नया भारत बनाने को

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dineshkumar singh

28 Jul 20242 min read

Published in poetry

नया भारत बनाने को

 

उत्तर से दक्षिण के रस्सा कस्सी में,

पूरब से पश्चिम भूमिपुत्रों की दृष्टि में,

भारत कहाँ कहाँ बसा हुआ है,

और एक देश के झंडे के नीचे,

ना जाने कितने टुकड़ों में बटा हुआ है।

 

 

पहले हमने, मजहब में बांटा।।2।।

सीमायें खींची, लोग बांटे, नदियाँ बांटी।

अतीत बांटे, संस्कृति बांटी,

खेत बांटा, खेल बांटा

इस बंटवारे के खेल में,

नफ़रत ने गाँवो को लाशो से पाटा।

इतिहास ऐसी घटनाओं से पटा हुआ है,

ना जाने यह देश,

कितने टुकड़ों में बटा हुआ है।

 

हम, बोली को लेकर कर, लड़ पड़ते हैं।

पुल, रास्ते, संस्थानों, उद्यानों के नाम

बदलने पर झगड़ पड़ते हैं।

राजनीतिक रोटी के चक्कर में

पर प्रांतीय लोगो की बस्ती उजाड़ देते हैं

जाति जमात की पृष्ठभूमि पर

अपने अपने “रंगों का” झंडा गाड़ देते है।

कपड़े कितने भी इनके उजले हो, 

पर मन में मैल पड़ा हुआ है

ना जाने यह देश,

कितने टुकड़ों में बटा हुआ है।

 

देश आज़ाद हुआ है, पर देशवासी आज़ाद

कहाँ हुआ है।

पहले वो बाहरी ताकतों से लड़ता था,

पर अब वो अपनों से ही उलझा हुआ है।

रास्ते तो गाँव गाँव तक पहुंचे,

पर मन का मन से रास्ता कटा हुआ है।

ना जाने यह देश,

कितने टुकड़ों में बटा हुआ है।

 

समय लगेगा इस नई आज़ादी के आने को,।।2।।

खुद को समझकर, दूसरे को समझाने को,

भूले भटको को, सही मार्ग दिखाने को,

बार बार हार कर भी, कोशिश को दुहराने को,

हर पत्थर के बदले, प्रेम का हाथ बढ़ाने को,

और चढ़ेंगी आहुतियाँ, नया भारत बनाने को।

 

 

रचयिता दिनेश कुमार सिंह

 

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28 Jul 20242 min read

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नया भारत बनाने को

 

उत्तर से दक्षिण के रस्सा कस्सी में,

पूरब से पश्चिम भूमिपुत्रों की दृष्टि में,

भारत कहाँ कहाँ बसा हुआ है,

और एक देश के झंडे के नीचे,

ना जाने कितने टुकड़ों में बटा हुआ है।

 

 

पहले हमने, मजहब में बांटा।।2।।

सीमायें खींची, लोग बांटे, नदियाँ बांटी।

अतीत बांटे, संस्कृति बांटी,

खेत बांटा, खेल बांटा

इस बंटवारे के खेल में,

नफ़रत ने गाँवो को लाशो से पाटा।

इतिहास ऐसी घटनाओं से पटा हुआ है,

ना जाने यह देश,

कितने टुकड़ों में बटा हुआ है।

 

हम, बोली को लेकर कर, लड़ पड़ते हैं।

पुल, रास्ते, संस्थानों, उद्यानों के नाम

बदलने पर झगड़ पड़ते हैं।

राजनीतिक रोटी के चक्कर में

पर प्रांतीय लोगो की बस्ती उजाड़ देते हैं

जाति जमात की पृष्ठभूमि पर

अपने अपने “रंगों का” झंडा गाड़ देते है।

कपड़े कितने भी इनके उजले हो, 

पर मन में मैल पड़ा हुआ है

ना जाने यह देश,

कितने टुकड़ों में बटा हुआ है।

 

देश आज़ाद हुआ है, पर देशवासी आज़ाद

कहाँ हुआ है।

पहले वो बाहरी ताकतों से लड़ता था,

पर अब वो अपनों से ही उलझा हुआ है।

रास्ते तो गाँव गाँव तक पहुंचे,

पर मन का मन से रास्ता कटा हुआ है।

ना जाने यह देश,

कितने टुकड़ों में बटा हुआ है।

 

समय लगेगा इस नई आज़ादी के आने को,।।2।।

खुद को समझकर, दूसरे को समझाने को,

भूले भटको को, सही मार्ग दिखाने को,

बार बार हार कर भी, कोशिश को दुहराने को,

हर पत्थर के बदले, प्रेम का हाथ बढ़ाने को,

और चढ़ेंगी आहुतियाँ, नया भारत बनाने को।

 

 

रचयिता दिनेश कुमार सिंह

 

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