
सुकुनियत
सुकुनियत
भटक रहें हैं सब जिसकी तलाश में,
ज़िक्र जिसका हो रहा सिर्फ़ “काश” में,
वो बैठा हँस रहा निरर्थक एक लतीफे पर,
चाय की चुस्की और दोस्तों के साथ में,
वो इठला रहा परिंदो की चहचहाहट पर,
वो जी रहा किसी बच्चे की नमाज़ में,
वो धूप सेंक रहा आचार के मर्तबान पर,
वो सिक रहा मां के हाथों के चमत्कार में,
वो इठला रहा प्रेम की पहली भोर पर,
वो लजा रहा हमारी दीवानगी के हाल में,
वो हँस रहा दुनियादारी की जद्दोजहद पर,
वो बस रहा दिल से बिताए हर लम्हात में ।
स्वरचित एवं मौलिक
©️ अपर्णा
मुम्बई
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