
प्रकृति की एक हुंकार

प्रकृति की एक हुंकार
प्रकृति की हुई एक हुंकार,
और,
रह गया न मतलब सरहदों का,
ना अमीर का, ना ग़रीब का,
ना धर्म का, ना मजहब का,
बस,
प्रकृति और इन्सान,
हैं अब आमने सामने !
देख इंसान !
लगी है खुली अदालत आज,
एक तरफ है तू अकेला,
दूसरी तरफ है वो,
और,
संग है समस्त भूमण्डल के जीव जंतु,
मारा है हक़ सब का तूने,
बता कौन करेगा तेरी पैरवी आज ?
तेरी कंपकपाहट देख,
हंस कर बोला वो,
यह तो बस थी एक हुंकार,
और,
हो गया तू कैद,
शेष प्राणी कर रहें तेरा अट्टहास,
थम जरा और कर विचार,
क्यों अकेला है आज तू ?
बनाया था तुझे
संपूर्ण धरा का संरक्षक,
पर,
बन गया तू
उनका ही भक्षक ?
बैठ गया कुंडली मार कर
सबकी रोटी पर,
नभ, थल, या हो पाताल
कुछ भी तो ना छोड़ा,
क्यों खंडित कर दी सबकी मर्यादा तूने?
अभी भी मदहोश है तू
ज्ञान और शक्ति के अहंकार में है चूर ,
थाली बजाई, जलाये दीपक,
पर,
न हुआ जरा सा भी अहसास
अपनी अधर्मता का ?
समझ न सका दर्द तू
सकल वसुधा का ?
क्यों नहीं हुआ एक बार भी क्षमा प्रार्थी ?
मेरी इस हुंकार को चेतावनी समझ,
सृष्टि की रचना यूँही चलत रहेगी
अनंत काल तक,
तेरे पहले भी आए बहुत,
तेरे बाद भी आएंगे,
जब राम बन सकता है तो,
क्यों रावण की राह पर चला है तू?
रचित – राखी सुनील कुमार , कोरोना लॉक डाउन के दौरा
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