गुरु का महात्म्य

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22 Jul 202413 min read

Published in spiritualism

कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष …

 

||श्री सद्गुरवे नमः||

 

गुरु का महात्म्य

गुरु के समान हितैषी अपना कोई नहीं है। गुरु से ही जीवन का कल्याण है। अतः जीवन में गुरु का महत्तम पद है। किन्तु, गुरु की महत्ता को समझना सामान्य नहीं है और गुरु के प्रति सच्ची लगन का लगना भी अत्यन्त कठिन है। भौतिकवादी एवं बुद्धिवादी लोगों के अनुसार गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है। वे अपने अहंकार के वशीभूत होकर कहीं झुकना नहीं चाहते। अपनी बुद्धि के तर्क-जाल में सभी को फँसाने की कुचेष्टा करते हुए स्वयं फँस जाते हैं। अपने जीवन को वे यूँ ही व्यर्थ गंवा देते हैं। वे सदैव अपने भुजबल, तर्क एवं विद्या पर विश्वास कर श्रद्धाहीन हो जाते हैं।

उदाहरण के तौर पर देखिए-कंस एक विद्वान राजा है। विश्व के सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न राजाओं में अन्यतम है। उसका शरीर पूर्ण स्वस्थ है। वह यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा को मार चुका है, अर्थात् इन योग-कर्मों में उसने सिद्धि प्राप्त कर ली है। योग के उक्त कर्म तो अपने वश में हैं। ये स्वयं करने से सिद्ध होते हैं, किन्तु इनसे अहंकार की वृद्धि होती है।

सातवाँ चरण ध्यान का है। जो स्वयं के प्रयास से सिद्ध नहीं होता है। वह तो गुरु-अनुकम्पा से ही प्राप्त होता है।

सद्गुरु कबीर कहते हैं कि- ‘सहज ध्यान रहु, सहज ध्यान रहु, गुरु के वचन समायी हो |’ अर्थात् सदैव सहज ध्यान में रहो, और गुरु के वचन-उपदेश में समा जाओ। जैसा गुरु आदेश दें, वैसा आचरण करो। गुरु का वचन ही मन्त्र होता है। उनकी इच्छा, अनुकम्पा ही शिष्य के लिए ध्यान की वर्षा है।

कंस कभी किसी गुरु की शरण में नहीं गया है। क्योंकि, वह अपने तर्क से देखता है और अपने अहंकार से सोचता है। उसके सदृश विद्वान अथवा यम नियमादि का पालन करने वाला, उससे श्रेष्ठ व्यक्ति उसे कोई नहीं दिखाई पड़ता।

सातवाँ पुत्र बलराम का गर्भ स्थानांतरण होता है। रोहिणी गर्भधारण करती है। रोहिणी नक्षत्र में ही पृथ्वी गर्भ धारण करती है, जिससे फसल की अच्छी पैदावार होती है। गुरु रूपी वसुदेव का बीज रूपी मंत्र देवकी ग्रहण करती है। जिसे रोहिणी में देवतागण स्थानांतरण करते हैं। जब साधक गुरु-अनुकम्पा से ध्यान की गहराई में उतरता है, तब देवतागण खुशी से नृत्य करते हैं। पृथ्वी अहो-भाव से भर जाती है। ब्रह्म वेद उच्चारते हैं और सर्वत्र मंगल गान होने लगता है।

आठवाँ पुत्र कृष्ण है। उनका आगमन ध्यान रूपी गर्भ में, समाधि के रूप में होता है। कृष्ण तो अन्तिम परिणाम-अन्तिम फल है। जिसे अहंकार रूपी कंस सहन नहीं कर सकता है। काश, यदि कंस ने सद्गुरु कृष्ण को सहर्ष स्वीकार कर लिया होता तो कृष्ण की ऊर्जा कहीं और खर्च होती। पृथ्वी का दृश्य कुछ और होता। यही दुःखद घटना है। समय के सद्गुरु को तथाकथित यम, नियमादि के पालक, तपस्वी, धर्मगुरु पहचानने से मना ही नहीं करते, बल्कि पूरी शक्ति से उसका विरोध करते हैं।

गीता-उपदेश में अर्जुन श्री कृष्ण से मित्रवत् बात और तर्क कर रहे हैं। उनकी बुद्धि तर्क को वैसे ही जन्म देती है, जैसे वृक्ष से पत्ते निकलते हैं। वे किसी निर्णय पर नहीं पहुँचते हैं। यदि कोई बड़े से बड़ा डॉक्टर भी बीमार पड़ता है तो उसे भी किसी अन्य डॉक्टर की शरण में जाना पड़ता है। उस पर श्रद्धा-विश्वास कर दवा ग्रहण करनी ही पड़ती है। अन्ततः अर्जुन भी कृष्ण को गुरु के रूप में स्वीकारने का निर्णय लेते हैं। वे श्रीकृष्ण से कहते हैं-

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढेताः।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।

भावार्थ – अब मैं (अर्जुन) कृपण दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें। (गीता 2.6)

अर्जुन की तरह ही प्रत्येक बुद्धिवादी, भौतिकवादी दुविधा की स्थिति में है। इन परिस्थितियों में गुरु ही मार्ग निर्देशन कर सकता है। बशर्ते, शिष्य पूर्ण समर्पण करे। जो भी शिष्य समस्त विचारों, तर्कों, विविध परम्पराओं को त्याग कर गुरु का शरणागत हो जाता है वह समाधि-ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

भावार्थ – तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूप-सिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है। (गीता 4.34)

जिन्होंने सत्य को देख लिया हो, उनके पास विनीत भाव से श्रीकृष्ण जाने को कहते हैं। भगवान कृष्ण जंगल में जाकर तप करने को नहीं कहते हैं। गुरु की शरण में जाकर सेवा करने का निर्देश देते हैं। भगवान कृष्ण के उपदेश को समझते हुए, उनसे अर्जुन विनम्र भाव से कहते हैं –

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।

भावार्थ – आप परम भगवान, परम धाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि-पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। (गीता 10.12)

अर्जुन के अन्तर्चक्षु खुल गए, श्रीकृष्ण के ज्ञानोपदेश को सुनकर। अब वह उन्हें मित्र, भाई अथवा साले के रूप में नहीं देख रहा है। अब उसने उनको परमसत्य, नित्य दिव्य के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जब शिष्य गुरु को स्वीकार कर लेता है, तभी पूर्ण समर्पण होता है। पूर्ण समर्पण की स्थिति में ही गुरु शिष्य के भीतर उतरता है। तब शिष्य चकाचैंध से भर जाता है और वह भी उन्हीं का स्वरूप हो जाता है। जब लोहे को पारस स्पर्श करता है, तब वह सोना हो जाता है। परन्तु सद्गुरु जब शिष्य को स्पर्श करते हैं, तो वे उसे अपने समान बना लेते हैं।

गुरु के बिना किसी भी मानव का कल्याण सम्भव नहीं है। भले ही साधक अपने तपोबल से शंकर एवं ब्रह्मा के समान सिद्धि प्राप्त कर ले। जैसा कि राक्षस, दैत्य, गंधर्व-गण सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते हैं। फिर तप-धन के क्षय होते ही अधोगति को प्राप्त होते हैं।

अतएव, मानव-योनि में गुरु की अत्यन्त आवश्यकता है। मनुष्येतर योनियों में यदि गुरु की अनुकम्पा से किसी कारणवश पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहती है, तब उनमें भी तिर्यक-गति सम्भव है, जैसे-पक्षी-योनि में काकदेव जी, गरुड़ जी इत्यादि। अन्यथा अन्य योनियों में मोक्ष-प्राप्ति तो नगण्य ही है।

पूर्ण श्रद्धा-प्रेम के बिना गुरु-अनुकम्पा सम्भव भी नहीं है। तथाकथित तपस्वी जिन्हें अपने यम-नियम पर अहंकार है उन्हें यदि गुरु मिल जाए तो घटना नहीं घटेगी, अपितु दुर्घटना ही सम्भव है। जैसे कंस, दुर्योधन के समक्ष कृष्ण स्वयं विराजमान थे और रावणादि राक्षसों के सामने राम थे। रामचरितमानस के प्रारम्भ में ही तुलसीदास जी लिखते हैं-

भवानिशघड्ढरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।

याभ्यां बिना न पश्यान्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम्।।

(बा. का. श्लोक 2)

भावार्थ- श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्रीपार्वतीजी और श्रीशंकरजी की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके  बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। स्त्रैण-चित्त भवानी श्रद्धा है, जिससे पूर्ण समर्पण होता है। पुरुषचित्त विश्वास है। विश्वास किसी भी क्षण अविश्वास में बदल सकता है। अतएव, श्रद्धा और विश्वास दोनों एक साथ होने चाहिए। भवानी और शंकर दोनों मिलकर अर्धनारीश्वर का रूप बनते हैं। यही ऊर्जा का यथार्थ स्वरूप है।

श्रद्धा एवम् विश्वास होने पर गुरु के सगुण रूप में, निर्गुण निराकार परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। जब तक साधक गुरु को साधारण रूप में देखता है तथा उनमें गुणदोष का छिद्रान्वेषण करता है, तब तक समझो कि साधक संसारी है। ऐसी स्थिति में उसे मुक्त होने में अनेक जन्मों का समय लग सकता है। मानस ग्रन्थ में संत तुलसीदास जी गुरु-वन्दना लिखते हुए उनकी महत्ता स्पष्ट करते हैं-

सो.-वंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर।।

(बा. का. सो. 5)

भावार्थ – मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वन्दना करता हूँ जो कृपा के समुद्र और नररूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य-किरणों के  समूह हैं।

सेवा, सुमिरण, सत्संग और समर्पण द्वारा ही गुरु को प्रसन्न किया जा सकता है। तर्क से गुरु का मुँह बन्द कराया जा सकता है तथा अपनी विद्वता भी सिद्ध की जा सकती है, किन्तु गुरुत्व नहीं ग्रहण किया जा सकता।

राम और कृष्ण को बड़ा बताते हुए भी कबीर साहेब उन्हें गुरु के आगे छोटा सिद्ध करते हैं। यथा-

राम कृष्ण सों को बड़ा, उन्हूँ तो गुरु कीन्ह।

तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे आधीन।।

भावार्थ – संसार में राम-कृष्ण से कौन बड़ा है? किन्तु उन्होंने भी गुरु को माना और उनसे दीक्षा ली। (पुराणानुसार) वे तीनों लोकों के स्वामी होते हुए भी अपने गुरु के आगे सदैव आधीन रहे, अर्थात् उनकी आज्ञानुसार चलते थे। वे जब भी गुरु के सामने जाते हैं तो दीन-भाव से। यही सुपात्रता का श्रेष्ठ भाव है, जिससे गुरुत्व स्वतः प्रवाहित हो जाता है। गुरु विश्वमित्र के सामने राम डरे हुए, प्रेम से परिपूर्ण होकर, अत्यन्त विनीत रूप में हाथ जोड़े हुए लक्ष्मण के साथ जाते हैं। गुरु-चरणों में वे शीश झुकाते हैं तथा गुरु के आदेशानुसार बैठते हैं।

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।

गुरु पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ।।

(बा. का. 225)

भावार्थ – भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे। राम और लक्ष्मण की गुरु-भक्ति महान है। आज शिष्य संध्या-वंदन से छूटता जा रहा है। कुछ मायावादी तो तर्क देते हैं कि राम-नाम जपने अथवा पाठ करने से क्या लाभ? यह तो समय की बर्बादी है। ऐसे लोग गुरु के सान्निध्य से दूर हटते जाते हैं। वे कुछ देर आँखें बन्द करने का ढोंग मात्र करते हैं। ध्यान-साधना में उनका मन कैसे लग सकता है? जो गुरु की महत्ता समझते हैं तथा उनकी आज्ञानुसार आचरण करते हैं, उन्हीं को भक्ति-साधना का यथार्थ फल मिलता है।

गुरु विश्वमित्र राम से कहते हैं, ‘हे वत्स राम! संध्या का समय हो गया है, सचेत हो जाओ |’ फिर सब मिलकर संध्या-वन्दन करते हैं। तब गुरुदेव सत्संग करते हैं। पुराणादि की कथा-प्रसंग सुनाते हैं। दो पहर रात्रि के बीतने पर सभी को शयन करने का आदेश देते हैं।

निसि प्रबेश मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा।।

कहत कथा इतिहास पुरानी। रूचिर रजनि जुग जाम सिरानी।।

राम की गुरु भक्ति अति प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। जहाँ अब वे आए हुए हैं वह जनकपुरी उनका होने वाला ससुराल है, किन्तु उन्हें सांसारिक प्रतिष्ठा का लेशमात्र भी ख्याल नहीं है। उनके लिए तो वहाँ भी गुरु-सेवा ही सर्वोपरि है। अतएव, जब गुरु विश्वमित्र शयन करने लगते हैं, तो दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे। जिनके चरण-कमलों के दर्शन एवं स्पर्श के लिए वैराग्यवान पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं।

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।।

जिन्ह के चरन सरोरूह लागी। करत विविध जप जोग बिरागी।।

शिष्य श्रद्धा-प्रेम से गुरु के पाँव दबाता है। तब गुरु के शरीर से अनायास ही ऊर्जा का निस्सरण होता है। जो शिष्य के हाथों के माध्यम से उसमें प्रवेश करने लगती है। शिष्य के जन्म-जन्मांतरों का मल स्वतः विसर्जित हो जाता है। वह अन्दर से स्वच्छ एवं पवित्र हो जाता है। जिससे उसकी कुण्डलिनी शक्ति स्वतः जाग्रत हो जाती है और शिष्य भाव-समाधि में लीन होने लगता है। बाहर से गुरु का आभा-मण्डल शिष्य को घेरने लगता है। उस समय साधक की स्थिति ऐसी हो जाती है, जैसे कोई व्यक्ति गंगा-तट पर खड़ा हो। गंगा की जल धारा तेजी से बढ़ रही है और वह साधक नीचे से जल में डूबता जा रहा है। और-ऊपर से घोर वृष्टि होती हो, बिजली चमकती हो और बादलों की गड़गड़ाहट भी होती हो।

गुरु के पाँव दबाते हुए राम-लक्ष्मण की भी वैसी ही स्थिति हो गई है। गुरुदेव विश्वमित्र बार-बार उन्हें आज्ञा दे रहे हैं कि अब तुम शयन करने जाओ। परन्तु दोनों भाई प्रेम में स्वयं को जैसे भूल गए हैं। यथा-

तेइ दोउ बंधु जनु जीते। गुरु पद कमल पलोटत प्रीते।।

बार-बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।

(बा. का. 225/3)

गुरु के शयन के पश्चात् शिष्य विश्राम करने जाता है और गुरु के जागने से पूर्व ही जग जाता है। उसे तो सोते-जागते गुरु ही दिखाई पड़ते हैं। वह सेवा से कभी नहीं थकता, अपितु स्वयं को ऊर्जान्वित अनुभव करता है। इस प्रकार जिस क्षण आश्रम में सेवा करने के बाद अपने आपको ऊर्जान्वित अनुभव करे तो वह यह समझ ले कि उसमें ‘गुरुत्व’ आ रहा है, उसका जीवन सार्थक हो रहा है। जिस क्षण गुरु-सेवा करके शिष्य अहोभाव अनुभव करे तथा खुशी से नाचने लगे तो उसे समझना चाहिए कि उसने पूर्णत्व को प्राप्त कर लिया, गुरु पूर्णरूपेण उसमें उतर आए हैं और अब गुरु उस शिष्य के माध्यम से नृत्य करता है, गाता है तथा सत्संग करता है। वही स्थिति राम-लक्ष्मण की हो गई है। यथा-

उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुन सिखा धुनिकान।

गुरु तें पहलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।।

(बा. का. 226)

गुरु को शिष्य पूर्णतः समर्पित हो जाता है। गुरु-आज्ञा का पालन करना ही एकमात्र उसका लक्ष्य होता है। इसमें वह निज की लाभ-हानि का हिसाब नहीं लगाता, सब कुछ भूल जाता है। तभी तो धनुर्यज्ञ में भी राम निर्विकल्प भाव से बैठे हैं। लक्ष्मण तो कुछ सोचते-बोलते हैं। परन्तु राम ने सोचने का कार्य गुरु पर छोड़ दिया है। तब गुरु को उन्हें आदेश देना पड़ता है।

उठहु राम भंजहु भव चापा। मेटहु तात जनक परितापा।।

(बा. का. 253/3)

मानों राम तो गुरु के सान्निध्य में निर्विकल्प समाधि में संयुक्त हैं। गुरु का आदेश पाते ही उनकी समाधि खुलती है और वह भी निज हित के लिए नहीं, अपितु गुरु आज्ञा की पूर्ति हेतु आदेश पाते ही वे उठ खड़े होते हैं-

गुरुहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।

(बा. का. 260/3)

यदि आपने अपनी सुरति को ठीक से पकड़ लिया, तो समझो गुरु भी पकड़ में आ जाएंगे। फिर  बांसुरी किसी की भी हो- गीत-स्वर तो उस एक का ही ध्वनित होगा। दीया किसी का भी हो- ज्योति तो उस एक की ही होगी। तब तुम्हें पक्षियों के कलरव गीतों में भी महामंत्र सुनाई पड़ेगा। नदी के  स्वरों में भी उपनिषद के महावाक्य सुनाई पड़ेंगे। तुम्हारे जीवन में नया प्रभात उदित होगा। नया आनन्द होगा और गुरु-अनुकम्पा की मधुर वर्षा होगी।

 

।। हरि ॐ ।।

 

समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘ गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत….. 

                     

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

SadGuru Dham 

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||श्री सद्गुरवे नमः||

 

गुरु का महात्म्य

गुरु के समान हितैषी अपना कोई नहीं है। गुरु से ही जीवन का कल्याण है। अतः जीवन में गुरु का महत्तम पद है। किन्तु, गुरु की महत्ता को समझना सामान्य नहीं है और गुरु के प्रति सच्ची लगन का लगना भी अत्यन्त कठिन है। भौतिकवादी एवं बुद्धिवादी लोगों के अनुसार गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है। वे अपने अहंकार के वशीभूत होकर कहीं झुकना नहीं चाहते। अपनी बुद्धि के तर्क-जाल में सभी को फँसाने की कुचेष्टा करते हुए स्वयं फँस जाते हैं। अपने जीवन को वे यूँ ही व्यर्थ गंवा देते हैं। वे सदैव अपने भुजबल, तर्क एवं विद्या पर विश्वास कर श्रद्धाहीन हो जाते हैं।

उदाहरण के तौर पर देखिए-कंस एक विद्वान राजा है। विश्व के सर्वाधिक शक्ति सम्पन्न राजाओं में अन्यतम है। उसका शरीर पूर्ण स्वस्थ है। वह यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा को मार चुका है, अर्थात् इन योग-कर्मों में उसने सिद्धि प्राप्त कर ली है। योग के उक्त कर्म तो अपने वश में हैं। ये स्वयं करने से सिद्ध होते हैं, किन्तु इनसे अहंकार की वृद्धि होती है।

सातवाँ चरण ध्यान का है। जो स्वयं के प्रयास से सिद्ध नहीं होता है। वह तो गुरु-अनुकम्पा से ही प्राप्त होता है।

सद्गुरु कबीर कहते हैं कि- ‘सहज ध्यान रहु, सहज ध्यान रहु, गुरु के वचन समायी हो |’ अर्थात् सदैव सहज ध्यान में रहो, और गुरु के वचन-उपदेश में समा जाओ। जैसा गुरु आदेश दें, वैसा आचरण करो। गुरु का वचन ही मन्त्र होता है। उनकी इच्छा, अनुकम्पा ही शिष्य के लिए ध्यान की वर्षा है।

कंस कभी किसी गुरु की शरण में नहीं गया है। क्योंकि, वह अपने तर्क से देखता है और अपने अहंकार से सोचता है। उसके सदृश विद्वान अथवा यम नियमादि का पालन करने वाला, उससे श्रेष्ठ व्यक्ति उसे कोई नहीं दिखाई पड़ता।

सातवाँ पुत्र बलराम का गर्भ स्थानांतरण होता है। रोहिणी गर्भधारण करती है। रोहिणी नक्षत्र में ही पृथ्वी गर्भ धारण करती है, जिससे फसल की अच्छी पैदावार होती है। गुरु रूपी वसुदेव का बीज रूपी मंत्र देवकी ग्रहण करती है। जिसे रोहिणी में देवतागण स्थानांतरण करते हैं। जब साधक गुरु-अनुकम्पा से ध्यान की गहराई में उतरता है, तब देवतागण खुशी से नृत्य करते हैं। पृथ्वी अहो-भाव से भर जाती है। ब्रह्म वेद उच्चारते हैं और सर्वत्र मंगल गान होने लगता है।

आठवाँ पुत्र कृष्ण है। उनका आगमन ध्यान रूपी गर्भ में, समाधि के रूप में होता है। कृष्ण तो अन्तिम परिणाम-अन्तिम फल है। जिसे अहंकार रूपी कंस सहन नहीं कर सकता है। काश, यदि कंस ने सद्गुरु कृष्ण को सहर्ष स्वीकार कर लिया होता तो कृष्ण की ऊर्जा कहीं और खर्च होती। पृथ्वी का दृश्य कुछ और होता। यही दुःखद घटना है। समय के सद्गुरु को तथाकथित यम, नियमादि के पालक, तपस्वी, धर्मगुरु पहचानने से मना ही नहीं करते, बल्कि पूरी शक्ति से उसका विरोध करते हैं।

गीता-उपदेश में अर्जुन श्री कृष्ण से मित्रवत् बात और तर्क कर रहे हैं। उनकी बुद्धि तर्क को वैसे ही जन्म देती है, जैसे वृक्ष से पत्ते निकलते हैं। वे किसी निर्णय पर नहीं पहुँचते हैं। यदि कोई बड़े से बड़ा डॉक्टर भी बीमार पड़ता है तो उसे भी किसी अन्य डॉक्टर की शरण में जाना पड़ता है। उस पर श्रद्धा-विश्वास कर दवा ग्रहण करनी ही पड़ती है। अन्ततः अर्जुन भी कृष्ण को गुरु के रूप में स्वीकारने का निर्णय लेते हैं। वे श्रीकृष्ण से कहते हैं-

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढेताः।

यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।

भावार्थ – अब मैं (अर्जुन) कृपण दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चुका हूँ। ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ। अब मैं आपका शिष्य हूँ और आपका शरणागत हूँ। कृपया मुझे उपदेश दें। (गीता 2.6)

अर्जुन की तरह ही प्रत्येक बुद्धिवादी, भौतिकवादी दुविधा की स्थिति में है। इन परिस्थितियों में गुरु ही मार्ग निर्देशन कर सकता है। बशर्ते, शिष्य पूर्ण समर्पण करे। जो भी शिष्य समस्त विचारों, तर्कों, विविध परम्पराओं को त्याग कर गुरु का शरणागत हो जाता है वह समाधि-ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है।

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।

उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।

भावार्थ – तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूप-सिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है। (गीता 4.34)

जिन्होंने सत्य को देख लिया हो, उनके पास विनीत भाव से श्रीकृष्ण जाने को कहते हैं। भगवान कृष्ण जंगल में जाकर तप करने को नहीं कहते हैं। गुरु की शरण में जाकर सेवा करने का निर्देश देते हैं। भगवान कृष्ण के उपदेश को समझते हुए, उनसे अर्जुन विनम्र भाव से कहते हैं –

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।

पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्।।

भावार्थ – आप परम भगवान, परम धाम, परमपवित्र, परमसत्य हैं। आप नित्य, दिव्य, आदि-पुरुष, अजन्मा तथा महानतम हैं। (गीता 10.12)

अर्जुन के अन्तर्चक्षु खुल गए, श्रीकृष्ण के ज्ञानोपदेश को सुनकर। अब वह उन्हें मित्र, भाई अथवा साले के रूप में नहीं देख रहा है। अब उसने उनको परमसत्य, नित्य दिव्य के रूप में स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जब शिष्य गुरु को स्वीकार कर लेता है, तभी पूर्ण समर्पण होता है। पूर्ण समर्पण की स्थिति में ही गुरु शिष्य के भीतर उतरता है। तब शिष्य चकाचैंध से भर जाता है और वह भी उन्हीं का स्वरूप हो जाता है। जब लोहे को पारस स्पर्श करता है, तब वह सोना हो जाता है। परन्तु सद्गुरु जब शिष्य को स्पर्श करते हैं, तो वे उसे अपने समान बना लेते हैं।

गुरु के बिना किसी भी मानव का कल्याण सम्भव नहीं है। भले ही साधक अपने तपोबल से शंकर एवं ब्रह्मा के समान सिद्धि प्राप्त कर ले। जैसा कि राक्षस, दैत्य, गंधर्व-गण सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते हैं। फिर तप-धन के क्षय होते ही अधोगति को प्राप्त होते हैं।

अतएव, मानव-योनि में गुरु की अत्यन्त आवश्यकता है। मनुष्येतर योनियों में यदि गुरु की अनुकम्पा से किसी कारणवश पूर्व जन्म की स्मृति बनी रहती है, तब उनमें भी तिर्यक-गति सम्भव है, जैसे-पक्षी-योनि में काकदेव जी, गरुड़ जी इत्यादि। अन्यथा अन्य योनियों में मोक्ष-प्राप्ति तो नगण्य ही है।

पूर्ण श्रद्धा-प्रेम के बिना गुरु-अनुकम्पा सम्भव भी नहीं है। तथाकथित तपस्वी जिन्हें अपने यम-नियम पर अहंकार है उन्हें यदि गुरु मिल जाए तो घटना नहीं घटेगी, अपितु दुर्घटना ही सम्भव है। जैसे कंस, दुर्योधन के समक्ष कृष्ण स्वयं विराजमान थे और रावणादि राक्षसों के सामने राम थे। रामचरितमानस के प्रारम्भ में ही तुलसीदास जी लिखते हैं-

भवानिशघड्ढरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।

याभ्यां बिना न पश्यान्ति सिद्धाः स्वान्तः स्थमीश्वरम्।।

(बा. का. श्लोक 2)

भावार्थ- श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्रीपार्वतीजी और श्रीशंकरजी की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके  बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। स्त्रैण-चित्त भवानी श्रद्धा है, जिससे पूर्ण समर्पण होता है। पुरुषचित्त विश्वास है। विश्वास किसी भी क्षण अविश्वास में बदल सकता है। अतएव, श्रद्धा और विश्वास दोनों एक साथ होने चाहिए। भवानी और शंकर दोनों मिलकर अर्धनारीश्वर का रूप बनते हैं। यही ऊर्जा का यथार्थ स्वरूप है।

श्रद्धा एवम् विश्वास होने पर गुरु के सगुण रूप में, निर्गुण निराकार परमात्मा ही दिखाई पड़ता है। जब तक साधक गुरु को साधारण रूप में देखता है तथा उनमें गुणदोष का छिद्रान्वेषण करता है, तब तक समझो कि साधक संसारी है। ऐसी स्थिति में उसे मुक्त होने में अनेक जन्मों का समय लग सकता है। मानस ग्रन्थ में संत तुलसीदास जी गुरु-वन्दना लिखते हुए उनकी महत्ता स्पष्ट करते हैं-

सो.-वंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।

महामोह तम पुंज जासु बचन रवि कर निकर।।

(बा. का. सो. 5)

भावार्थ – मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वन्दना करता हूँ जो कृपा के समुद्र और नररूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य-किरणों के  समूह हैं।

सेवा, सुमिरण, सत्संग और समर्पण द्वारा ही गुरु को प्रसन्न किया जा सकता है। तर्क से गुरु का मुँह बन्द कराया जा सकता है तथा अपनी विद्वता भी सिद्ध की जा सकती है, किन्तु गुरुत्व नहीं ग्रहण किया जा सकता।

राम और कृष्ण को बड़ा बताते हुए भी कबीर साहेब उन्हें गुरु के आगे छोटा सिद्ध करते हैं। यथा-

राम कृष्ण सों को बड़ा, उन्हूँ तो गुरु कीन्ह।

तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे आधीन।।

भावार्थ – संसार में राम-कृष्ण से कौन बड़ा है? किन्तु उन्होंने भी गुरु को माना और उनसे दीक्षा ली। (पुराणानुसार) वे तीनों लोकों के स्वामी होते हुए भी अपने गुरु के आगे सदैव आधीन रहे, अर्थात् उनकी आज्ञानुसार चलते थे। वे जब भी गुरु के सामने जाते हैं तो दीन-भाव से। यही सुपात्रता का श्रेष्ठ भाव है, जिससे गुरुत्व स्वतः प्रवाहित हो जाता है। गुरु विश्वमित्र के सामने राम डरे हुए, प्रेम से परिपूर्ण होकर, अत्यन्त विनीत रूप में हाथ जोड़े हुए लक्ष्मण के साथ जाते हैं। गुरु-चरणों में वे शीश झुकाते हैं तथा गुरु के आदेशानुसार बैठते हैं।

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।

गुरु पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ।।

(बा. का. 225)

भावार्थ – भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे। राम और लक्ष्मण की गुरु-भक्ति महान है। आज शिष्य संध्या-वंदन से छूटता जा रहा है। कुछ मायावादी तो तर्क देते हैं कि राम-नाम जपने अथवा पाठ करने से क्या लाभ? यह तो समय की बर्बादी है। ऐसे लोग गुरु के सान्निध्य से दूर हटते जाते हैं। वे कुछ देर आँखें बन्द करने का ढोंग मात्र करते हैं। ध्यान-साधना में उनका मन कैसे लग सकता है? जो गुरु की महत्ता समझते हैं तथा उनकी आज्ञानुसार आचरण करते हैं, उन्हीं को भक्ति-साधना का यथार्थ फल मिलता है।

गुरु विश्वमित्र राम से कहते हैं, ‘हे वत्स राम! संध्या का समय हो गया है, सचेत हो जाओ |’ फिर सब मिलकर संध्या-वन्दन करते हैं। तब गुरुदेव सत्संग करते हैं। पुराणादि की कथा-प्रसंग सुनाते हैं। दो पहर रात्रि के बीतने पर सभी को शयन करने का आदेश देते हैं।

निसि प्रबेश मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं संध्याबंदनु कीन्हा।।

कहत कथा इतिहास पुरानी। रूचिर रजनि जुग जाम सिरानी।।

राम की गुरु भक्ति अति प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय है। जहाँ अब वे आए हुए हैं वह जनकपुरी उनका होने वाला ससुराल है, किन्तु उन्हें सांसारिक प्रतिष्ठा का लेशमात्र भी ख्याल नहीं है। उनके लिए तो वहाँ भी गुरु-सेवा ही सर्वोपरि है। अतएव, जब गुरु विश्वमित्र शयन करने लगते हैं, तो दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे। जिनके चरण-कमलों के दर्शन एवं स्पर्श के लिए वैराग्यवान पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं।

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।।

जिन्ह के चरन सरोरूह लागी। करत विविध जप जोग बिरागी।।

शिष्य श्रद्धा-प्रेम से गुरु के पाँव दबाता है। तब गुरु के शरीर से अनायास ही ऊर्जा का निस्सरण होता है। जो शिष्य के हाथों के माध्यम से उसमें प्रवेश करने लगती है। शिष्य के जन्म-जन्मांतरों का मल स्वतः विसर्जित हो जाता है। वह अन्दर से स्वच्छ एवं पवित्र हो जाता है। जिससे उसकी कुण्डलिनी शक्ति स्वतः जाग्रत हो जाती है और शिष्य भाव-समाधि में लीन होने लगता है। बाहर से गुरु का आभा-मण्डल शिष्य को घेरने लगता है। उस समय साधक की स्थिति ऐसी हो जाती है, जैसे कोई व्यक्ति गंगा-तट पर खड़ा हो। गंगा की जल धारा तेजी से बढ़ रही है और वह साधक नीचे से जल में डूबता जा रहा है। और-ऊपर से घोर वृष्टि होती हो, बिजली चमकती हो और बादलों की गड़गड़ाहट भी होती हो।

गुरु के पाँव दबाते हुए राम-लक्ष्मण की भी वैसी ही स्थिति हो गई है। गुरुदेव विश्वमित्र बार-बार उन्हें आज्ञा दे रहे हैं कि अब तुम शयन करने जाओ। परन्तु दोनों भाई प्रेम में स्वयं को जैसे भूल गए हैं। यथा-

तेइ दोउ बंधु जनु जीते। गुरु पद कमल पलोटत प्रीते।।

बार-बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।

(बा. का. 225/3)

गुरु के शयन के पश्चात् शिष्य विश्राम करने जाता है और गुरु के जागने से पूर्व ही जग जाता है। उसे तो सोते-जागते गुरु ही दिखाई पड़ते हैं। वह सेवा से कभी नहीं थकता, अपितु स्वयं को ऊर्जान्वित अनुभव करता है। इस प्रकार जिस क्षण आश्रम में सेवा करने के बाद अपने आपको ऊर्जान्वित अनुभव करे तो वह यह समझ ले कि उसमें ‘गुरुत्व’ आ रहा है, उसका जीवन सार्थक हो रहा है। जिस क्षण गुरु-सेवा करके शिष्य अहोभाव अनुभव करे तथा खुशी से नाचने लगे तो उसे समझना चाहिए कि उसने पूर्णत्व को प्राप्त कर लिया, गुरु पूर्णरूपेण उसमें उतर आए हैं और अब गुरु उस शिष्य के माध्यम से नृत्य करता है, गाता है तथा सत्संग करता है। वही स्थिति राम-लक्ष्मण की हो गई है। यथा-

उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुन सिखा धुनिकान।

गुरु तें पहलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान।।

(बा. का. 226)

गुरु को शिष्य पूर्णतः समर्पित हो जाता है। गुरु-आज्ञा का पालन करना ही एकमात्र उसका लक्ष्य होता है। इसमें वह निज की लाभ-हानि का हिसाब नहीं लगाता, सब कुछ भूल जाता है। तभी तो धनुर्यज्ञ में भी राम निर्विकल्प भाव से बैठे हैं। लक्ष्मण तो कुछ सोचते-बोलते हैं। परन्तु राम ने सोचने का कार्य गुरु पर छोड़ दिया है। तब गुरु को उन्हें आदेश देना पड़ता है।

उठहु राम भंजहु भव चापा। मेटहु तात जनक परितापा।।

(बा. का. 253/3)

मानों राम तो गुरु के सान्निध्य में निर्विकल्प समाधि में संयुक्त हैं। गुरु का आदेश पाते ही उनकी समाधि खुलती है और वह भी निज हित के लिए नहीं, अपितु गुरु आज्ञा की पूर्ति हेतु आदेश पाते ही वे उठ खड़े होते हैं-

गुरुहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा।।

(बा. का. 260/3)

यदि आपने अपनी सुरति को ठीक से पकड़ लिया, तो समझो गुरु भी पकड़ में आ जाएंगे। फिर  बांसुरी किसी की भी हो- गीत-स्वर तो उस एक का ही ध्वनित होगा। दीया किसी का भी हो- ज्योति तो उस एक की ही होगी। तब तुम्हें पक्षियों के कलरव गीतों में भी महामंत्र सुनाई पड़ेगा। नदी के  स्वरों में भी उपनिषद के महावाक्य सुनाई पड़ेंगे। तुम्हारे जीवन में नया प्रभात उदित होगा। नया आनन्द होगा और गुरु-अनुकम्पा की मधुर वर्षा होगी।

 

।। हरि ॐ ।।

 

समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘ गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत….. 

                     

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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