
उम्मीदों की कश्ती
उम्मीदों की कश्ती
उम्मीदों की कश्ती में बैठें हैं हम,
बीच मझधार में अब रुकें हैं हम,
किसने हैं पुकारा ये ढूंढते हैं हम,
जज्बातों के सैलाब में यूं फंसे हैं हम,
छलावे के इस तूफ़ान में डगमगा रहे हैं हम,
अब तो खुद से ही ग़ैर हो गए हैं हम,
कश्ती को किनारा अब खुदही हैं लगाना मगर,
दरत से अब पूछते हैं हम?
अगर क़िस्मत में नहीं था मिलना, तो फिर क्यों था मिलाना?
ट खाना अगर तय था, तो फ़िर क्यों था मिलाना?
उम्मीदों की कश्ती पर सवार हम खुदका नुक़सान कर बैठें,
ब तो हम अपनी पहचान भूल बैठें।
फ़िर नई मंजिल में हैं जुठ जाना,
नये रास्ते खुद ही हैं बनाना,
ज़ख्म खाएं हैं मगर ख़ुदको तराश लें तू,
जिंदगी का मक़सद अब पहचान ले तू।
रचयिता,
स्वेता गुप्ता
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