
जब लिखती हूं
जब लिखती हूं
मैं जब लिखती हूं,
खुश रहती हूं।
अपनों को पास पाती हूं,
वो कहते, मैं सुनती हूं,
कुछ अपनी भी सुनाती हूं।
जो कोई ना मिले,
अपने में गुनगुनाती हूं ।
कुछ ऐसे भी मिल जाते,
जिसे संबोधित हो जाती हूं।
अपनी पुरानी कहानियों को पढ़,
मैं खुद ही खुश हो जाती हूं।
शब्दों के इन लहरों में,
मैं तैरने लग जाती हूं।
जिनकी कहानी अपनी सी लगती है,
उनसे उम्र भर की दोस्ती कर जाती हूं ।
जसबात कई है, विश्वास नई है,
एक नई जीवन की, शुरुआत यहीं है।
जब लिखती हूं,
खुश रहती हूं।
रचयिता,
स्वेता गुप्ता
Comments (0)
Please login to share your comments.