
न जाने क्यों
न जाने क्यों
आज सुबह जब मैं घर से निकलीं,
न जानें क्यों जिंदगी नवीन लग रही थी।
रास्ते वही थे, सड़कें नई लग रहीं थी।
सूरज की किरने कुछ अलग लग रहीं थी।
आंखें खुली थीं, पर मैं सुकून से सो रहीं थी।
लोग वही थे, लगा पहली बार मिल रहीं थी।
न जाने क्यों जिंदगी नवीन लग रहीं थी।
सदियों से जो चल रहा था, आज समझ पा रहीं थी।
खुद के उलझे जज्बातों से मैं उभर रहीं थी।
दर्पण पर जिसे देखा, आज कुछ अलग लग रही थी।
हर बार लोगों के पीछे भाग रही थी, आज ठहराऊ पर आ खड़ी हुई थी।
आज सुबह जब मैं घर से निकली,
न जाने क्यों जिंदगी नवीन लग रहीं थी।
रचयिता, स्वेता गुप्ता
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