांति महाजीवन की| समर्पण होते ही गुरु तत्त्व शिष्य में स्वतः प्रवाहित हो जाता है| वह साधक पूर्णत्व से क्षणभर में भर जाता है|

निर्वाण शरीर को प्राप्त योगी अपनेआप में सदा आनंदित रहते हैं| सारी वासनाएं क्षीण हो जाती हैं| परन्तु कोई कोई साधक अत्यंत करुणावश चौथे-पाँचवें शरीर पर ही दृढ़ संकल्प ले लेते हैं कि यहाँ के लोग अत्यंत दुखी हैं| ये भ्रमित हैं| ये ठगे जा रहे हैं| इनका जीवन ही ठगा जा रहा है| ये व्याख्याएं कर रहे हैं, तथाकथित धर्मों में भ्रमित हो रहे हैं| संप्रदाय रूपी बंधन में बुरी तरह आबद्ध हो गए हैं| इसी नशे को धर्म समझ बैठे हैं| इन्हें बचाना होगा| अपने लिए न सही इनके लिए आना ही होगा|

ये अत्यंत कारुणिक आत्माएं होती हैं| अन्यथा छठे एवं सातवें शरीर पर पहुँचने के बाद कौन आना चाहेगा? कौन चाहेगा अपने को उस महासमुद्र से अलग करना? अपना चाह भी नहीं रहता उस शरीर में, बस बहते चला जाता अनंत समुद्र में| अब बहाव भी समुद्र का होता| उस विराट का होता| परन्तु जो साधक अपनी खूंटी गाड़ दिया, चौथे-पाँचवें शरीर पर मात्र वह खूंटी गड़ी रह जाती| वह भी उसकी करुणा के कारण उसी के साथ चलते| इस तरह के बुद्धत्व प्राप्त, निर्वाण प्राप्त व्यक्ति- योगी आ जाते इस धराधाम पर, अब वे करुणा की मूर्ति होते| दया की मूर्ति होते| आनंद की मूर्ति होते| परन्तु फिर भी इन्हें पहचानने वालों की संख्या न्यून होती| जिसमें भी कुछ गुणवत्ता होती, जिसमें भी समान ध्रुव होते, उन्हें अपनेआप आकर्षित कर लेते| जिनमें गुणवत्ता है ही नहीं, जिनमें केवल विषम ध्रुव ही हैं, विषय-वासनाएं ही हैं, उन्हें उतने ही जोर से विसर्जित कर देते| यह घटना अपनेआप हो जाती है| जिसका परिणाम होता, समाज का आंदोलित हो जाना| उस बुद्धत्व वाले व्यक्ति को अब समाज पत्थर भी मारता है| गाली भी देता है| विष भी देता है| दुःख भी देता है| इन विक्षिप्त व्यक्तियों के पास जो भी साधन होता, उसे प्रदान करते| वह व्यक्ति तीर्थंकर की तरह, बुद्ध की तरह, कबीर की तरह, मूसा की तरह, नानक की तरह करुणावश गाली सुन लेता है| उसे इन विक्षिप्तों पर दया भी होती| इन अज्ञानियों पर करुणावश अनायास ही क्षमा करते जाते हैं| परन्तु ये अपना पाठ पढ़ा ही देते, अपना पाठ सिखा ही देते| भले ही उसकी कक्षा में, विद्यालय में एक ही विद्यार्थी आये| उस विद्यार्थी में अपना सब कुछ उड़ेल देना चाहते हैं| किसी-किसी निर्वाण शरीर को एक भी शिष्य नहीं मिलता| वह बेचारा हो जाता है| अपने में मस्त रहते हुए संसारी लोगों को देखता ही चला जाता है| उससे बहुत कुछ लिया जा सकता था| परन्तु रुढ़िवादी, परंपरावादी, अतिवादी उन्हें देखते तक नहीं हैं| ये अपने पुस्तकीय ज्ञान को ही धर्म समझ लेते हैं| मजहब को ही धर्म समझ लेते हैं|

चूँकि वे साक्षात् करुणा की मूर्ति जो होते, इन्हीं कारणों से इनका जन्म अवतार कहा जाता| इनकी मृत्यु निर्वाण कहा जाता है| इस अवतरण में सम्पूर्ण सृष्टि ही साथ देती है| तब कहीं मानवता का पुष्प रूपी महामानव सद्गुरु के रूप में आता है| पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त कर नयी व्यवस्था, मन्त्र-तन्त्र, ध्यान की विधि, नीति-नियम देकर नए समाज की संरचना करता है| जिसे पुराने रुढ़िवादी बरदाश्त नहीं करते एवं विद्रोह करते हैं| वे नासमझ, तथाकथित धर्म के ठेकेदार ही इस समाज को कुरूप करते हैं| इन्हीं का प्रकोप इस अवतरण को भोगना पड़ता है|

जब तक हम करते हैं योग-तप, मन्त्र-अनुष्ठान पाते कुछ नहीं| ये सब करने मात्र से यही ज्ञान होता है कि यह भी सत्य नहीं है| अतः यह भी छूट जाता है| सत्य की तरह अग्रसरित हो जाना है| यहाँ न कुछ करना न कुछ पाना है| संभवतः बुद्ध से भी पूछा गया- क्या तूने किया? कैसे तू पाया? बुद्ध मात्र यही इशारा कर सके- जब तक कुछ करता रहा, पा नहीं सका| जब सब कुछ करना छोड़ दिया, पा लिया| उपलब्ध हो गया| पाना या उपलब्ध होना कहा जाये तो यह भी भिन्नता है| वह तो पहले से ही था| हमने साक्षात्कार कर लिया| यह भी कैसे कहा गया! जो पहले से था, वह प्रत्यक्ष हो गया| बस अब बाहर-भीतर मात्र वही रह गया|

इस स्थिति को पहुँचा हुआ योगी ही देह मान-अभिमान का परित्याग कर जगत् हित में कुछ कर सकता है| यह स्वयं चौथे-पाँचवें शरीर में आकर करुणावश रहता है| यथा सतगुरु कबीर कहते हैं-

 

देह मान अभिमान के, निरहंकारी होय|

वर्ण कर्म कुल जाति ते, हंस निनारा होय||

जग विलास है देह को, साधु करो विचार|

सेवा साधन मन कर्म ते, जथा भगति उर धार||

 

 

||हरि ॐ तत्सत्||

 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कुण्डलिनी जागरण ’ से उद्धृत…

 


 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज के 73वें प्रगटोदिवस (अवतरण दिवस, दिनांक 8. 12. 2022) के पुण्य अवसर पर विशेष…

 

 

महापुरुषों का अवतरण

 

निर्वाण शरीर (bodyless body) को प्राप्त योगी

सहस्रार चक्र सातवाँ चक्र है| यहाँ पर परब्रह्म परमात्मा का स्थान है| हज़ार दल वाला यह चक्र अनंत सूर्यों से प्रकाशित है| यह सतलोक है जहाँ देवतापन के भी देवता परब्रह्म परमात्मा स्वयं विराजमान हैं| यहाँ पूजक एवं पूज्य एक हो पाते हैं| साध्य एवं साधक एक हो गए| बूंद समुद्र में चला गया| यही पर असम्प्रज्ञात समाधि लग जाती है| अतएव शरीर का भान भी समाप्त हो जाता है| यहाँ पर 24 घंटे में 21,600 जाप अपनेआप होता रहता है, परन्तु साधक अब जाप से भी ऊपर उठ जाता है| चूँकि यही ब्रह्माण्ड है| यहीं से नीचे के सारे पिण्डों की सृष्टि होती है| यही से सबका नियंत्रण होता है| अक्षर का भी नियंत्रण यही से होता है| निराकार निर्गुण ब्रह्म यहीं है| अतः तुरीयातीत अवस्था को साधक उपलब्ध हो जाता है| यहाँ अनहद की गति नहीं है| यही परम शुद्ध चित्त आनंद है| यहाँ बिलकुल शुद्ध सतोगुण है| योगी पूर्ण-सतोगुण में यहीं कल्पों निवास करता है| सातवाँ शरीर निर्वाण शरीर है| ब्रह्म शरीर में कुछ जानने को शेष रह गया था, वह जानना है| न जानने का, न होने का, पूरी तरह मिट जाना ही निर्वाण शरीर है| बुद्ध इसी स्थिति को कहे थे- जैसे दीपक जल रहा हो, उसको समझ जाना| प्रकाश से आया था, कहाँ चला गया? यह अबूझ पहेली है| इस शरीर में जो कुछ भी हो जाये, वह मात्र बताना है| चूँकि कहा नहीं जा सकता कुछ भी| जो कुछ भी जाना गया, वह भी इस शरीर में छूट गया| यह स्थिति मांगी नहीं जा सकती| माँगता तो भिखारी है| बहादुर साधक गुरु निर्देश से छलांग लगा लेता है| फिर पाता है| अब कहाँ गुरु- कहाँ शिष्य(चेला)! फिर तो मुक्त है इस झमेले से|

सातवें शरीर के व्यक्ति से प्रकृति में कोई रहस्य नहीं रह जाता है| वह परम शून्य होता है| शून्य से शून्य में गति अपनेआप ही हो जाती है, बिना प्रयास के| इस शरीर का गुरु अत्यंत दुर्लभ होता है| यदि होगा भी तो पहचानेगा कौन? आप तो पहचानते उसी को, जिसमें विद्वता हो| जिनका प्रवचन पत्र-पत्रिकाओं में आता हो| जिनके यहाँ बड़े-बड़े नेतागण एवं अधिकारी आते हों| यही रही आपकी खरी कसौटी| उसे पहचानने वाले भी उसी तरह के एकाध पागल की तरह होंगे| उस पागल पर आप हँसोगे| चूँकि उस शरीर को प्राप्त व्यक्ति ही सहज होगा|

सातवाँ शरीर जीवन और मृत्यु दोनों से पार का है| चूँकि जीवन यदि पहला- भौतिक शरीर है तो मृत्यु सातवें शरीर की शुरुआत है| दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| यह शरीर दोनों से पार कर जाता है| अब आगे कहना शब्दातीत प्रतीत होता है| अब आगे कहना शब्दाभाव प्रतीत होता है| अतएव यही है महामृत्यु| यही है क्रांति महाजीवन की| समर्पण होते ही गुरु तत्त्व शिष्य में स्वतः प्रवाहित हो जाता है| वह साधक पूर्णत्व से क्षणभर में भर जाता है|

निर्वाण शरीर को प्राप्त योगी अपनेआप में सदा आनंदित रहते हैं| सारी वासनाएं क्षीण हो जाती हैं| परन्तु कोई कोई साधक अत्यंत करुणावश चौथे-पाँचवें शरीर पर ही दृढ़ संकल्प ले लेते हैं कि यहाँ के लोग अत्यंत दुखी हैं| ये भ्रमित हैं| ये ठगे जा रहे हैं| इनका जीवन ही ठगा जा रहा है| ये व्याख्याएं कर रहे हैं, तथाकथित धर्मों में भ्रमित हो रहे हैं| संप्रदाय रूपी बंधन में बुरी तरह आबद्ध हो गए हैं| इसी नशे को धर्म समझ बैठे हैं| इन्हें बचाना होगा| अपने लिए न सही इनके लिए आना ही होगा|

ये अत्यंत कारुणिक आत्माएं होती हैं| अन्यथा छठे एवं सातवें शरीर पर पहुँचने के बाद कौन आना चाहेगा? कौन चाहेगा अपने को उस महासमुद्र से अलग करना? अपना चाह भी नहीं रहता उस शरीर में, बस बहते चला जाता अनंत समुद्र में| अब बहाव भी समुद्र का होता| उस विराट का होता| परन्तु जो साधक अपनी खूंटी गाड़ दिया, चौथे-पाँचवें शरीर पर मात्र वह खूंटी गड़ी रह जाती| वह भी उसकी करुणा के कारण उसी के साथ चलते| इस तरह के बुद्धत्व प्राप्त, निर्वाण प्राप्त व्यक्ति- योगी आ जाते इस धराधाम पर, अब वे करुणा की मूर्ति होते| दया की मूर्ति होते| आनंद की मूर्ति होते| परन्तु फिर भी इन्हें पहचानने वालों की संख्या न्यून होती| जिसमें भी कुछ गुणवत्ता होती, जिसमें भी समान ध्रुव होते, उन्हें अपनेआप आकर्षित कर लेते| जिनमें गुणवत्ता है ही नहीं, जिनमें केवल विषम ध्रुव ही हैं, विषय-वासनाएं ही हैं, उन्हें उतने ही जोर से विसर्जित कर देते| यह घटना अपनेआप हो जाती है| जिसका परिणाम होता, समाज का आंदोलित हो जाना| उस बुद्धत्व वाले व्यक्ति को अब समाज पत्थर भी मारता है| गाली भी देता है| विष भी देता है| दुःख भी देता है| इन विक्षिप्त व्यक्तियों के पास जो भी साधन होता, उसे प्रदान करते| वह व्यक्ति तीर्थंकर की तरह, बुद्ध की तरह, कबीर की तरह, मूसा की तरह, नानक की तरह करुणावश गाली सुन लेता है| उसे इन विक्षिप्तों पर दया भी होती| इन अज्ञानियों पर करुणावश अनायास ही क्षमा करते जाते हैं| परन्तु ये अपना पाठ पढ़ा ही देते, अपना पाठ सिखा ही देते| भले ही उसकी कक्षा में, विद्यालय में एक ही विद्यार्थी आये| उस विद्यार्थी में अपना सब कुछ उड़ेल देना चाहते हैं| किसी-किसी निर्वाण शरीर को एक भी शिष्य नहीं मिलता| वह बेचारा हो जाता है| अपने में मस्त रहते हुए संसारी लोगों को देखता ही चला जाता है| उससे बहुत कुछ लिया जा सकता था| परन्तु रुढ़िवादी, परंपरावादी, अतिवादी उन्हें देखते तक नहीं हैं| ये अपने पुस्तकीय ज्ञान को ही धर्म समझ लेते हैं| मजहब को ही धर्म समझ लेते हैं|

चूँकि वे साक्षात् करुणा की मूर्ति जो होते, इन्हीं कारणों से इनका जन्म अवतार कहा जाता| इनकी मृत्यु निर्वाण कहा जाता है| इस अवतरण में सम्पूर्ण सृष्टि ही साथ देती है| तब कहीं मानवता का पुष्प रूपी महामानव सद्गुरु के रूप में आता है| पुरानी व्यवस्था को ध्वस्त कर नयी व्यवस्था, मन्त्र-तन्त्र, ध्यान की विधि, नीति-नियम देकर नए समाज की संरचना करता है| जिसे पुराने रुढ़िवादी बरदाश्त नहीं करते एवं विद्रोह करते हैं| वे नासमझ, तथाकथित धर्म के ठेकेदार ही इस समाज को कुरूप करते हैं| इन्हीं का प्रकोप इस अवतरण को भोगना पड़ता है|

जब तक हम करते हैं योग-तप, मन्त्र-अनुष्ठान पाते कुछ नहीं| ये सब करने मात्र से यही ज्ञान होता है कि यह भी सत्य नहीं है| अतः यह भी छूट जाता है| सत्य की तरह अग्रसरित हो जाना है| यहाँ न कुछ करना न कुछ पाना है| संभवतः बुद्ध से भी पूछा गया- क्या तूने किया? कैसे तू पाया? बुद्ध मात्र यही इशारा कर सके- जब तक कुछ करता रहा, पा नहीं सका| जब सब कुछ करना छोड़ दिया, पा लिया| उपलब्ध हो गया| पाना या उपलब्ध होना कहा जाये तो यह भी भिन्नता है| वह तो पहले से ही था| हमने साक्षात्कार कर लिया| यह भी कैसे कहा गया! जो पहले से था, वह प्रत्यक्ष हो गया| बस अब बाहर-भीतर मात्र वही रह गया|

इस स्थिति को पहुँचा हुआ योगी ही देह मान-अभिमान का परित्याग कर जगत् हित में कुछ कर सकता है| यह स्वयं चौथे-पाँचवें शरीर में आकर करुणावश रहता है| यथा सतगुरु कबीर कहते हैं-

 

देह मान अभिमान के, निरहंकारी होय|

वर्ण कर्म कुल जाति ते, हंस निनारा होय||

जग विलास है देह को, साधु करो विचार|

सेवा साधन मन कर्म ते, जथा भगति उर धार||

 

 

||हरि ॐ तत्सत्||

 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कुण्डलिनी जागरण ’ से उद्धृत…

 


 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

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