
मैं खुश रहने लगी
मैं खुश रहने लगी
ना जाने क्या बात हुई,
मैं खुश रहने लगी।
आजकल बीन वजह मैं मुस्कुराने लगी,
जिंदगी तो अच्छी ही जी है मैंने,
ये बात मुझे समझ आने लगी।
जब रिश्ते टूटें, साथ छूटा,
तब दुख से मैं खुदको भरने लगी।
एक दिन मैं खुदसे पूछ पड़ी,
आखिर मैं ही क्यों, ये सब अनुभव करने लगी।
क्यों किसी का भी साथ नहीं आगे जाता है,
इसी सोच में डूबी, केषव से कहने लगी।
क्या तुम मेरा साथ निभाओगे?
बस यही सोच मैं खुश रहने लगी।
केषव का एहसास मुझे होने लगा है,
ये सब मैं हर पल महसूस करने लगी।
अब हर घटनाओं में खुशी ढूंढ ही लेती हूं,
अब यही बात मैं सबसे कह लेती हूं।
अच्छा या बुरा तो सिर्फ दिमाग़ी उपज है ,
इसी बात का बोध मुझे अब होने लगी।
अब तेज़ धूप हो, या बारिश,
मैं हर मौसम का लुफ्त उठाने लगी।
मुश्किल दौर हो, या पुरानी यादें,
उन सब से मैं खुदको अलग करने लगी।
एक वक्त था जब खुदको लाचार, बेबस समझती थी मैं,
केषव के आने से, खुदमें मजबूती आने लगी।
हो मन का शोर या वन में मोर,
ना जाने क्यों मैं खुश रहने लगी।
रचयिता,
स्वेता गुप्ता
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