कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै।

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21 Jul 202411 min read

Published in spiritualism

|| श्री सद्गुरवे नमः ||

 

कहै कबीर कुछ उद्यम कीजै।

आप खाय औरों को दीजै।।

 

ज्येष्ठ का मास है। पूनम की रात है। सर्वत्र शुभ्र प्रकाश है। ज्ञानी घ्यान में हैं। तपस्वी तप में है। भोगी भोग में है। तो संसारी संसार के ताने-बाने में। चन्द्रमा पूर्ण मस्ती में मुस्कराते हुए मन्द गति से आगे बढ़ रहा है। सहसा एक प्रकाश पुंज आकाश से नीचे उतरा। तपनिष्ठ अष्टानन्द अवाक् दृष्टि से देख रहे हैं। वह प्रकाश पुंज तालाब के कमल के पुष्प पर सिमटने लगा। एकाएक पूरा तालाब प्रकाश से आलोकित हो उठा। उसमें जवानी आ गयी। मुस्करा उठा। आकाश के तारे तथा नक्षत्र अपलक दृष्टि से यह सब देखे जा रहे हैं। अष्टानन्द भी कौतूहल में पड़ गया और प्रभात होने का बेसब्री से इन्तजार करने लगा। ब्रह्म मुहूर्त होते ही दौड़कर अपने गुरु को सन्देश देते हैं।

गुरु रामानन्द घ्यान में देखते हैं तो उनके मुँह से अनायास निकल पड़ता है- हो गया महापुरुष का आगमन! सत्गुरु का आगमन!

उसी सुबह एक युवक अपनी नव विवाहित पत्नी को लेकर आ रहा है। पत्नी पानी पीने तालाब में जाती है। कमल के फूलों से लहलहा रहा था- लहरतारा। इतने में उस युवती की नजर पड़ गयी दिव्य आभा से युक्त, कमल के पुष्प पर मुस्कराते हुए एक नन्हें सुन्दर बालक पर। उसके शरीर में बिजली-सी कौंध गयी, हृदय ममत्व में उमड़ पड़ा। पलटकर अपने पति के तरफ भागती है तथा उससे परामर्श कर वापस लौटती है और तुरन्त उसे उठाकर अपने हृदय से लगा लेती है। लोक-लाज भूलकर अपने आंचल में छिपा लेती है मानो स्वयं उस बच्चे को जन्म दिया हो। बच्चे का लालन-पालन भी उसी प्रेम से होता है।

बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होता है। प्रतिभा भी धीरे-धीरे प्रकट होने लगती है। शास्त्रोक्त वाणियाँ उसके मुंह से स्वतः ही निःसरित होने लगती हैं। साधना के पथ पर आगे बढ़ता है। रात्रि के अन्धेरे में ही गुरु बनाता है, समर्थ गुरु रामानन्द को। साधना तथा गृहस्थी साथ-साथ चलती है, मानो आत्मानन्द रूपी नदी के ये दोनों किनारे हों। माता नीमा तथा पिता नीरू अपने पुत्र कबीर की भक्ति तथा वैराग्य से कभी प्रसन्न होते तो कभी दुःखी। परन्तु कबीर अपने में मस्त रहते हुए निरन्तर आगे बढ़ते गये। कर्म रूपी चरखा कातते रहे, भजन गाते रहे। समग्रता में किया गया कृत्य मार्ग बन गया। जो कुछ भी कहा मस्ती में ही कहा। गा-गाकर कहा। उनके ये गीत परमात्मा के रास्ते में फूल बन गये। इनमें सत्य की भनक है। परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। इनकी रचना में न कोई विशेष प्रयास किया गया और न ही कोई नकल। अपने आपमें बहुमूल्य हैं। 1398 से 1998 तक ठीक 600 वर्ष बीत गये, उनके शरीर छोडे़ हुए, परन्तु ये गीत अभी तक जीवन्त हैं। नवचेतना देने वाले हैं। सशक्त एवं सरस हैं। जीवन के हर पहलू को स्पर्श कर रहे हैं।

यह एक कहानी है। कहानी सत्य भी हो सकती है और मिथक भी। सत्य इसलिए कि यह इंगित करती है, एक प्रतीक है, संकेत है। तालाब ही परिवार है। उसका कीचड़ ही पारिवारिक समस्यायें हैं, जिसमें ज्ञान रूपी कमल विकसित होता है। पारिवारिक कर्मों का फलाफल ही जल है। योगी ज्ञान रूपी कमल पर आसन लगाता है। तो जल रूपी फलाफल उस पर नहीं टिकता। बच्चे का जन्म लेना, भगवान के दरबार में बच्चे की तरह होने पर ही प्रवेश मिलता है | बच्चा सरल, सहज एवं निष्कपट अपने वास्तविक रूप में होता है। योगी पुरुष की सेवा का भार परमात्मा युवक-युवती को ही देते हैं। यह वह युवावस्था ही है जिसमें लोक-लाज नहीं है। आगे बढ़ने के अदम्य उत्साह से वह परिपूर्ण होता है। यह पिता नीरू रूपी कर्म तथा माता नीमा रूपी भक्ति का संयोग हुआ है। जिनके प्रेम में कबीर बडे़ होते हैं। मिथक इसलिए कि कहानी तो आखिर कहानी है। चेतना देती है प्रतीकों में ही। ये जीवन का चरखा कातते रहे। संन्यासी रहे। चादर बीन कर बाजार में स्वयं बेचते रहे। माता-पिता परिवार, साधुओं की जमात सहित साथ-साथ प्रेम से रहते रहे। झोंपड़ी ही घर थी। वही आश्रम बन गयी। आज वही तीर्थस्थल में परिवर्तित हो गयी है। वह गंगा का किनारा भी न होकर कसाइयों व वैश्यालयों का मुहल्ला है। वहां न कोई मन्दिर है न मस्जिद। न तो वहां साधु रहते हैं न फकीर। न ही मौलाना रहते हैं, न ही पण्डित। तब यह कैसे सम्भव है कि यहां कोई संत बन सके संतत्व रूपी कमल खिलने की यहां कोई भी संभावना नहीं।

समाज के तथाकथित सम्भ्रान्त लोग यहां रात के अंधेरे में ही आते हैं एवं उजाला होने से पहले ही भाग जाते हैं। दिन के उजाले में किसी को यहां से गुजरने का भी साहस नहीं है। इज्जत-प्रतिष्ठा का प्रश्न जो ठहरा। इन्हीं विपरीत परिस्थितियों में ही कबीर पाले तथा पोसे गये। लोग कहते हैं कि वातावरण का प्रभाव शिशु पर अक्सर पड़ता है। यही प्रभाव शिशु के भविष्य निर्माण में सहायक होता है। परन्तु ये इन सबसे विपरीत जल में खिले कमल की तरह रहे। कमल कीचड़ में खिलता है, परन्तु जल की एक बूंद भी कमल पर नहीं टिकती। यदि यह देखना है तो अन्यत्र कहीं जाने की जरूरत नहीं। इन्हीं में देखा जा सकता है। किसी का किसी भी तरह का प्रभाव नहीं। जहां हैं वहीं मगन हैं। परमात्मा के लिए कोई भाग-दौड़ नहीं। स्वयं परमात्मा को ही भागकर आना पड़ा।

बुद्ध महावीर का संन्यास तो समझ में आता है। एक अन्धा व्यक्ति भी उन्हें संन्यासी कह सकता है। राजपुत्र हैं। राज्य, साम्राज्य को लात मार कर जंगल की तरफ भागते हैं। वर्षों खड़े रहते हैं। कभी उपवास करते हैं तो कभी भिक्षाटन। मंत्रोच्चार करते हैं। विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरते हैं। भरी जवानी में जंगल-जंगल भटकते हैं। साधु संतों का दरवाजा खटखटाते हैं। उनकी विधियों को अपने में उतारते हैं। एकान्त में रहते हैं जहां माया-मोह भी उनके पास आसानी से न फटक सकें | प्राकृतिक परिवेश पूरा का पूरा मिलता है। तब जाकर उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति होती है, वह भी बारह वर्षों की कठोर तपस्या के उपरान्त। पढे़-लिखे तो थे ही। धर्म प्रचार में लग गये। सभ्य, सुसंस्कृत भाषा थी। विद्वतापूर्ण ढंग से अपनी बात को समाज में समझाने में समर्थ थे। राजा थे ही, अतः देशभर के राजपुत्र इनके शिष्य भी हो गये।

यदि ठीक से देखा जाए तो बुद्ध, महावीर ने पूरे जीवन भर मात्र धर्म प्रचार ही किया। दस हजार शिष्य बुद्ध के साथ चलते थे। एक तरफ आध्यात्मिक विकास शीर्ष पर पहुंच गया, परन्तु दूसरी तरफ सामाजिक एवम् आर्थिक विकास शून्य हो गया। जिनमें काम करने की क्षमता थी, जो हाथ उद्यम कर सकते थे, समाज को गति दे सकते थे, अब भिक्षापात्र पकड़ लिए। कर्म से च्युत हो गये। कर्म से पलायन हो गया। कर्म से भाग गये। यदि सभी लोग भिक्षापात्र ही पकड़ लें तो भिक्षा देगा कौन? कौन इन लोगों का उदर भरेगा? यह एक पक्षीय विकास हुआ। इसको सम्यक् विकास नहीं कहा जा सकता। जिस पत्नी से शादी की, अग्नि के फेरे लिए, जीवन भर साथ रहने का वायदा किया, बच्चे पैदा किये, फिर एक झटके में सारे वायदे भूलकर जहान में अकेला छोड़ गये भटकने के लिए। जिस बच्चे को पैदा किया क्या उसके प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं। जिसने पाल-पोस कर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, खिलाया-पिलाया, नहलाया-धुलाया, क्या उसके प्रति सारी संवेदनाएं समाप्त हो गईं? जिस समाज ने प्रेम से सहलाया, माथा चूमा क्या उसके प्रति कोई अभीप्सा नहीं। क्या इसे संवेदन शून्य नहीं कहेंगे ? क्या इसे सम्भावना शून्य नहीं कहेंगे?

यही कारण है कि भारत में भीख मांगने वाले ज्यादा हुए। या यों कहा जाए कि भारत भिखमंगों का देश हो गया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। यही ऐसा देश है जहां भिखमंगों को भी सम्मान दिया जाता है। दरिद्रों को दरिद्रनारायण कहते हैं। दरिद्र दरिद्रता में ही सम्मान समझता है। भिक्षाटन करने वाला कभी किसी के सामने झुकता नहीं अकड़कर भीख मांगता है। स्वयं को देने वाले से श्रेष्ठ समझता है। कहता है-‘तुम मुझे भीख दो- मैं तुम्हें स्वर्ग दूंगा।’ स्वर्ग का, पुण्य का लालच देता है। वह समझाता है कि तुम मुझे पैसा देते हो तो मैं तुम्हें परमात्मा का स्वर्ग देता हूं। इस देने के विचार से उसके अहं को भोजन मिलता है। इसी स्वर्ग के लालच में ही विदेशों से ईसाई लोग भी भारत आने लगे। सोचते हैं भिखमंगे वहीं हैं। चलो कुछ दान कर स्वर्ग चले जायेंगे। यही नहीं अब तो सारी दुनिया में ही भिखमंगों का निर्यात भारत से ही होता है। अभी-अभी सुनने में आया है कि मक्का-मदीना में भी भिखमंगे भारत से ही जा रहे हैं। हज करने वाले यात्री आखिर किसको दान देंगे।

महावीर भी बुद्ध से पीछे नहीं। स्वयं नंगे रहे। दस हजार शिष्य व तीस हजार शिष्याएं इनके साथ चलते थे। पूरे चालीस हजार लोगों की जमात थी। लगभग सभी अपने युवावस्था में थे, परन्तु करते कुछ नहीं थे। मात्र ध्यान करते व धर्म प्रचार करते थे, परन्तु भोजन अवश्य करते। भिक्षाटन करते थे तथा भिक्षा पर ही इनका जीवन-यापन चलता था। महावीर कहते, फूंक-फूंक कर कदम रखो अन्यथा चींटी मर जायेगी। हिंसा हो जायेगी। गीली जमीन पर पैर मत रखो, कीडे़ मर जायेंगे। कृषि मत करो। कृषि करने से लाखों-लाख कीडे़ मर जाते हैं। खेती करने से हिंसा होती है। महावीर के भक्तों ने खेती करना छोड़ दी। महावीर नंगे थे, अतः वस्त्र के व्यापारी हो गये। जैनी वस्त्र के व्यापारी हो गये। अधिकांशतः जैनी ही वस्त्र बेचते हैं। सम्भवतः कसम खा ली कि महावीर तो नंगे रहे, लेकिन अब हम किसी को नंगा नहीं रहने देंगे। संसार यदि महावीर का भक्त हो जाए तो क्या जीवन सम्भव है। व्यापार सम्भव है। खेती नहीं होगी तो अन्न कहां से आएगा। फल-फूल कहां से आएंगे। भिक्षु को कौन भिक्षा देगा। सारी दुनिया नरक बन जायेगी। यह कैसा सम्यक् ज्ञान! तब तो कहना पडे़गा कि आप अपना ज्ञान बांधो। अपने साथ ले जाओ। हमें छोड़ दो अपने भरोसे। तुम्हारा ज्ञान सुनने की सामर्थ्य नहीं है। सम्भवतः यही कारण है कि भारतीय लोगों ने इन्हें भगवान मानने से इंकार कर दिया। भगवान तो दूर इन्हें ऋषि भी नहीं माना। इन्हें नास्तिक कह दिया। नर्क का द्वार कह दिया।

बुद्ध को गया में ज्ञान मिला था। उसे पवित्र जगह कहा जाना चाहिए था, किन्तु भारतीय लोगों ने उसे मगहर कह दिया। भूतों का अड्डा बना दिया। प्रेत आत्माओं का गृह कह दिया। मरने के बाद अमुक्त या भटकती आत्माओं को पिण्डदान देकर यहां मुक्त किया जाता है। वहां ज्ञान की सम्भावना नहीं है।

हिन्दू लोग अपने पितरों को तारने हेतु पिण्डदान करने के लिए यहां पर अभी भी जाते रहते हैं। जिस फल्गु नदी में बुद्ध ने स्नान किया, उसका जल पीया, उसको वैतरणी नदी कहा जाता है। नरक का द्वार कह दिया गया उसे। जहां बुद्ध निर्वाण कर महानिर्वाण को उपलब्ध हुए, वर्तमान कबीरनगर का वह स्थान ‘मगहर’ कहलाया। जहां मरने पर लोग गदहा बनेंगे। मुक्ति का तो प्रश्न ही नहीं। दूसरा जन्म होगा तो वह भी गदहे का ही। मूर्ख होगा, गन्दे वस्त्र ढोयेगा, तब कहीं अन्य योनि भोगते हुए मनुष्य योनि मिलेगी। यही स्थिति महावीर की भी है। इनके कार्य क्षेत्र को भी असिद्ध क्षेत्र घोषित कर दिया गया।

बहुत गहराई से अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इन लोगों ने कर्म को लात मारी है। उद्यम को ठोकर मारी है तथा भिक्षाटन को बढ़ावा दिया है। पलायन प्रवृति को हवा दी है। भिक्षाटन को गौरवान्वित किया है, महिमामण्डित किया है, पूज्य बनाया है। यह भारत के लिए दुर्भाग्यशाली रहा। यहां के लोग आलसी रहे, काम करने से जी चुराने लगे, अकर्मण्य हो गये तथा इन लोगों ने इस अकर्मण्यता को गौरव दिया, प्रतिष्ठा दी। जब ऐसे लोगों ने इस अकर्मण्यता को गौरव दिया, प्रतिष्ठा दी तो अब ऐसे में कौन कर्म करेगा? सभी लोग भिक्षाटन ही करने लग जायेंगे। समाज नाम की चीज नहीं रह जाएगी। सभ्यता नाम की चीज नहीं रह जायेगी। सब कुछ ध्वस्त हो जायेगा।

 

समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कह कबीर कुछ उद्यम कीजै’ से उद्धृत ….

***************

 

‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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ज्येष्ठ का मास है। पूनम की रात है। सर्वत्र शुभ्र प्रकाश है। ज्ञानी घ्यान में हैं। तपस्वी तप में है। भोगी भोग में है। तो संसारी संसार के ताने-बाने में। चन्द्रमा पूर्ण मस्ती में मुस्कराते हुए मन्द गति से आगे बढ़ रहा है। सहसा एक प्रकाश पुंज आकाश से नीचे उतरा। तपनिष्ठ अष्टानन्द अवाक् दृष्टि से देख रहे हैं। वह प्रकाश पुंज तालाब के कमल के पुष्प पर सिमटने लगा। एकाएक पूरा तालाब प्रकाश से आलोकित हो उठा। उसमें जवानी आ गयी। मुस्करा उठा। आकाश के तारे तथा नक्षत्र अपलक दृष्टि से यह सब देखे जा रहे हैं। अष्टानन्द भी कौतूहल में पड़ गया और प्रभात होने का बेसब्री से इन्तजार करने लगा। ब्रह्म मुहूर्त होते ही दौड़कर अपने गुरु को सन्देश देते हैं।

गुरु रामानन्द घ्यान में देखते हैं तो उनके मुँह से अनायास निकल पड़ता है- हो गया महापुरुष का आगमन! सत्गुरु का आगमन!

उसी सुबह एक युवक अपनी नव विवाहित पत्नी को लेकर आ रहा है। पत्नी पानी पीने तालाब में जाती है। कमल के फूलों से लहलहा रहा था- लहरतारा। इतने में उस युवती की नजर पड़ गयी दिव्य आभा से युक्त, कमल के पुष्प पर मुस्कराते हुए एक नन्हें सुन्दर बालक पर। उसके शरीर में बिजली-सी कौंध गयी, हृदय ममत्व में उमड़ पड़ा। पलटकर अपने पति के तरफ भागती है तथा उससे परामर्श कर वापस लौटती है और तुरन्त उसे उठाकर अपने हृदय से लगा लेती है। लोक-लाज भूलकर अपने आंचल में छिपा लेती है मानो स्वयं उस बच्चे को जन्म दिया हो। बच्चे का लालन-पालन भी उसी प्रेम से होता है।

बच्चा धीरे-धीरे बड़ा होता है। प्रतिभा भी धीरे-धीरे प्रकट होने लगती है। शास्त्रोक्त वाणियाँ उसके मुंह से स्वतः ही निःसरित होने लगती हैं। साधना के पथ पर आगे बढ़ता है। रात्रि के अन्धेरे में ही गुरु बनाता है, समर्थ गुरु रामानन्द को। साधना तथा गृहस्थी साथ-साथ चलती है, मानो आत्मानन्द रूपी नदी के ये दोनों किनारे हों। माता नीमा तथा पिता नीरू अपने पुत्र कबीर की भक्ति तथा वैराग्य से कभी प्रसन्न होते तो कभी दुःखी। परन्तु कबीर अपने में मस्त रहते हुए निरन्तर आगे बढ़ते गये। कर्म रूपी चरखा कातते रहे, भजन गाते रहे। समग्रता में किया गया कृत्य मार्ग बन गया। जो कुछ भी कहा मस्ती में ही कहा। गा-गाकर कहा। उनके ये गीत परमात्मा के रास्ते में फूल बन गये। इनमें सत्य की भनक है। परमात्मा का प्रतिबिम्ब है। इनकी रचना में न कोई विशेष प्रयास किया गया और न ही कोई नकल। अपने आपमें बहुमूल्य हैं। 1398 से 1998 तक ठीक 600 वर्ष बीत गये, उनके शरीर छोडे़ हुए, परन्तु ये गीत अभी तक जीवन्त हैं। नवचेतना देने वाले हैं। सशक्त एवं सरस हैं। जीवन के हर पहलू को स्पर्श कर रहे हैं।

यह एक कहानी है। कहानी सत्य भी हो सकती है और मिथक भी। सत्य इसलिए कि यह इंगित करती है, एक प्रतीक है, संकेत है। तालाब ही परिवार है। उसका कीचड़ ही पारिवारिक समस्यायें हैं, जिसमें ज्ञान रूपी कमल विकसित होता है। पारिवारिक कर्मों का फलाफल ही जल है। योगी ज्ञान रूपी कमल पर आसन लगाता है। तो जल रूपी फलाफल उस पर नहीं टिकता। बच्चे का जन्म लेना, भगवान के दरबार में बच्चे की तरह होने पर ही प्रवेश मिलता है | बच्चा सरल, सहज एवं निष्कपट अपने वास्तविक रूप में होता है। योगी पुरुष की सेवा का भार परमात्मा युवक-युवती को ही देते हैं। यह वह युवावस्था ही है जिसमें लोक-लाज नहीं है। आगे बढ़ने के अदम्य उत्साह से वह परिपूर्ण होता है। यह पिता नीरू रूपी कर्म तथा माता नीमा रूपी भक्ति का संयोग हुआ है। जिनके प्रेम में कबीर बडे़ होते हैं। मिथक इसलिए कि कहानी तो आखिर कहानी है। चेतना देती है प्रतीकों में ही। ये जीवन का चरखा कातते रहे। संन्यासी रहे। चादर बीन कर बाजार में स्वयं बेचते रहे। माता-पिता परिवार, साधुओं की जमात सहित साथ-साथ प्रेम से रहते रहे। झोंपड़ी ही घर थी। वही आश्रम बन गयी। आज वही तीर्थस्थल में परिवर्तित हो गयी है। वह गंगा का किनारा भी न होकर कसाइयों व वैश्यालयों का मुहल्ला है। वहां न कोई मन्दिर है न मस्जिद। न तो वहां साधु रहते हैं न फकीर। न ही मौलाना रहते हैं, न ही पण्डित। तब यह कैसे सम्भव है कि यहां कोई संत बन सके संतत्व रूपी कमल खिलने की यहां कोई भी संभावना नहीं।

समाज के तथाकथित सम्भ्रान्त लोग यहां रात के अंधेरे में ही आते हैं एवं उजाला होने से पहले ही भाग जाते हैं। दिन के उजाले में किसी को यहां से गुजरने का भी साहस नहीं है। इज्जत-प्रतिष्ठा का प्रश्न जो ठहरा। इन्हीं विपरीत परिस्थितियों में ही कबीर पाले तथा पोसे गये। लोग कहते हैं कि वातावरण का प्रभाव शिशु पर अक्सर पड़ता है। यही प्रभाव शिशु के भविष्य निर्माण में सहायक होता है। परन्तु ये इन सबसे विपरीत जल में खिले कमल की तरह रहे। कमल कीचड़ में खिलता है, परन्तु जल की एक बूंद भी कमल पर नहीं टिकती। यदि यह देखना है तो अन्यत्र कहीं जाने की जरूरत नहीं। इन्हीं में देखा जा सकता है। किसी का किसी भी तरह का प्रभाव नहीं। जहां हैं वहीं मगन हैं। परमात्मा के लिए कोई भाग-दौड़ नहीं। स्वयं परमात्मा को ही भागकर आना पड़ा।

बुद्ध महावीर का संन्यास तो समझ में आता है। एक अन्धा व्यक्ति भी उन्हें संन्यासी कह सकता है। राजपुत्र हैं। राज्य, साम्राज्य को लात मार कर जंगल की तरफ भागते हैं। वर्षों खड़े रहते हैं। कभी उपवास करते हैं तो कभी भिक्षाटन। मंत्रोच्चार करते हैं। विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरते हैं। भरी जवानी में जंगल-जंगल भटकते हैं। साधु संतों का दरवाजा खटखटाते हैं। उनकी विधियों को अपने में उतारते हैं। एकान्त में रहते हैं जहां माया-मोह भी उनके पास आसानी से न फटक सकें | प्राकृतिक परिवेश पूरा का पूरा मिलता है। तब जाकर उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति होती है, वह भी बारह वर्षों की कठोर तपस्या के उपरान्त। पढे़-लिखे तो थे ही। धर्म प्रचार में लग गये। सभ्य, सुसंस्कृत भाषा थी। विद्वतापूर्ण ढंग से अपनी बात को समाज में समझाने में समर्थ थे। राजा थे ही, अतः देशभर के राजपुत्र इनके शिष्य भी हो गये।

यदि ठीक से देखा जाए तो बुद्ध, महावीर ने पूरे जीवन भर मात्र धर्म प्रचार ही किया। दस हजार शिष्य बुद्ध के साथ चलते थे। एक तरफ आध्यात्मिक विकास शीर्ष पर पहुंच गया, परन्तु दूसरी तरफ सामाजिक एवम् आर्थिक विकास शून्य हो गया। जिनमें काम करने की क्षमता थी, जो हाथ उद्यम कर सकते थे, समाज को गति दे सकते थे, अब भिक्षापात्र पकड़ लिए। कर्म से च्युत हो गये। कर्म से पलायन हो गया। कर्म से भाग गये। यदि सभी लोग भिक्षापात्र ही पकड़ लें तो भिक्षा देगा कौन? कौन इन लोगों का उदर भरेगा? यह एक पक्षीय विकास हुआ। इसको सम्यक् विकास नहीं कहा जा सकता। जिस पत्नी से शादी की, अग्नि के फेरे लिए, जीवन भर साथ रहने का वायदा किया, बच्चे पैदा किये, फिर एक झटके में सारे वायदे भूलकर जहान में अकेला छोड़ गये भटकने के लिए। जिस बच्चे को पैदा किया क्या उसके प्रति कोई उत्तरदायित्व नहीं। जिसने पाल-पोस कर बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया, खिलाया-पिलाया, नहलाया-धुलाया, क्या उसके प्रति सारी संवेदनाएं समाप्त हो गईं? जिस समाज ने प्रेम से सहलाया, माथा चूमा क्या उसके प्रति कोई अभीप्सा नहीं। क्या इसे संवेदन शून्य नहीं कहेंगे ? क्या इसे सम्भावना शून्य नहीं कहेंगे?

यही कारण है कि भारत में भीख मांगने वाले ज्यादा हुए। या यों कहा जाए कि भारत भिखमंगों का देश हो गया तो कोई अतिशयोक्ति नहीं। यही ऐसा देश है जहां भिखमंगों को भी सम्मान दिया जाता है। दरिद्रों को दरिद्रनारायण कहते हैं। दरिद्र दरिद्रता में ही सम्मान समझता है। भिक्षाटन करने वाला कभी किसी के सामने झुकता नहीं अकड़कर भीख मांगता है। स्वयं को देने वाले से श्रेष्ठ समझता है। कहता है-‘तुम मुझे भीख दो- मैं तुम्हें स्वर्ग दूंगा।’ स्वर्ग का, पुण्य का लालच देता है। वह समझाता है कि तुम मुझे पैसा देते हो तो मैं तुम्हें परमात्मा का स्वर्ग देता हूं। इस देने के विचार से उसके अहं को भोजन मिलता है। इसी स्वर्ग के लालच में ही विदेशों से ईसाई लोग भी भारत आने लगे। सोचते हैं भिखमंगे वहीं हैं। चलो कुछ दान कर स्वर्ग चले जायेंगे। यही नहीं अब तो सारी दुनिया में ही भिखमंगों का निर्यात भारत से ही होता है। अभी-अभी सुनने में आया है कि मक्का-मदीना में भी भिखमंगे भारत से ही जा रहे हैं। हज करने वाले यात्री आखिर किसको दान देंगे।

महावीर भी बुद्ध से पीछे नहीं। स्वयं नंगे रहे। दस हजार शिष्य व तीस हजार शिष्याएं इनके साथ चलते थे। पूरे चालीस हजार लोगों की जमात थी। लगभग सभी अपने युवावस्था में थे, परन्तु करते कुछ नहीं थे। मात्र ध्यान करते व धर्म प्रचार करते थे, परन्तु भोजन अवश्य करते। भिक्षाटन करते थे तथा भिक्षा पर ही इनका जीवन-यापन चलता था। महावीर कहते, फूंक-फूंक कर कदम रखो अन्यथा चींटी मर जायेगी। हिंसा हो जायेगी। गीली जमीन पर पैर मत रखो, कीडे़ मर जायेंगे। कृषि मत करो। कृषि करने से लाखों-लाख कीडे़ मर जाते हैं। खेती करने से हिंसा होती है। महावीर के भक्तों ने खेती करना छोड़ दी। महावीर नंगे थे, अतः वस्त्र के व्यापारी हो गये। जैनी वस्त्र के व्यापारी हो गये। अधिकांशतः जैनी ही वस्त्र बेचते हैं। सम्भवतः कसम खा ली कि महावीर तो नंगे रहे, लेकिन अब हम किसी को नंगा नहीं रहने देंगे। संसार यदि महावीर का भक्त हो जाए तो क्या जीवन सम्भव है। व्यापार सम्भव है। खेती नहीं होगी तो अन्न कहां से आएगा। फल-फूल कहां से आएंगे। भिक्षु को कौन भिक्षा देगा। सारी दुनिया नरक बन जायेगी। यह कैसा सम्यक् ज्ञान! तब तो कहना पडे़गा कि आप अपना ज्ञान बांधो। अपने साथ ले जाओ। हमें छोड़ दो अपने भरोसे। तुम्हारा ज्ञान सुनने की सामर्थ्य नहीं है। सम्भवतः यही कारण है कि भारतीय लोगों ने इन्हें भगवान मानने से इंकार कर दिया। भगवान तो दूर इन्हें ऋषि भी नहीं माना। इन्हें नास्तिक कह दिया। नर्क का द्वार कह दिया।

बुद्ध को गया में ज्ञान मिला था। उसे पवित्र जगह कहा जाना चाहिए था, किन्तु भारतीय लोगों ने उसे मगहर कह दिया। भूतों का अड्डा बना दिया। प्रेत आत्माओं का गृह कह दिया। मरने के बाद अमुक्त या भटकती आत्माओं को पिण्डदान देकर यहां मुक्त किया जाता है। वहां ज्ञान की सम्भावना नहीं है।

हिन्दू लोग अपने पितरों को तारने हेतु पिण्डदान करने के लिए यहां पर अभी भी जाते रहते हैं। जिस फल्गु नदी में बुद्ध ने स्नान किया, उसका जल पीया, उसको वैतरणी नदी कहा जाता है। नरक का द्वार कह दिया गया उसे। जहां बुद्ध निर्वाण कर महानिर्वाण को उपलब्ध हुए, वर्तमान कबीरनगर का वह स्थान ‘मगहर’ कहलाया। जहां मरने पर लोग गदहा बनेंगे। मुक्ति का तो प्रश्न ही नहीं। दूसरा जन्म होगा तो वह भी गदहे का ही। मूर्ख होगा, गन्दे वस्त्र ढोयेगा, तब कहीं अन्य योनि भोगते हुए मनुष्य योनि मिलेगी। यही स्थिति महावीर की भी है। इनके कार्य क्षेत्र को भी असिद्ध क्षेत्र घोषित कर दिया गया।

बहुत गहराई से अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इन लोगों ने कर्म को लात मारी है। उद्यम को ठोकर मारी है तथा भिक्षाटन को बढ़ावा दिया है। पलायन प्रवृति को हवा दी है। भिक्षाटन को गौरवान्वित किया है, महिमामण्डित किया है, पूज्य बनाया है। यह भारत के लिए दुर्भाग्यशाली रहा। यहां के लोग आलसी रहे, काम करने से जी चुराने लगे, अकर्मण्य हो गये तथा इन लोगों ने इस अकर्मण्यता को गौरव दिया, प्रतिष्ठा दी। जब ऐसे लोगों ने इस अकर्मण्यता को गौरव दिया, प्रतिष्ठा दी तो अब ऐसे में कौन कर्म करेगा? सभी लोग भिक्षाटन ही करने लग जायेंगे। समाज नाम की चीज नहीं रह जाएगी। सभ्यता नाम की चीज नहीं रह जायेगी। सब कुछ ध्वस्त हो जायेगा।

 

समय के सद्गुरु स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘कह कबीर कुछ उद्यम कीजै’ से उद्धृत ….

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‘समय के सदगुरु’ स्वामी  कृष्णानंद  जी महाराज

आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|

स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –

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