
आखिर मिला क्या ?

आखिर मिला क्या ?
बारूदों का कुहरा सा है
भयावह सा सन्नाटा पसरा है ।
रह रह कर आती,
गोलियों की आवाजें
जाने वक्त कहाँ आ ठहरा है।
आग है , धुआँ हैं,
लाशें हैं, मातम है ।
भारी भारी सी साँसे हैं
बेचैनी का आलम है ।
खुशनुमा थीं शहर की गलियां
सड़कें भी न थीं वीरान कभी।
चहलपहल भरी दुकानों में
खुशियां बसती थीं मकानों में
गलियां यूँ न थीं सुनसान कभी।
बंद दरवाजों के भीतर
सहमा सहमा सा बचपन
डर से भीचीं हुई पलकें
कानों को कस कर बंद करे
कमरों में छुपा बचपन।
जिन नन्हें कदमों ने अभी
खुद चौखट देखी भी नहीं
ये दौर वो देख रहा है
किसी ने बडी़ हसरत से
बनाया जो आशियाना
वो उसे ,खंडहर होते देख रहा है ।
आखिर मिला क्या
इस तबाही के सिवा
बेगुनाहों की लाशें
कई सवाल पूछती हैं।
घर से बेघर भागते फिरते
मासूम बेचारे
रोती बिलखतीआँखें भी
आह छोड़ती हैं ।
दिल दहला देती हैं तसवीरें भी
कितनी जिदंगियां मर -मर के
वहीं जी रही हैं।
खुदा ने बनाई जमीं
सरहदें बाँट लीं इंसान ने
तरक्की की चाह में
बडी़ कीमतें चुकाई इंसान ने ।
मीनू यतिन
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