शिव नेत्र

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21 Jul 202418 min read

Published in spiritualism

समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिवनेत्र’ से उद्धृत…

 

शिव नेत्र

 

हमारे ऋषि बार-बार कहते आ रहे हैं कि जो कुछ आप ब्रह्माण्ड में देख रहे हैं, देखना चाहते हैं वह सभी कुछ इस छोटे से पिण्ड में भी है। जो साधक अपने ही अन्दर देख लेता है, उसकी यात्रा बिना यात्रा प्रारम्भ किए ही पूर्ण हो जाती है। शिव संहिता में भगवान शिव कहते हैं-

‘जानाति यद सर्व मिदं योगी नास्त्यत्र संशयः|

ब्रह्माण्ड संज्ञेके देहे यथा देशं व्यवस्थितः||’

अर्थात् ब्रह्माण्ड संज्ञक देह में जिस प्रकार अनेक देशों की व्यवस्था है, उसे पूर्णतः जान लेने वाला ही योगी है। इस पिण्ड के अन्दर प्रवेश करने एवं उसके सम्बन्ध में जानने के लिए ही सद्गुरु की आवश्यकता है। चूंकि सारी चीज तो शास्त्रों में उपलब्ध है। फिर भी हम मात्र उसका पाठ करके या अध्ययन कर संतोष कर लेते हैं। पिण्ड को तीन रूपों में विभक्त कर सकते हैं।

प्रथम- हमारा बाहरी ढांचा अर्थात् रूप। इसे हम यंत्र कहते हैं।

दूसरा- इस पिण्ड अर्थात् शरीर के अन्दर की व्यवस्था कैसी है? इसके बारे में जानकारी प्राप्त करना है। अन्दरूनी व्यवस्था ही तंत्र है।

तीसरा- जिसके आधार पर हमारे अन्दर के अवयवों का निर्माण हुआ है। इस मानवी प्रज्ञा के पीछे भी गणितीय रहस्य छिपा है। वही है-मंत्र।

अध्यात्म में इसे ही आधिभौतिक, आधिवैदिक और आध्यात्मिक व्यवस्था कहते हैं। हम उसी व्यवस्था से संचालित होते हैं। उसकी अदृश्य दृष्टि हमारे चारों तरफ फैली है। तभी तो भगवान शिव कहते हैं- “भगवान ने मनुष्य के साढ़े तीन हाथ के शरीर में भूः, भव आदि सप्त लोकों तथा सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पर्वत, सागर, वृक्ष आदि सभी वस्तुओं को विधिवत् प्रतिफलित कर दिया है|”

इसी को कबीर साहब कहते हैं-

‘भीतर बाहर का एकैस लेखा।

जस बाहर तस भीतर देखा ||’

आगे कहते हैं-

‘सूर्य-चाँद दोउ पेवन लगे | गुरु प्रताप से सोवत जागे ||’

 

अनुभव एक ही है। अभिव्यक्ति की शब्द शैली अलग है। मूलाधार चक्र से सहस्रार तक पाताल से आकाश तक सात चक्र हैं। ये ही विभिन्न लोक हैं। जो इन लोकों, परलोकों के रहस्य को, इनके ऊपर स्थित देवी-देवता से मिल लेता है, वह बाहर के भी लोकों में परिचित की तरह पहुँच जाता है। वही देवी-देवता बाहर भी स्वागत करते हैं। इस साधक के लिए सारा पर्दा गिर जाता है। सारा रहस्य खुल जाता है। तभी तो वेदव्यास जी को कहना पड़ा- “न हि मानुषाछ्रेष्ठतरं हि किंचित |” अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ इस संसार में कुछ भी नहीं है।

अध्यात्म अपने आप में पूर्ण विज्ञान है। इससे हम कुछ भी कर सकते हैं। पदार्थ विज्ञान व्यक्ति में अहंकार लाता है। साधन सुख की आकांक्षा पैदा करता है। जबकि अध्यात्म विज्ञान व्यक्ति को नैसर्गिक, निरहंकारी बनाता है। मानव से मानव को प्रेम का संदेश देता है। यह तथाकथित जाति लिंग, देश, राज्य, राष्ट्र से ऊपर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने में देखता है।

जैसे हम अपने पिण्ड से बाहर निकल कर ब्रह्माण्ड में पहुँचते हैं- देखते हैं असंख्य जुगनुओं के समान तारागण, असंख्य ग्रह पिण्ड। जैसे-जैसे हम ब्रह्माण्ड के रहस्य में प्रवेश करते हैं, वैसे ही हम अपने को वृहद् पाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, हम सभी में हैं। सभी हम में हैं। अज्ञात आकर्षण की तरफ ऊपर उठते जाते हैं। एक स्थिति ऐसी आती है जहाँ हम समाप्त हो जाते हैं। समस्त सृष्टि का रहस्य खुल जाता है।

परम पुरुष, परम ज्योति अलख पुरुष ही है जिससे सभी प्रकाशित होते हैं। उसी के स्वयं स्फूर्ति से ही अनेक ब्रह्माण्डों की सृष्टि हुई है। यह सभी कुछ सम्भव है साधक के लिए। असम्भव है कुतार्किक के लिए। हम रात-दिन परिश्रम करते हैं झूठी पद-प्रतिष्ठा के लिए। मेरी सबसे बड़ी चिंता है- ‘इस रहस्य को कोई नहीं जानना चाहता। जिसे जनाना चाहता हूँ; वह जाने-अनजाने लात चलाता है। अपनी क्षुद्र आकांक्षा की पूर्ति हेतु बुरा-भला कहने लगता है।’’

 

इस विश्व ब्रह्माण्ड को जानने के लिए शिव को जानना होगा। विश्व का पहला ‘व’ शब्द लोप होते ही शिव का दिग्दर्शन हो जाता है। ‘व’ ही जीवात्मा को बाह्य जगत से जोड़ता है। शिव से अलग करता है या आप एवं शिव के मध्य ‘व’ ही दिवाल बना है। यही बवंडर खड़ा किया है। दिवाल से भी ‘व’ निकाल देने पर दिल बचता है। दिल ही प्रेम का प्रतीक है। प्रेम ही शिव है। वस्तु का रचयिता भी, वस्तु का वर्द्धन कर्तापन का जनक भी यही है। शिव का ही विस्तार सृष्टि है। आपकी आँखें बाध्य कर रही हैं बाहर देखने के लिए। जैसे ही आपकी दृष्टि की धारा अन्तर की तरफ प्रवाहित होने लगती है। आपका त्रिनेत्र खुल जाता है। फिर आप शिव को साकार कर लेते हैं। यही है शिव नेत्र | आप ही शिवत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। आपका तृतीय नेत्र खुल जाता है। सारे जगत से पर्दा हट जाता है।

इसके लिए हमारा स्थूल शरीर बहुत सहायक है। इस स्थूल शरीर को भी हमारी मदद की आवश्यकता है। यदि हम ठीक से मदद करते हैं तब यह देवत्व, शिवत्व को उपलब्ध करा देता है। यदि हम अपने ‘मन’ के मददगार बनते हैं तब यह स्थूल शरीर दानवत्व को उपलब्ध कराता है।

केवल अपने एवं अपने परिवार के सम्बन्ध में सोचना और करना ही एक दीन-हीन मनुष्य का लक्षण है। अपने एवं अपने परिवार के उदर भरण-पोषण या विकास के लिए समाज के धन की चोरी, कर लगाना ही दानवता है। मानवता का घोर विरोधी है। उसका तप हास्यास्पद है।

समाज की उन्नति के लिए राष्ट्र, मानवता के लिए अपने को लगा देना ही देवत्व है।

आप क्या हैं? स्वयं निर्णय करें। इस शरीर को स्वस्थ रखकर सूक्ष्म शरीर-कारण शरीर के विकास हेतु हमें निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना ही होगा। जो हमारा शिव नेत्र खोलने में सहायक हो।

 

प्रथम- आहार संयम

दूसरा- विहार संयम

तीसरा- प्राण संयम

चौथा- गुरु सान्निध्य

 

आहार संयम

भोजन सम्यक होना चाहिए। भोजन का प्रभाव मन और इन्द्रियों पर पड़ता है। अतएव हमें सात्विक भोजन धीरे-धीरे चबा-चबा कर करना चाहिए। हम जितना अधिक चबाएंगे उतना ही अधिक भोजन परिपाक होगा। जिससे भोजन में सलाइवा (Saliva) मिलता है। भोजन बिना प्रयास के पच जाता है। मल साफ होता है। शरीर की नाड़ियों पर तनाव नहीं आता है। मल के साफ होने से दुर्गन्ध नहीं आती है। इसी दुर्गन्ध से प्राण अपान दूषित होता है। इसके दूषित होने से मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। वह चंचल हो उठता है। बुरे भाव उत्पन्न करता है। फिर क्रोध, हिंसा का जन्म होता है।

अतएव जो साधक भोजन खूब चबा-चबा कर करता है, उनकी उपरोक्त समस्या स्वतः दूर हो जाती है। आहार संयम ही तप है। इसका भाव ज्ञाता-द्रष्टा तक जाता है। समय-समय पर उपवास भी जरूरी है। भोजन शरीर के अनुसार अल्प ही लेना उचित है।

साधक के लिए शरीर ही माध्यम है। अतएव शरीर को स्वस्थ, आलस्य से मुक्त रखना ही होगा।

आहार संयम से हम अपने भौतिक शरीर के कम्पनों का अनुमान लगा लेते हैं। फिर वही कम्पन अर्थात् तरंगें हमारे अन्दर भाव शरीर को तरंगित करती हैं। फिर भाव शरीर सूक्ष्म शरीर को, सूक्ष्म शरीर कारण शरीर को; हम इसी के माध्यम से कारण शरीर में पहुँच जाते हैं।

कारण शरीर में जन्मों-जन्मों का रोग-दुःख, सुख सभी कुछ दबे पड़े हैं। उसमें जाकर साधक उनको देख लेता है। वही रोग-दुःख धीरे-धीरे अवसर पाते ही बाहर आता है। जब वह हमारे स्थूल शरीर पर आता है, तब हमें दुःख होता है। परन्तु योगी जन उसे कारण शरीर में ही देख लेते हैं। कुछ योगी उसे वहीं निवारण भी कर लेते हैं। कुछ समय का इंतजार करते हैं। कुछ उसे शीघ्र ही बाहर निकालकर भोग लेना उचित समझते हैं। यह निर्भर है-योगी की मनोदशा पर।

आहार संयम इतनी बड़ी तपस्या है कि योगी स्थूल शरीर के कम्पनों से उठने वाली तरंगों को देखता है, जो शुभ्र चाँदी सी प्रतीत होती हैं। यही तरंग सूक्ष्म शरीर को धक्का मारती हैं। सूक्ष्म शरीर से ही हम कर्म करते हैं। सूक्ष्म से जो कम्पन की तरंगे निकलती हैं- उसका रंग स्वर्णमय होता है। किसी साधक को हम ध्यान में बैठे देखते हैं तब हमें उसकी आभा भी दिखाई पड़ती है। उसका वलय शुभ्र स्वर्णिम होता है। इसे देखने की विधि दिव्य गुप्त विज्ञान में बतायी जाती हैं।

योगी जैसे ही अपने कारण शरीर में कम्पन को देखता है- उसके भूत, वर्तमान, भविष्य सभी सामने होता है। कारण शरीर में जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी घटनाएँ न जाने कब की घट चुकी होती हैं। आज वैज्ञानिक भी इस शरीर पर अध्ययन कर रहे हैं। कारण शरीर के रोग की अभिव्यक्ति में समय लगता है।

आहार संयम से हमारे स्थूल शरीर के कम्पन का प्रभाव मन पर भी पड़ता है। जिससे वह निर्मल-स्वच्छ होता है। फिर ध्यान में एकाग्रता ग्रहण करता है। फिर हम कारण शरीर के कम्पनों को आसानी से देख लेते हैं।

साधक अन्त में ऐसी अवस्था को प्राप्त कर लेता है ‘जहाँ दृश्य एवं द्रष्टा- दोनों समाप्त हो जाता है। चैतन्य का सागर ज्योति पुंज रूप में प्रतीत होता है। वही है आत्मा |’ साधक आत्म साक्षात्कार कर लेता है।

 

विहार संयम

आहार संयम ही नींव है। उसी पर इमारत खड़ी है। यही कारण है कि जैन मुनि लोग आहार पर, उपवास पर विशेष ध्यान देते हैं। मगर यह उपवास अहंकार का भोजन नहीं बनना चाहिए। यह साधक का नितांत निजी मामला है। विहार अर्थात् हमारा आचरण। इन्द्रिय संयम। पाँचों इन्द्रियों को एक साथ मिलाकर रखना ही पांचजन्य शंख है। इनके नियमन से काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहं से हम स्वतः मुक्त हो जाते हैं। हमें किसी से अत्यन्त लगाव नहीं रखना चाहिए। अन्यथा हम उसके  बाह्य आकर्षण में फँस जाएंगे। उसके दुःख-सुख में हम भागीदार होने लगेंगे। किसी को मात्र साधना के रास्ते पर लाना ही उसका हित है। किसी के गृह मामले या उसके निजी मामले से साधक को अलग रखना ही होगा। अन्यथा आपके चिंतन का संतुलन बिगड़ जाएगा। फिर आपका चाल-चरित्र भी गिर सकता है। किसी को ध्यान, धारणा, भक्ति, सत्संग पर ही मार्ग दर्शन करें। आप हर समय अपना आदर्श गुरु-गोविन्द ही रखें। इससे विरत होने वालों से आप स्वयं हट जाएं। किसी की भी सांसारिक आवश्यकताएँ अपरिमित हैं। संसारी लोग दो पैसे में भगवान की हीरे की मूर्ति लेना चाहते हैं। अतएव आप उन्हें भक्ति की तरफ उन्मुख करें। सभी दुःखों का कारण है उनके द्वारा किया गया कर्म।

साधक अपने नाक, कान, जिह्ना, आँख को सम्यक रखे। अवसर पाते ही गुरु मूर्ति पर त्राटक करे। नाक पर सदैव ध्यान रखे दीर्घ श्वास ले। मंत्र युक्त श्वास ले। कान से आप सदैव अनाहद को सुनें। जिह्ना को आप खेचरी में लगाए रहें। किसी से अत्यन्त एकान्त वार्ता से दूर रहें। हो सके तो आप एकान्त में भी वार्ता बन्द कर गुरु मूर्ति पर त्राटक करें।

संसार का आकर्षण अपनी तरफ खींचता है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त है। वह आपको ऊर्ध्व गति नहीं दे सकता है। उसकी सारी सुन्दरता पृथ्वी अपने अन्दर दबा लेने अर्थात् आपकी ऊर्ध्वगामी ऊर्जा को निम्नगामी बनाने को ही उत्सुक है। जो अति सरल भी है।

 

प्राण संयम

प्राण ही योगी को पूर्णत्व प्राप्त कराता है। प्राण का प्रवाह जिस शरीर में प्रवाहित होता है, चेतना की ऊर्जा भी उसी दिशा में प्रवाहित होती है। फिर प्राण+चेतना दोनों आपस में मिलकर एक हो जाते हैं। प्राण शक्ति के विभिन्न रूप हैं। ये दस रूप में विभक्त हैं। लेकिन पाँच इन्द्रियों के साथ काम करने पर पँच प्राण हो जाते हैं। जब प्राण वाणी के साथ होता है, उस वाणी में जीवंतता आ जाती है। ओज आ जाता है। मन के साथ रहने से मनोबल बढ़ जाता है। जैसे ही यह श्वास के साथ सम्बन्ध करता है श्वास गतिशील हो जाता है। अर्थात् श्वास ही प्राण बन जाता है।

सच में श्वास प्राण को ढोता है। श्वास प्राण का वाहन है। इसी से इसे प्राणायाम कहा जाता है।

अतएव साधक से निवेदन है गुरु से प्राणायाम सीख ले। प्राण का संयम करें। आप जैसे ही दीक्षा ग्रहण करते हैं। आपको पांचजन्य शंख विधि एवं प्राण संचय की विधि प्रायोगिक स्तर पर प्रदान की जाती है। साथ ही आपके सहस्रार में दिव्यास्त्र देवास्त्र की स्थापना कर दी जाती है। जिससे आप कहीं भ्रम में न पड़ें।

आप सहज रूप से अपने श्वास पर मात्र ध्यान रखें। जो काम करते हैं, करते रहें। गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र का जाप श्वास स्वतः कर रहा है। आप उसके साथ गहराई में उतरें। उसके साथ बाहर आएं। उस श्वास से तारतम्य स्थापित कर लें। मन, प्राण और वाणी तीनों श्वास तंत्र से ही चैतन्य हैं। प्राण से सम्बन्ध स्वतः हो जाएगा। आप स्वयं प्राणवान बन जाएंगे। प्राण भी आपका शरीर स्वस्थ रखते हुए कारण शरीर के दृश्य को दिखाकर समाधि को उपलब्ध करा देगा।

 

गुरु सान्निध्य

उपरोक्त तीनों आपके वश में हैं। गुरु सान्निध्य परमात्मा की अनुकम्पा का फल है। यदि जबर्दस्ती गुरु के सान्निध्य में रह भी गए तो गुरु का आहार, व्यवहार, आचरण आपके मन के विपरीत दृष्टिगोचर होने लगता है। आप उनमें दोष देखने लगते हैं। गुरु में दोष देखते ही समझना चाहिए कि हमारा पतन प्रारम्भ हो गया या परमात्मा की कृपा हमसे छिन गई। यही कारण है कि सद्गुरु के सान्निध्य में रहने वाले साधारण साधक उनके आलोचक बन जाते हैं।

जिस साधक का आहार, व्यवहार, प्राण पर संयम हो गया है वह सकारात्मक हो गया है। उस पर प्रभु की अनुकम्पा की वर्षा होने लगी है; परमात्मा स्वतः उसे गुरु का सान्निध्य उपलब्ध करा देता है। गुरु जो कुछ करता है, साधक उसे लीला समझकर ग्रहण करता है। वह अपनी बुद्धि, मन को एक तरफ रख देता है। उनकी सेवा में ही समाधि का भाव करता है। फिर वह एकाएक समाधि में छलांग लगा देता है। गुरु भी अवसर पाते ही अपना सभी कुछ उस शिष्य में उडे़ल देता है। शिष्य तत्क्षण पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है। गुरु सान्निध्य में भक्ति चित्त अर्थात् स्त्रैण चित्त का साधक रह सकता है जो पूर्ण समर्पित हो। पूर्ण-समर्पण ही संन्यास है। संघर्ष ही संसार है। यह स्थिति भगवत अनुकम्पा का ही फल हो सकता है।

मेरी समझ में साधना सांसारिक युद्ध से भी गम्भीर युद्ध है। साधक को स्वयं से युद्ध करना पड़ता है। साधक जैसे ही साधना मार्ग पर गति करता है, वैसे ही ऋद्धि-सिद्धि वाक् वाणी इत्यादि सेवा में उपस्थित हो जाती हैं। स्वर्ण का रंग पीला होता है। शौच का रंग भी पीला होता है। अर्थात् स्वर्ण को हाथ का मैल एवं सिद्धि को शौच का मैल समझकर त्याग करना ही होगा। इनका स्थान भी मूलाधार चक्र अर्थात् शौच के ढेर के ऊपर दिया गया है। साधारण साधक जिसने जीवन भर स्वर्ण-सुन्दरी का दर्शन नहीं किया कैसे स्थिर रह जाएगा। यह राज-योग है। राजा के लिए ये मिट्टी तुल्य है। ऐसे ही समय में समर्थ गुरु की आवश्यकता होती है। जो साधक को इससे विरत करे।

साधक के कारण शरीर में जन्मों-जन्म की वृत्तियाँ, वासनाएँ दबी पड़ी हैं। वे ऐसे ही समय में तीव्र गति से उभरती हैं। वह स्थिति साधक के लिए अत्यन्त खतरनाक है। ये वृत्तियां किसी न किसी निमित्त का आश्रय लेकर ही उभरती हैं। उस उभरी हुई वृत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है। ये वृत्तियाँ साधक को साधना से भ्रष्ट अथवा च्युत करने का अपूर्व प्रयास करती हैं। उसके अनुरूप परिस्थिति सुविधा-सुख के साधन उपलब्ध करा देती हैं। उस क्षण गुरु की वाणी की अवज्ञा शिष्य कर देता है। सोचता है ऐसा करने से क्या होगा? कौन जानता है? मेरा व्यक्तिगत मामला है। गुरु को हर बात बताना एवं उनकी हर बात मानना जरूरी है क्या? वे भी तो ऐसा करते ही होंगे इत्यादि चित्तवृत्तियाँ उसके भ्रष्ट होने में समर्थन करती हैं। साधक के लिए यही क्षण जय-पराजय का होता है। जो साधक गुरु आज्ञा मानकर उन वृत्तियों की जड़ में पहुँच जाता है, उसको जड़ से ही उखाड़ देता है वे विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो उससे समझौता स्थापित कर च्युत हो जाता है, उसका तेज, पौरुष, तप तत्क्षण उड़ जाता है, लुप्त हो जाता है। वह हारे हुए जुआरी की तरह चारों खाने चित्त हो जाता है। कुछ तो अपनी गलती स्वीकार कर सही मार्ग पर पुनः चलने का संकल्प लेते हैं। गिरते-उठते एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेते हैं। कुछ गुरु की निंदा कर अपनी इज्जत को बचाकर एक किनारे हो जाते हैं फिर कहते हैं, हमें कुछ भी नहीं मिला।

 

सच्चा उदाहरण

मैं काल्पनिक लिखने या बोलने का आदी नहीं हूँ। जो सामने सत्य दृष्टिगोचर आता है, वही बोल या लिख देता हूँ। यह घटना सम्भवतः 2003 की है। मैं तीन शिष्यों के साथ हिमालय के केदारखण्ड पर ठहरा था। दो युवक थे। एक प्रौढ़ थे। वे मेरे अति नजदीकी हैं। अतएव नाम नहीं खोल सकता हूँ। शिष्य समुदाय में इसे जान ही जाएंगे। तीनों को अलग-अलग मंत्र एवं विधि बता दिया- तुम जाप करो। यहाँ सिद्धि प्राप्त कर लो। परन्तु इसका सदुपयोग करना। तीनों ने कसमें खाईं। मात्र पंद्रह दिन तपस्या की गई। हर समय कोहरा-वर्षा होती रहती। परन्तु जैसे मैं अपना कपड़ा साफ करने को कहता सभी उत्सुक हो जाते। मैंने एक दिन पूछा इसमें खुश होने की क्या बात है? तो वे बोले- गुरुदेव जब-जब आप केदारनाथ यात्रा को निकलते या अपना कपड़ा साफ करने को कहते, एकाएक कुहरा साफ हो जाता। धूप निकल आती है। हम लोगों ने कई बार परीक्षण किया है। मैंने कहा- ऐसा तो कभी सोचा नहीं यार। आज देखते हैं तुम लोगों का अनुभव। मेरे कपड़े के साथ अपना कपड़ा भी साफ करने लगे। दिन के लगभग ग्यारह बजे थे। दो-तीन दिन से घना कुहरा था। एकाएक कुहरा छंट गया। धूप निकल आई। संध्या पाँच बजे तक धूप थी। सभी कपड़े सूख गए। मैंने कहा- यह संयोग है। उन्होंने कहा नहीं गुरुदेव, हम लोग हर बार देखे हैं आपकी इच्छा उत्पन्न होते ही भगवान शिव पूरा कर देते हैं।

मैंने कहा- चलो मैं अब अपनी इच्छा ही नहीं करूंगा। तुम लोग तो प्रतिदिन कुछ माँगते हो। उसे सिद्ध कर लो तब हम यहाँ से अमुक दिन को लौटेंगे। तीनों पूर्ण मन से ध्यान जाप में लग गए। मैंने पंद्रह दिन पूरा किया ही था कि शिष्यों का दबाव पड़ा कि अब हम लोग लौट चलें। कृष्ण जन्माष्टमी भी वहीं मनाए थे। हम लोग दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिए। जैसे-जैसे गौरी कुण्ड से आगे निकलता गया, रास्ता साफ होता गया। सकुशल दिल्ली आ गया। फिर मैंने सुना कि गुरुदेव आप अपने शिष्यों को दिल्ली जिस दिन लौटाए हैं, उनके गाड़ी पार करते ही कई जगह पर्वत गिर गए। सभी यात्री जगह-जगह फँस गए हैं। आज बारह दिन हो गए, अभी तक केदारनाथ का मार्ग नहीं खुला है।

तीनों शिष्य अपने-अपने कार्य में लग गए। उनको देखकर हमारे ब्रह्मचारी संन्यासी शिष्य कहने लगे गुरुदेव क्या हो गया है? वे जो कहते, सोचते वही हो जाता। हम लोगों से ऐसा नहीं होता। मैंने कहा धैर्य रखो। सिद्धि तो मात्र एक दिन का काम है। पात्रता ग्रहण करो। एक दिन काफी है- एक क्षण ही उपयुक्त है।

दिन बीतने लगे। मैं चिंतित होने लगा। उन्हें दिशा निर्देश देता ऐसा मत करना। अमुक जगह मत जाना। अमुक से अपना सम्बन्ध नहीं रखना। परन्तु तीनों हमसे छिपाकर वही गलती किए। तीनों वासना के दलदल में फँस गए। तीनों लोकोपवाद के विषय बन गए। मैं मौन देखता रहा। एक दिन अपने संन्यासी महात्मा जी से पूछा क्या जी तुम्हें भी सिद्धि चाहिए? वे तुरन्त पैर पकड़ कर रोते हुए बोले- नहीं गुरुदेव नहीं! आप जो उचित समझें वही करें। मैंने देख ली इन लोगों की सिद्धि। मुझे बरबस बीच में पुनः आना पड़ा। तीनों ने भूल को स्वीकार किया। लेकिन वह सिद्धि तो वापस हो गई।

खैर ऐसी भूलें सर्वसाधारण में होती रहती हैं। जो साधक उस भूल को याद रखे, फिर गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर साधना के पथ पर निकल जाए तब वह एक न एक दिन उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेगा। आदमी भूल से ही सबक लेता है। ऐसी ही स्थिति में गुरु सान्निध्य की आवश्यकता होती है। उनकी बातों को पूर्णतः मानना पड़ता है। फिर वह साधक स्वयं सिद्ध हो ही जाता है।

 

****************

 

 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

SadGuru Dham 

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समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘शिवनेत्र’ से उद्धृत…

 

शिव नेत्र

 

हमारे ऋषि बार-बार कहते आ रहे हैं कि जो कुछ आप ब्रह्माण्ड में देख रहे हैं, देखना चाहते हैं वह सभी कुछ इस छोटे से पिण्ड में भी है। जो साधक अपने ही अन्दर देख लेता है, उसकी यात्रा बिना यात्रा प्रारम्भ किए ही पूर्ण हो जाती है। शिव संहिता में भगवान शिव कहते हैं-

‘जानाति यद सर्व मिदं योगी नास्त्यत्र संशयः|

ब्रह्माण्ड संज्ञेके देहे यथा देशं व्यवस्थितः||’

अर्थात् ब्रह्माण्ड संज्ञक देह में जिस प्रकार अनेक देशों की व्यवस्था है, उसे पूर्णतः जान लेने वाला ही योगी है। इस पिण्ड के अन्दर प्रवेश करने एवं उसके सम्बन्ध में जानने के लिए ही सद्गुरु की आवश्यकता है। चूंकि सारी चीज तो शास्त्रों में उपलब्ध है। फिर भी हम मात्र उसका पाठ करके या अध्ययन कर संतोष कर लेते हैं। पिण्ड को तीन रूपों में विभक्त कर सकते हैं।

प्रथम- हमारा बाहरी ढांचा अर्थात् रूप। इसे हम यंत्र कहते हैं।

दूसरा- इस पिण्ड अर्थात् शरीर के अन्दर की व्यवस्था कैसी है? इसके बारे में जानकारी प्राप्त करना है। अन्दरूनी व्यवस्था ही तंत्र है।

तीसरा- जिसके आधार पर हमारे अन्दर के अवयवों का निर्माण हुआ है। इस मानवी प्रज्ञा के पीछे भी गणितीय रहस्य छिपा है। वही है-मंत्र।

अध्यात्म में इसे ही आधिभौतिक, आधिवैदिक और आध्यात्मिक व्यवस्था कहते हैं। हम उसी व्यवस्था से संचालित होते हैं। उसकी अदृश्य दृष्टि हमारे चारों तरफ फैली है। तभी तो भगवान शिव कहते हैं- “भगवान ने मनुष्य के साढ़े तीन हाथ के शरीर में भूः, भव आदि सप्त लोकों तथा सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पर्वत, सागर, वृक्ष आदि सभी वस्तुओं को विधिवत् प्रतिफलित कर दिया है|”

इसी को कबीर साहब कहते हैं-

‘भीतर बाहर का एकैस लेखा।

जस बाहर तस भीतर देखा ||’

आगे कहते हैं-

‘सूर्य-चाँद दोउ पेवन लगे | गुरु प्रताप से सोवत जागे ||’

 

अनुभव एक ही है। अभिव्यक्ति की शब्द शैली अलग है। मूलाधार चक्र से सहस्रार तक पाताल से आकाश तक सात चक्र हैं। ये ही विभिन्न लोक हैं। जो इन लोकों, परलोकों के रहस्य को, इनके ऊपर स्थित देवी-देवता से मिल लेता है, वह बाहर के भी लोकों में परिचित की तरह पहुँच जाता है। वही देवी-देवता बाहर भी स्वागत करते हैं। इस साधक के लिए सारा पर्दा गिर जाता है। सारा रहस्य खुल जाता है। तभी तो वेदव्यास जी को कहना पड़ा- “न हि मानुषाछ्रेष्ठतरं हि किंचित |” अर्थात् मनुष्य से श्रेष्ठ इस संसार में कुछ भी नहीं है।

अध्यात्म अपने आप में पूर्ण विज्ञान है। इससे हम कुछ भी कर सकते हैं। पदार्थ विज्ञान व्यक्ति में अहंकार लाता है। साधन सुख की आकांक्षा पैदा करता है। जबकि अध्यात्म विज्ञान व्यक्ति को नैसर्गिक, निरहंकारी बनाता है। मानव से मानव को प्रेम का संदेश देता है। यह तथाकथित जाति लिंग, देश, राज्य, राष्ट्र से ऊपर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने में देखता है।

जैसे हम अपने पिण्ड से बाहर निकल कर ब्रह्माण्ड में पहुँचते हैं- देखते हैं असंख्य जुगनुओं के समान तारागण, असंख्य ग्रह पिण्ड। जैसे-जैसे हम ब्रह्माण्ड के रहस्य में प्रवेश करते हैं, वैसे ही हम अपने को वृहद् पाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है, हम सभी में हैं। सभी हम में हैं। अज्ञात आकर्षण की तरफ ऊपर उठते जाते हैं। एक स्थिति ऐसी आती है जहाँ हम समाप्त हो जाते हैं। समस्त सृष्टि का रहस्य खुल जाता है।

परम पुरुष, परम ज्योति अलख पुरुष ही है जिससे सभी प्रकाशित होते हैं। उसी के स्वयं स्फूर्ति से ही अनेक ब्रह्माण्डों की सृष्टि हुई है। यह सभी कुछ सम्भव है साधक के लिए। असम्भव है कुतार्किक के लिए। हम रात-दिन परिश्रम करते हैं झूठी पद-प्रतिष्ठा के लिए। मेरी सबसे बड़ी चिंता है- ‘इस रहस्य को कोई नहीं जानना चाहता। जिसे जनाना चाहता हूँ; वह जाने-अनजाने लात चलाता है। अपनी क्षुद्र आकांक्षा की पूर्ति हेतु बुरा-भला कहने लगता है।’’

 

इस विश्व ब्रह्माण्ड को जानने के लिए शिव को जानना होगा। विश्व का पहला ‘व’ शब्द लोप होते ही शिव का दिग्दर्शन हो जाता है। ‘व’ ही जीवात्मा को बाह्य जगत से जोड़ता है। शिव से अलग करता है या आप एवं शिव के मध्य ‘व’ ही दिवाल बना है। यही बवंडर खड़ा किया है। दिवाल से भी ‘व’ निकाल देने पर दिल बचता है। दिल ही प्रेम का प्रतीक है। प्रेम ही शिव है। वस्तु का रचयिता भी, वस्तु का वर्द्धन कर्तापन का जनक भी यही है। शिव का ही विस्तार सृष्टि है। आपकी आँखें बाध्य कर रही हैं बाहर देखने के लिए। जैसे ही आपकी दृष्टि की धारा अन्तर की तरफ प्रवाहित होने लगती है। आपका त्रिनेत्र खुल जाता है। फिर आप शिव को साकार कर लेते हैं। यही है शिव नेत्र | आप ही शिवत्व को उपलब्ध हो जाते हैं। आपका तृतीय नेत्र खुल जाता है। सारे जगत से पर्दा हट जाता है।

इसके लिए हमारा स्थूल शरीर बहुत सहायक है। इस स्थूल शरीर को भी हमारी मदद की आवश्यकता है। यदि हम ठीक से मदद करते हैं तब यह देवत्व, शिवत्व को उपलब्ध करा देता है। यदि हम अपने ‘मन’ के मददगार बनते हैं तब यह स्थूल शरीर दानवत्व को उपलब्ध कराता है।

केवल अपने एवं अपने परिवार के सम्बन्ध में सोचना और करना ही एक दीन-हीन मनुष्य का लक्षण है। अपने एवं अपने परिवार के उदर भरण-पोषण या विकास के लिए समाज के धन की चोरी, कर लगाना ही दानवता है। मानवता का घोर विरोधी है। उसका तप हास्यास्पद है।

समाज की उन्नति के लिए राष्ट्र, मानवता के लिए अपने को लगा देना ही देवत्व है।

आप क्या हैं? स्वयं निर्णय करें। इस शरीर को स्वस्थ रखकर सूक्ष्म शरीर-कारण शरीर के विकास हेतु हमें निम्न बिन्दुओं पर ध्यान देना ही होगा। जो हमारा शिव नेत्र खोलने में सहायक हो।

 

प्रथम- आहार संयम

दूसरा- विहार संयम

तीसरा- प्राण संयम

चौथा- गुरु सान्निध्य

 

आहार संयम

भोजन सम्यक होना चाहिए। भोजन का प्रभाव मन और इन्द्रियों पर पड़ता है। अतएव हमें सात्विक भोजन धीरे-धीरे चबा-चबा कर करना चाहिए। हम जितना अधिक चबाएंगे उतना ही अधिक भोजन परिपाक होगा। जिससे भोजन में सलाइवा (Saliva) मिलता है। भोजन बिना प्रयास के पच जाता है। मल साफ होता है। शरीर की नाड़ियों पर तनाव नहीं आता है। मल के साफ होने से दुर्गन्ध नहीं आती है। इसी दुर्गन्ध से प्राण अपान दूषित होता है। इसके दूषित होने से मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। वह चंचल हो उठता है। बुरे भाव उत्पन्न करता है। फिर क्रोध, हिंसा का जन्म होता है।

अतएव जो साधक भोजन खूब चबा-चबा कर करता है, उनकी उपरोक्त समस्या स्वतः दूर हो जाती है। आहार संयम ही तप है। इसका भाव ज्ञाता-द्रष्टा तक जाता है। समय-समय पर उपवास भी जरूरी है। भोजन शरीर के अनुसार अल्प ही लेना उचित है।

साधक के लिए शरीर ही माध्यम है। अतएव शरीर को स्वस्थ, आलस्य से मुक्त रखना ही होगा।

आहार संयम से हम अपने भौतिक शरीर के कम्पनों का अनुमान लगा लेते हैं। फिर वही कम्पन अर्थात् तरंगें हमारे अन्दर भाव शरीर को तरंगित करती हैं। फिर भाव शरीर सूक्ष्म शरीर को, सूक्ष्म शरीर कारण शरीर को; हम इसी के माध्यम से कारण शरीर में पहुँच जाते हैं।

कारण शरीर में जन्मों-जन्मों का रोग-दुःख, सुख सभी कुछ दबे पड़े हैं। उसमें जाकर साधक उनको देख लेता है। वही रोग-दुःख धीरे-धीरे अवसर पाते ही बाहर आता है। जब वह हमारे स्थूल शरीर पर आता है, तब हमें दुःख होता है। परन्तु योगी जन उसे कारण शरीर में ही देख लेते हैं। कुछ योगी उसे वहीं निवारण भी कर लेते हैं। कुछ समय का इंतजार करते हैं। कुछ उसे शीघ्र ही बाहर निकालकर भोग लेना उचित समझते हैं। यह निर्भर है-योगी की मनोदशा पर।

आहार संयम इतनी बड़ी तपस्या है कि योगी स्थूल शरीर के कम्पनों से उठने वाली तरंगों को देखता है, जो शुभ्र चाँदी सी प्रतीत होती हैं। यही तरंग सूक्ष्म शरीर को धक्का मारती हैं। सूक्ष्म शरीर से ही हम कर्म करते हैं। सूक्ष्म से जो कम्पन की तरंगे निकलती हैं- उसका रंग स्वर्णमय होता है। किसी साधक को हम ध्यान में बैठे देखते हैं तब हमें उसकी आभा भी दिखाई पड़ती है। उसका वलय शुभ्र स्वर्णिम होता है। इसे देखने की विधि दिव्य गुप्त विज्ञान में बतायी जाती हैं।

योगी जैसे ही अपने कारण शरीर में कम्पन को देखता है- उसके भूत, वर्तमान, भविष्य सभी सामने होता है। कारण शरीर में जन्म से लेकर मृत्यु तक की सारी घटनाएँ न जाने कब की घट चुकी होती हैं। आज वैज्ञानिक भी इस शरीर पर अध्ययन कर रहे हैं। कारण शरीर के रोग की अभिव्यक्ति में समय लगता है।

आहार संयम से हमारे स्थूल शरीर के कम्पन का प्रभाव मन पर भी पड़ता है। जिससे वह निर्मल-स्वच्छ होता है। फिर ध्यान में एकाग्रता ग्रहण करता है। फिर हम कारण शरीर के कम्पनों को आसानी से देख लेते हैं।

साधक अन्त में ऐसी अवस्था को प्राप्त कर लेता है ‘जहाँ दृश्य एवं द्रष्टा- दोनों समाप्त हो जाता है। चैतन्य का सागर ज्योति पुंज रूप में प्रतीत होता है। वही है आत्मा |’ साधक आत्म साक्षात्कार कर लेता है।

 

विहार संयम

आहार संयम ही नींव है। उसी पर इमारत खड़ी है। यही कारण है कि जैन मुनि लोग आहार पर, उपवास पर विशेष ध्यान देते हैं। मगर यह उपवास अहंकार का भोजन नहीं बनना चाहिए। यह साधक का नितांत निजी मामला है। विहार अर्थात् हमारा आचरण। इन्द्रिय संयम। पाँचों इन्द्रियों को एक साथ मिलाकर रखना ही पांचजन्य शंख है। इनके नियमन से काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहं से हम स्वतः मुक्त हो जाते हैं। हमें किसी से अत्यन्त लगाव नहीं रखना चाहिए। अन्यथा हम उसके  बाह्य आकर्षण में फँस जाएंगे। उसके दुःख-सुख में हम भागीदार होने लगेंगे। किसी को मात्र साधना के रास्ते पर लाना ही उसका हित है। किसी के गृह मामले या उसके निजी मामले से साधक को अलग रखना ही होगा। अन्यथा आपके चिंतन का संतुलन बिगड़ जाएगा। फिर आपका चाल-चरित्र भी गिर सकता है। किसी को ध्यान, धारणा, भक्ति, सत्संग पर ही मार्ग दर्शन करें। आप हर समय अपना आदर्श गुरु-गोविन्द ही रखें। इससे विरत होने वालों से आप स्वयं हट जाएं। किसी की भी सांसारिक आवश्यकताएँ अपरिमित हैं। संसारी लोग दो पैसे में भगवान की हीरे की मूर्ति लेना चाहते हैं। अतएव आप उन्हें भक्ति की तरफ उन्मुख करें। सभी दुःखों का कारण है उनके द्वारा किया गया कर्म।

साधक अपने नाक, कान, जिह्ना, आँख को सम्यक रखे। अवसर पाते ही गुरु मूर्ति पर त्राटक करे। नाक पर सदैव ध्यान रखे दीर्घ श्वास ले। मंत्र युक्त श्वास ले। कान से आप सदैव अनाहद को सुनें। जिह्ना को आप खेचरी में लगाए रहें। किसी से अत्यन्त एकान्त वार्ता से दूर रहें। हो सके तो आप एकान्त में भी वार्ता बन्द कर गुरु मूर्ति पर त्राटक करें।

संसार का आकर्षण अपनी तरफ खींचता है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त है। वह आपको ऊर्ध्व गति नहीं दे सकता है। उसकी सारी सुन्दरता पृथ्वी अपने अन्दर दबा लेने अर्थात् आपकी ऊर्ध्वगामी ऊर्जा को निम्नगामी बनाने को ही उत्सुक है। जो अति सरल भी है।

 

प्राण संयम

प्राण ही योगी को पूर्णत्व प्राप्त कराता है। प्राण का प्रवाह जिस शरीर में प्रवाहित होता है, चेतना की ऊर्जा भी उसी दिशा में प्रवाहित होती है। फिर प्राण+चेतना दोनों आपस में मिलकर एक हो जाते हैं। प्राण शक्ति के विभिन्न रूप हैं। ये दस रूप में विभक्त हैं। लेकिन पाँच इन्द्रियों के साथ काम करने पर पँच प्राण हो जाते हैं। जब प्राण वाणी के साथ होता है, उस वाणी में जीवंतता आ जाती है। ओज आ जाता है। मन के साथ रहने से मनोबल बढ़ जाता है। जैसे ही यह श्वास के साथ सम्बन्ध करता है श्वास गतिशील हो जाता है। अर्थात् श्वास ही प्राण बन जाता है।

सच में श्वास प्राण को ढोता है। श्वास प्राण का वाहन है। इसी से इसे प्राणायाम कहा जाता है।

अतएव साधक से निवेदन है गुरु से प्राणायाम सीख ले। प्राण का संयम करें। आप जैसे ही दीक्षा ग्रहण करते हैं। आपको पांचजन्य शंख विधि एवं प्राण संचय की विधि प्रायोगिक स्तर पर प्रदान की जाती है। साथ ही आपके सहस्रार में दिव्यास्त्र देवास्त्र की स्थापना कर दी जाती है। जिससे आप कहीं भ्रम में न पड़ें।

आप सहज रूप से अपने श्वास पर मात्र ध्यान रखें। जो काम करते हैं, करते रहें। गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र का जाप श्वास स्वतः कर रहा है। आप उसके साथ गहराई में उतरें। उसके साथ बाहर आएं। उस श्वास से तारतम्य स्थापित कर लें। मन, प्राण और वाणी तीनों श्वास तंत्र से ही चैतन्य हैं। प्राण से सम्बन्ध स्वतः हो जाएगा। आप स्वयं प्राणवान बन जाएंगे। प्राण भी आपका शरीर स्वस्थ रखते हुए कारण शरीर के दृश्य को दिखाकर समाधि को उपलब्ध करा देगा।

 

गुरु सान्निध्य

उपरोक्त तीनों आपके वश में हैं। गुरु सान्निध्य परमात्मा की अनुकम्पा का फल है। यदि जबर्दस्ती गुरु के सान्निध्य में रह भी गए तो गुरु का आहार, व्यवहार, आचरण आपके मन के विपरीत दृष्टिगोचर होने लगता है। आप उनमें दोष देखने लगते हैं। गुरु में दोष देखते ही समझना चाहिए कि हमारा पतन प्रारम्भ हो गया या परमात्मा की कृपा हमसे छिन गई। यही कारण है कि सद्गुरु के सान्निध्य में रहने वाले साधारण साधक उनके आलोचक बन जाते हैं।

जिस साधक का आहार, व्यवहार, प्राण पर संयम हो गया है वह सकारात्मक हो गया है। उस पर प्रभु की अनुकम्पा की वर्षा होने लगी है; परमात्मा स्वतः उसे गुरु का सान्निध्य उपलब्ध करा देता है। गुरु जो कुछ करता है, साधक उसे लीला समझकर ग्रहण करता है। वह अपनी बुद्धि, मन को एक तरफ रख देता है। उनकी सेवा में ही समाधि का भाव करता है। फिर वह एकाएक समाधि में छलांग लगा देता है। गुरु भी अवसर पाते ही अपना सभी कुछ उस शिष्य में उडे़ल देता है। शिष्य तत्क्षण पूर्णत्व को प्राप्त कर लेता है। गुरु सान्निध्य में भक्ति चित्त अर्थात् स्त्रैण चित्त का साधक रह सकता है जो पूर्ण समर्पित हो। पूर्ण-समर्पण ही संन्यास है। संघर्ष ही संसार है। यह स्थिति भगवत अनुकम्पा का ही फल हो सकता है।

मेरी समझ में साधना सांसारिक युद्ध से भी गम्भीर युद्ध है। साधक को स्वयं से युद्ध करना पड़ता है। साधक जैसे ही साधना मार्ग पर गति करता है, वैसे ही ऋद्धि-सिद्धि वाक् वाणी इत्यादि सेवा में उपस्थित हो जाती हैं। स्वर्ण का रंग पीला होता है। शौच का रंग भी पीला होता है। अर्थात् स्वर्ण को हाथ का मैल एवं सिद्धि को शौच का मैल समझकर त्याग करना ही होगा। इनका स्थान भी मूलाधार चक्र अर्थात् शौच के ढेर के ऊपर दिया गया है। साधारण साधक जिसने जीवन भर स्वर्ण-सुन्दरी का दर्शन नहीं किया कैसे स्थिर रह जाएगा। यह राज-योग है। राजा के लिए ये मिट्टी तुल्य है। ऐसे ही समय में समर्थ गुरु की आवश्यकता होती है। जो साधक को इससे विरत करे।

साधक के कारण शरीर में जन्मों-जन्म की वृत्तियाँ, वासनाएँ दबी पड़ी हैं। वे ऐसे ही समय में तीव्र गति से उभरती हैं। वह स्थिति साधक के लिए अत्यन्त खतरनाक है। ये वृत्तियां किसी न किसी निमित्त का आश्रय लेकर ही उभरती हैं। उस उभरी हुई वृत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है। ये वृत्तियाँ साधक को साधना से भ्रष्ट अथवा च्युत करने का अपूर्व प्रयास करती हैं। उसके अनुरूप परिस्थिति सुविधा-सुख के साधन उपलब्ध करा देती हैं। उस क्षण गुरु की वाणी की अवज्ञा शिष्य कर देता है। सोचता है ऐसा करने से क्या होगा? कौन जानता है? मेरा व्यक्तिगत मामला है। गुरु को हर बात बताना एवं उनकी हर बात मानना जरूरी है क्या? वे भी तो ऐसा करते ही होंगे इत्यादि चित्तवृत्तियाँ उसके भ्रष्ट होने में समर्थन करती हैं। साधक के लिए यही क्षण जय-पराजय का होता है। जो साधक गुरु आज्ञा मानकर उन वृत्तियों की जड़ में पहुँच जाता है, उसको जड़ से ही उखाड़ देता है वे विजय प्राप्त कर लेते हैं। जो उससे समझौता स्थापित कर च्युत हो जाता है, उसका तेज, पौरुष, तप तत्क्षण उड़ जाता है, लुप्त हो जाता है। वह हारे हुए जुआरी की तरह चारों खाने चित्त हो जाता है। कुछ तो अपनी गलती स्वीकार कर सही मार्ग पर पुनः चलने का संकल्प लेते हैं। गिरते-उठते एक दिन अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेते हैं। कुछ गुरु की निंदा कर अपनी इज्जत को बचाकर एक किनारे हो जाते हैं फिर कहते हैं, हमें कुछ भी नहीं मिला।

 

सच्चा उदाहरण

मैं काल्पनिक लिखने या बोलने का आदी नहीं हूँ। जो सामने सत्य दृष्टिगोचर आता है, वही बोल या लिख देता हूँ। यह घटना सम्भवतः 2003 की है। मैं तीन शिष्यों के साथ हिमालय के केदारखण्ड पर ठहरा था। दो युवक थे। एक प्रौढ़ थे। वे मेरे अति नजदीकी हैं। अतएव नाम नहीं खोल सकता हूँ। शिष्य समुदाय में इसे जान ही जाएंगे। तीनों को अलग-अलग मंत्र एवं विधि बता दिया- तुम जाप करो। यहाँ सिद्धि प्राप्त कर लो। परन्तु इसका सदुपयोग करना। तीनों ने कसमें खाईं। मात्र पंद्रह दिन तपस्या की गई। हर समय कोहरा-वर्षा होती रहती। परन्तु जैसे मैं अपना कपड़ा साफ करने को कहता सभी उत्सुक हो जाते। मैंने एक दिन पूछा इसमें खुश होने की क्या बात है? तो वे बोले- गुरुदेव जब-जब आप केदारनाथ यात्रा को निकलते या अपना कपड़ा साफ करने को कहते, एकाएक कुहरा साफ हो जाता। धूप निकल आती है। हम लोगों ने कई बार परीक्षण किया है। मैंने कहा- ऐसा तो कभी सोचा नहीं यार। आज देखते हैं तुम लोगों का अनुभव। मेरे कपड़े के साथ अपना कपड़ा भी साफ करने लगे। दिन के लगभग ग्यारह बजे थे। दो-तीन दिन से घना कुहरा था। एकाएक कुहरा छंट गया। धूप निकल आई। संध्या पाँच बजे तक धूप थी। सभी कपड़े सूख गए। मैंने कहा- यह संयोग है। उन्होंने कहा नहीं गुरुदेव, हम लोग हर बार देखे हैं आपकी इच्छा उत्पन्न होते ही भगवान शिव पूरा कर देते हैं।

मैंने कहा- चलो मैं अब अपनी इच्छा ही नहीं करूंगा। तुम लोग तो प्रतिदिन कुछ माँगते हो। उसे सिद्ध कर लो तब हम यहाँ से अमुक दिन को लौटेंगे। तीनों पूर्ण मन से ध्यान जाप में लग गए। मैंने पंद्रह दिन पूरा किया ही था कि शिष्यों का दबाव पड़ा कि अब हम लोग लौट चलें। कृष्ण जन्माष्टमी भी वहीं मनाए थे। हम लोग दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिए। जैसे-जैसे गौरी कुण्ड से आगे निकलता गया, रास्ता साफ होता गया। सकुशल दिल्ली आ गया। फिर मैंने सुना कि गुरुदेव आप अपने शिष्यों को दिल्ली जिस दिन लौटाए हैं, उनके गाड़ी पार करते ही कई जगह पर्वत गिर गए। सभी यात्री जगह-जगह फँस गए हैं। आज बारह दिन हो गए, अभी तक केदारनाथ का मार्ग नहीं खुला है।

तीनों शिष्य अपने-अपने कार्य में लग गए। उनको देखकर हमारे ब्रह्मचारी संन्यासी शिष्य कहने लगे गुरुदेव क्या हो गया है? वे जो कहते, सोचते वही हो जाता। हम लोगों से ऐसा नहीं होता। मैंने कहा धैर्य रखो। सिद्धि तो मात्र एक दिन का काम है। पात्रता ग्रहण करो। एक दिन काफी है- एक क्षण ही उपयुक्त है।

दिन बीतने लगे। मैं चिंतित होने लगा। उन्हें दिशा निर्देश देता ऐसा मत करना। अमुक जगह मत जाना। अमुक से अपना सम्बन्ध नहीं रखना। परन्तु तीनों हमसे छिपाकर वही गलती किए। तीनों वासना के दलदल में फँस गए। तीनों लोकोपवाद के विषय बन गए। मैं मौन देखता रहा। एक दिन अपने संन्यासी महात्मा जी से पूछा क्या जी तुम्हें भी सिद्धि चाहिए? वे तुरन्त पैर पकड़ कर रोते हुए बोले- नहीं गुरुदेव नहीं! आप जो उचित समझें वही करें। मैंने देख ली इन लोगों की सिद्धि। मुझे बरबस बीच में पुनः आना पड़ा। तीनों ने भूल को स्वीकार किया। लेकिन वह सिद्धि तो वापस हो गई।

खैर ऐसी भूलें सर्वसाधारण में होती रहती हैं। जो साधक उस भूल को याद रखे, फिर गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर साधना के पथ पर निकल जाए तब वह एक न एक दिन उच्चतम लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेगा। आदमी भूल से ही सबक लेता है। ऐसी ही स्थिति में गुरु सान्निध्य की आवश्यकता होती है। उनकी बातों को पूर्णतः मानना पड़ता है। फिर वह साधक स्वयं सिद्ध हो ही जाता है।

 

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‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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