
जिंदगी के तार
जिंदगी के तार
कमरे में उलझी तारों को देख
लगा, क्या जिंदगी भी यूँ उलझी
हुई है।
बिखरे तार,
एक दूसरे में लिपटे,
प्रेम का जाल या फिर
विचारों का टकराव,
कभी एक दूसरे के खींचतान
में रगड़ खाती है,
कभी टूट जाती है,
कभी बिगड़ जाती है।
जिंदगी के तार, कुछ अपने
कुछ अपनों के,
आपस में यूंही रगड़ खाते है,
अगर संभाल सको तो,
रोजमर्रा की जिंदगी की गाड़ी
चलती रहती है,
अन्यथा रिश्ते बिगड़ जाते हैं।
तारों की यह कहानी
घर घर की कहानी है।
सभी ऐसे तारों में
उलझे रहते है,
कहता कोई नहीं
सब चुप रहते है।
बस, सब चुप रहते है।
रचयिता
दिनेश कुमार सिंह

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