
ख्वाहिशें
ख्वाहिशें
ख्वाहिशें है,
पर बदलती रहती है।
चंद्रकला सी
घटती बढ़ती रहती है।
मैं मिट्टी से
सपनों का महल
बना लूंगा।
सूरज नही चाहिए,
दिये से काम
चला लूंगा।
मैं चादर देखकर
पैर पसारता हूँ।
गिरकर, सीखकर,
गलतियाँ सुधारता हूँ।
रास्ते में काफी वक्त
बिताया हूँ।
काफी धीमी गति से
ऊपर आया हूँ।
इसलिए खुद को भी
अहमियत देता हूँ।
हर चोट को इसलिए
दिल पर लेता हूँ।
रचयिता
दिनेश कुमार सिंह
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