
विचारों की बारिशें
विचारों की बारिशें
कल शाम मैं बैठी थी अपने कमरे में,
आंखें बंद, हाथों को मोड़े, एकांत में बैठीं थीं,
लगा बारिश हो रही हैं, ये सोच आंखें खोल दीं थी मैंने,
उस कमरे में, मेरे विचारों की बारिशें हो रही थी।
लंबे अर्से से, बहुत कुछ रोक रखा था मैंने,
जमा होते-होते आज ये बारिश बन मुझ पर बरस पड़ी थीं।
खुदको बचाने की कोशिश में, नए विचारों की छतरी निकालीं मैंने,
मगर बेचारी छतरी उस बारिश को संभाल नहीं पा रही थी।
आखिर कब तक इन विचारों के बारिशों से खुदको बचाती मैं,
आज नहीं तो कल, ये दोबारा इक्ट्ठा होती और मुझपर बरस्ती।
फिर बहुत हिम्मत जुटाकर ये तय किया मैंने,
आज भीग हीं लेती हूं इन विचारों के बारिशों में।
कोई नहीं हैं बचता फिर इससे क्यों हैं डरना,
इनमें भीग-कर, यही तो हैं अनुभव करना।
तो विचारों के बारिशों में भीगते रहो,
हर-पल नया अनुभव करते रहो।
रचयिता,
स्वेता गुप्ता
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