उल्टा नाम का ध्यान

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19 Jul 20248 min read

Published in spiritualism

‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्तिदाता’ से उद्धृत…

 

उल्टा नाम का ध्यान

वाल्मीकि की रामायण में कथा आती है- रत्नाकर डाकू को नारद जी ने उलटा नाम जपने को कहा। पर उसे जपना नहीं आया। तब नारद जी ने उसको अभ्यास कराया। यह अभ्यास उच्चारण का नहीं था, वरन् स्फोट का था। वह प्रणव का स्फोट ही था। यह आसान नहीं है।

गीता के पंचम अध्याय के सत्ताइसवें मंत्र की अर्धाली में इस विधि का विवेचन है- ‘प्राणापानो समौकृत्वा नासाभ्यंतरचारिणौ |’

‘ओंकार’ के बारे में पंडितों ने अनेक भ्रान्तियाँ दे दी हैं। उन्हीं का प्रचार कर दिया है। कह दिया कि प्रणव का उच्चारण होता है। आगे कहा कि ‘ओम्’ या ‘ओऽम्’ की तरह। जबकि ये दोनों ही वर्णनात्मक उच्चारण हैं। इनमें तीन-तीन वर्ण साफ दिख रहे हैं। इसे एकाक्षर स्फोट कैसे कहा जा सकता है। वैष्णवों ने तो यहाँ तक प्रचार कर दिया कि उलटा नाम – अर्थात् ‘राम’ सीधा है, ‘मरा’ उलटा हुआ। ऐसी बेवकूपफी की गई, पर आज तक मरा-मरा का जप किसी ने नहीं किया। यह मानने की बात नहीं है कि जो अपने नाम ‘रत्नाकर’ का उच्चारण कर सकता था, वह ‘राम’ नहीं कह पाता था। गीताकार ने स्पष्ट कहा कि प्राण और अपान को सम करके, नासा के अभ्यंतर से उसका चरणा यानि स्फोट कराया जाए।

तीन शब्द समझने को हैं नासा, नासिका और नाक। नाक की हड्डी को नासा कहते हैं। आगे के भाग को नासिका और छिद्रों को नाक कहा जाता है। नासा में ब्रह्मनाड़ी यानि सुषुम्ना है। इंगला-पिंगला के मार्ग को नासिका कहते हैं। नासाग्र के अर्थ में भी लोग भ्रमित हैं। नासा का अग्रभाग नासा में होगा, न कि नासिका में। पर प्रायः लोग नासिका के ठोठ को अग्र बता देते हैं। इसी भ्रम के कारण लोगों को प्राणायाम सिद्ध नहीं होता है। ये भ्रमित लोग नासिका के दायां-बायां छिद्र को, नाक को ही रूँधते रहते हैं।

कबीर साहब ने स्पष्ट कहा है- ‘नाक ना रुँधू’ और गीताकार ने कहा है ‘नासाभ्यंतरचारिणौ’। नासाभ्यंतर का अर्थ नासिका के आगे कैसे कह लेते हैं लोग? तो प्रणवोच्चार समझाना असंभव है। इसका अभ्यास ही कराया जा सकता है। अगर बात आसान होती तो नारद जैसे गुरु और आदि-कवि वाल्मीकि जैसे शिष्य के लिए कठिनाई क्यों होती? यहाँ जरूर कोई गहरी बात है। पर लोग तो स्वयं को वाल्मीकि से भी तेज-तर्रार और नारद से भी गुरु-गंभीर बनकर, मिनटों में सीख जाते हैं। ऐसा धोखा नहीं होना चाहिए। सत्य की खोज इतनी आसान नहीं है। वैष्णवों में लाल बुझक्कड़ों की कमी नहीं है- फट से कह दिया कि वह नाम तो ‘राम’ है और कबीर साहब ने कहा कि ‘राम नाम का मरम है आना’ तो वह मर्म क्या है? यही तो जानना है। जबकि ‘ॐ’ एकाक्षर ब्रह्म है।

विनय पूर्वक एक प्रार्थना कर देना मैं उचित समझता हूँ- एक कहावत है- जो बिच्छू का भी मंत्र न जानता हो, उसे सांप के बिल में हाथ नहीं लगाना चाहिए। बहुत मजाक किया गया, संस्कृति से। प्रणव-साधना वही दे, जिसने अपने गुरु से सीखा है या जिसने स्वर-विज्ञान का अभ्यास किया है। कहीं सुनकर या देखकर प्रणव सिखाने या सीखने लगना अपरिणामी होगा। तो वही कहावत होगी- ‘नाच न आवे आंगन टेढ़ा |’ कुशल वागेयकार ही प्रणव साधना देने का अधिकारी है -संगीतज्ञ नहीं। नाद-ब्रह्म-साधना उसे ही दी जाती है, जिसने एकाग्रता साध ली है।

वैसे कोई नादान भी बांसुरी में फूँक मारेगा, अपनी बेतरतीब उंगलियाँ छिद्रों पर फेरेगा तो कोलाहल होगा ही, संगीत नहीं उठेगा। उसी प्रकार स्वर-योग का अभ्यास किए बिना भी कोई अटपटा उच्चारण थमाया जाना आसान है- यह कोई एक दिन का गुरु भी कर सकता है। पर यह आपराधिक कृत्य होगा। कोई सच्चा सद्गुरु ऐसी भूल नहीं करता। इसे सिद्ध करने में वर्षों का समय लगता है- प्रणवोच्चार इतना आसान होता तो क्यों कोई सद्गुरु शिष्यों से लंबी यात्रा कराएगा। देर आए और दुरुस्त आए, यही उत्तम होता है।

ब्रह्मा-विष्णु-महेश से नानक-कबीर-भीखा-पलटू तक सभी आध्यात्मिक साधक कुशल वागेयकार थे। प्रणवोच्चार करने वाला वागेयकार हो ही जाता है या वागेयकार प्रणवोच्चार में जल्दी महारथ हासिल करता है। इसका सम्बन्ध चक्रभेदन से है। मूलाधार से सहस्रार तक के साधन के लिए सप्त-स्वरों की धारणा की गई है। मूलाधार से कुंडलिनी को जगाने के लिए महीनों षड्ज साधना करना पड़ता है। श्वास में प्रथम नाद का स्फोट सीखना पड़ता है। फिर क्रमशः स्वाधिष्ठान पर ऋषभ-साधना, मणिपुर पर गंधार साधना, अनाहत पर मध्यम साधना, विशुद्धि पर पंचम साधना, त्रिकुटी पर धैवत-साधना और सहस्रार पर निषाद-साधना करना पड़ता है। इसमें समय अधिक लगता है। यह क्रिया गुरु के साथ ही बैठकर करना ठीक होता है। सध जाने पर एकान्त साधना उचित होती है क्योंकि श्रुतियों का इतना महीन भेद सद्गुरु से ही मिल पाता है। अपने करने पर भूलों का पता ही नहीं चलता है। यह एक दिन का खेल नहीं है- वर्षों की तपस्या है।

प्रणवोच्चार सीखने वाले को बारह बंध लगाना सीख जाना चाहिए। यह आसान है। मूलबंध, उड्डियान बंध और जालंधर बंध आवश्यक है। दूसरी सतर्कता है कि प्राणवायु हर हालत में नासाभ्यंतर से ही निकालनी है। प्राण-अपान को संयम करते ही इंगला-पिंगला स्वतः बन्द हो जाती है। तब गुंजाइश एक ही रह जाती है कि श्वसन-क्रिया सुषुम्ना से ही हो। ऐसा करते हुए भीतर मस्तिष्क में शुष्कता आती है। गर्मी होती है। अतः उसके शमन के लिए शीतली प्राणायाम करना चाहिए। वह भी उतना ही कि सिर बर्फ की तरह शीतल न हो जाए। शीतल करने में पूरक तो मुंह से करना होता है- जीभ को चोंचनुमा जरा बाहर निकाल कर और रेचन नासाभ्यंतर से करना होता है। मुंह से नहीं। इंगला-पिंगला से भी नहीं। तभी क्रिया परिणामी होगी।

जिसे कोई काबिल गुरु नहीं मिला है, वह इतनी क्रिया करे- अपना मुख बंद कर लें। मूलबंध लगा लें। मूलबंध करने के लिए गुदाद्वार को तनिक ऊपर की ओर सिकोड़ते हैं, गुदा संकुचन करते हैं, जैसा घोड़े लीद करने के बाद करते हैं। अब नाभि स्थान को पीछे खींचकर स्वर-यंत्र से पवन प्रेषित करें और श्वास को नासा से निकलने दें। अगर पूरी श्वास देंगे तो श्वास नाक से निकल जाएगी- अतः उसे विरल बनाकर, पतला से पतला बनाकर रेचन करें- ऐसे कुंभक और रेचन एक साथ होंगे- थोड़ी-थोड़ी श्वास निकलती रहेगी, अधिक रेचन में संचित रहेगी। श्वास में त्वरा देने पर, वेग देने पर जो ध्वनि होगी, नीचे-से-नीचे उसे स्वन कहेंगे- जिसे भाषा में कहते हैं कि हवा सन्-सन् बह रही थी | ‘स्वन’ का ही तद्भव है ‘सन्’। श्वास में रंच मात्र वेग बढ़ा देने पर ध्वनि फूटती है। पहली ध्वनि को पकड़ते हैं और उसे देर तक रखने देते हैं। अनुगूंज को लंबी बनाते हैं। देर तक कुंभक भी रहता है, निसरन भी | अतः इसे रुंधना नहीं कहेंगे। ऐसा करने में उच्छवास पतला होगा। यह इतना धीमा होगा कि इसे आप ही सुन सकते हैं। प्रणव का अर्थ है ‘प्राण का रखना’। इसे क्रमशः ऊपर उठाना होता है।

गुरु दयालु होगा तो घटना जल्दी घटेगी। इसमें पाना है परावाणी। बैखरी, मध्यमा और पश्यन्ति की क्रिया आप करेंगे। परावाणी ऊपर से उतरेगी। उसे आप मात्रा सुनेंगे, जिसे सुरति-शब्द-योग कहते हैं। परावाणी ही नाम है। कबीर ने कहा कि ‘राम’ और ‘नाम’ का मर्म न्यारा-न्यारा है। बैखरी धीमी होगी, मध्यमा केवल आप सुनेंगे। पश्यन्ति में श्वास में उसी ध्वनि का एहसास करेंगे। और परावाणी की प्रतीक्षा करेंगे। जैसे मंदिर का गुंबद ध्वनि को लौटाता है, इको होता है। उसी प्रकार यह वगया-मंदिर भी इको करता है। इस इको की ध्वनि भी क्रमशः मरती है। उसकी परख करेंगे तो पता चल जाएगा कि उसके मिटने में भी कई परत पड़ रही हैं। धीमा, और धीमा, अश्रव्य। काया भी प्रणवोच्चार को दुहराती है। यही कृष्ण की वंशी कही गई। इसे ही अनहद और अजपा या भावातीत ध्यान कहा गया है। यही है अध्यात्म की कुंजी। है तो हर प्राणी के पास, पर लगाने की कला सीखने के लिए गुरु परमावश्यक है। गुरु के बिना अध्यात्म में गति नहीं है। आज बस इतना ही।

।। हरि ॐ।।

 

 

‘समय के सद्गुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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उल्टा नाम का ध्यान

वाल्मीकि की रामायण में कथा आती है- रत्नाकर डाकू को नारद जी ने उलटा नाम जपने को कहा। पर उसे जपना नहीं आया। तब नारद जी ने उसको अभ्यास कराया। यह अभ्यास उच्चारण का नहीं था, वरन् स्फोट का था। वह प्रणव का स्फोट ही था। यह आसान नहीं है।

गीता के पंचम अध्याय के सत्ताइसवें मंत्र की अर्धाली में इस विधि का विवेचन है- ‘प्राणापानो समौकृत्वा नासाभ्यंतरचारिणौ |’

‘ओंकार’ के बारे में पंडितों ने अनेक भ्रान्तियाँ दे दी हैं। उन्हीं का प्रचार कर दिया है। कह दिया कि प्रणव का उच्चारण होता है। आगे कहा कि ‘ओम्’ या ‘ओऽम्’ की तरह। जबकि ये दोनों ही वर्णनात्मक उच्चारण हैं। इनमें तीन-तीन वर्ण साफ दिख रहे हैं। इसे एकाक्षर स्फोट कैसे कहा जा सकता है। वैष्णवों ने तो यहाँ तक प्रचार कर दिया कि उलटा नाम – अर्थात् ‘राम’ सीधा है, ‘मरा’ उलटा हुआ। ऐसी बेवकूपफी की गई, पर आज तक मरा-मरा का जप किसी ने नहीं किया। यह मानने की बात नहीं है कि जो अपने नाम ‘रत्नाकर’ का उच्चारण कर सकता था, वह ‘राम’ नहीं कह पाता था। गीताकार ने स्पष्ट कहा कि प्राण और अपान को सम करके, नासा के अभ्यंतर से उसका चरणा यानि स्फोट कराया जाए।

तीन शब्द समझने को हैं नासा, नासिका और नाक। नाक की हड्डी को नासा कहते हैं। आगे के भाग को नासिका और छिद्रों को नाक कहा जाता है। नासा में ब्रह्मनाड़ी यानि सुषुम्ना है। इंगला-पिंगला के मार्ग को नासिका कहते हैं। नासाग्र के अर्थ में भी लोग भ्रमित हैं। नासा का अग्रभाग नासा में होगा, न कि नासिका में। पर प्रायः लोग नासिका के ठोठ को अग्र बता देते हैं। इसी भ्रम के कारण लोगों को प्राणायाम सिद्ध नहीं होता है। ये भ्रमित लोग नासिका के दायां-बायां छिद्र को, नाक को ही रूँधते रहते हैं।

कबीर साहब ने स्पष्ट कहा है- ‘नाक ना रुँधू’ और गीताकार ने कहा है ‘नासाभ्यंतरचारिणौ’। नासाभ्यंतर का अर्थ नासिका के आगे कैसे कह लेते हैं लोग? तो प्रणवोच्चार समझाना असंभव है। इसका अभ्यास ही कराया जा सकता है। अगर बात आसान होती तो नारद जैसे गुरु और आदि-कवि वाल्मीकि जैसे शिष्य के लिए कठिनाई क्यों होती? यहाँ जरूर कोई गहरी बात है। पर लोग तो स्वयं को वाल्मीकि से भी तेज-तर्रार और नारद से भी गुरु-गंभीर बनकर, मिनटों में सीख जाते हैं। ऐसा धोखा नहीं होना चाहिए। सत्य की खोज इतनी आसान नहीं है। वैष्णवों में लाल बुझक्कड़ों की कमी नहीं है- फट से कह दिया कि वह नाम तो ‘राम’ है और कबीर साहब ने कहा कि ‘राम नाम का मरम है आना’ तो वह मर्म क्या है? यही तो जानना है। जबकि ‘ॐ’ एकाक्षर ब्रह्म है।

विनय पूर्वक एक प्रार्थना कर देना मैं उचित समझता हूँ- एक कहावत है- जो बिच्छू का भी मंत्र न जानता हो, उसे सांप के बिल में हाथ नहीं लगाना चाहिए। बहुत मजाक किया गया, संस्कृति से। प्रणव-साधना वही दे, जिसने अपने गुरु से सीखा है या जिसने स्वर-विज्ञान का अभ्यास किया है। कहीं सुनकर या देखकर प्रणव सिखाने या सीखने लगना अपरिणामी होगा। तो वही कहावत होगी- ‘नाच न आवे आंगन टेढ़ा |’ कुशल वागेयकार ही प्रणव साधना देने का अधिकारी है -संगीतज्ञ नहीं। नाद-ब्रह्म-साधना उसे ही दी जाती है, जिसने एकाग्रता साध ली है।

वैसे कोई नादान भी बांसुरी में फूँक मारेगा, अपनी बेतरतीब उंगलियाँ छिद्रों पर फेरेगा तो कोलाहल होगा ही, संगीत नहीं उठेगा। उसी प्रकार स्वर-योग का अभ्यास किए बिना भी कोई अटपटा उच्चारण थमाया जाना आसान है- यह कोई एक दिन का गुरु भी कर सकता है। पर यह आपराधिक कृत्य होगा। कोई सच्चा सद्गुरु ऐसी भूल नहीं करता। इसे सिद्ध करने में वर्षों का समय लगता है- प्रणवोच्चार इतना आसान होता तो क्यों कोई सद्गुरु शिष्यों से लंबी यात्रा कराएगा। देर आए और दुरुस्त आए, यही उत्तम होता है।

ब्रह्मा-विष्णु-महेश से नानक-कबीर-भीखा-पलटू तक सभी आध्यात्मिक साधक कुशल वागेयकार थे। प्रणवोच्चार करने वाला वागेयकार हो ही जाता है या वागेयकार प्रणवोच्चार में जल्दी महारथ हासिल करता है। इसका सम्बन्ध चक्रभेदन से है। मूलाधार से सहस्रार तक के साधन के लिए सप्त-स्वरों की धारणा की गई है। मूलाधार से कुंडलिनी को जगाने के लिए महीनों षड्ज साधना करना पड़ता है। श्वास में प्रथम नाद का स्फोट सीखना पड़ता है। फिर क्रमशः स्वाधिष्ठान पर ऋषभ-साधना, मणिपुर पर गंधार साधना, अनाहत पर मध्यम साधना, विशुद्धि पर पंचम साधना, त्रिकुटी पर धैवत-साधना और सहस्रार पर निषाद-साधना करना पड़ता है। इसमें समय अधिक लगता है। यह क्रिया गुरु के साथ ही बैठकर करना ठीक होता है। सध जाने पर एकान्त साधना उचित होती है क्योंकि श्रुतियों का इतना महीन भेद सद्गुरु से ही मिल पाता है। अपने करने पर भूलों का पता ही नहीं चलता है। यह एक दिन का खेल नहीं है- वर्षों की तपस्या है।

प्रणवोच्चार सीखने वाले को बारह बंध लगाना सीख जाना चाहिए। यह आसान है। मूलबंध, उड्डियान बंध और जालंधर बंध आवश्यक है। दूसरी सतर्कता है कि प्राणवायु हर हालत में नासाभ्यंतर से ही निकालनी है। प्राण-अपान को संयम करते ही इंगला-पिंगला स्वतः बन्द हो जाती है। तब गुंजाइश एक ही रह जाती है कि श्वसन-क्रिया सुषुम्ना से ही हो। ऐसा करते हुए भीतर मस्तिष्क में शुष्कता आती है। गर्मी होती है। अतः उसके शमन के लिए शीतली प्राणायाम करना चाहिए। वह भी उतना ही कि सिर बर्फ की तरह शीतल न हो जाए। शीतल करने में पूरक तो मुंह से करना होता है- जीभ को चोंचनुमा जरा बाहर निकाल कर और रेचन नासाभ्यंतर से करना होता है। मुंह से नहीं। इंगला-पिंगला से भी नहीं। तभी क्रिया परिणामी होगी।

जिसे कोई काबिल गुरु नहीं मिला है, वह इतनी क्रिया करे- अपना मुख बंद कर लें। मूलबंध लगा लें। मूलबंध करने के लिए गुदाद्वार को तनिक ऊपर की ओर सिकोड़ते हैं, गुदा संकुचन करते हैं, जैसा घोड़े लीद करने के बाद करते हैं। अब नाभि स्थान को पीछे खींचकर स्वर-यंत्र से पवन प्रेषित करें और श्वास को नासा से निकलने दें। अगर पूरी श्वास देंगे तो श्वास नाक से निकल जाएगी- अतः उसे विरल बनाकर, पतला से पतला बनाकर रेचन करें- ऐसे कुंभक और रेचन एक साथ होंगे- थोड़ी-थोड़ी श्वास निकलती रहेगी, अधिक रेचन में संचित रहेगी। श्वास में त्वरा देने पर, वेग देने पर जो ध्वनि होगी, नीचे-से-नीचे उसे स्वन कहेंगे- जिसे भाषा में कहते हैं कि हवा सन्-सन् बह रही थी | ‘स्वन’ का ही तद्भव है ‘सन्’। श्वास में रंच मात्र वेग बढ़ा देने पर ध्वनि फूटती है। पहली ध्वनि को पकड़ते हैं और उसे देर तक रखने देते हैं। अनुगूंज को लंबी बनाते हैं। देर तक कुंभक भी रहता है, निसरन भी | अतः इसे रुंधना नहीं कहेंगे। ऐसा करने में उच्छवास पतला होगा। यह इतना धीमा होगा कि इसे आप ही सुन सकते हैं। प्रणव का अर्थ है ‘प्राण का रखना’। इसे क्रमशः ऊपर उठाना होता है।

गुरु दयालु होगा तो घटना जल्दी घटेगी। इसमें पाना है परावाणी। बैखरी, मध्यमा और पश्यन्ति की क्रिया आप करेंगे। परावाणी ऊपर से उतरेगी। उसे आप मात्रा सुनेंगे, जिसे सुरति-शब्द-योग कहते हैं। परावाणी ही नाम है। कबीर ने कहा कि ‘राम’ और ‘नाम’ का मर्म न्यारा-न्यारा है। बैखरी धीमी होगी, मध्यमा केवल आप सुनेंगे। पश्यन्ति में श्वास में उसी ध्वनि का एहसास करेंगे। और परावाणी की प्रतीक्षा करेंगे। जैसे मंदिर का गुंबद ध्वनि को लौटाता है, इको होता है। उसी प्रकार यह वगया-मंदिर भी इको करता है। इस इको की ध्वनि भी क्रमशः मरती है। उसकी परख करेंगे तो पता चल जाएगा कि उसके मिटने में भी कई परत पड़ रही हैं। धीमा, और धीमा, अश्रव्य। काया भी प्रणवोच्चार को दुहराती है। यही कृष्ण की वंशी कही गई। इसे ही अनहद और अजपा या भावातीत ध्यान कहा गया है। यही है अध्यात्म की कुंजी। है तो हर प्राणी के पास, पर लगाने की कला सीखने के लिए गुरु परमावश्यक है। गुरु के बिना अध्यात्म में गति नहीं है। आज बस इतना ही।

।। हरि ॐ।।

 

 

‘समय के सद्गुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

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