
अंतर्यात्रा
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‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज की अनमोल कृति ‘गुरु ही मुक्ति दाता ’ से साभार
अंतर्यात्रा
एक समय की बात है। कुछ तीर्थयात्री अपना-अपना सामान एक गधे पर लादकर निकले। जहाँ ठहरते वहाँ गधे पर से अपना-अपना सामान उतारकर गधे को खोल देते थे ताकि वह जाकर खुले में घास खाकर आ जाए। उसके दाना, पानी तथा थकान मिटाने के विषय में कोई तीर्थयात्री नहीं सोचता था। जब सुबह लोगों को यात्र पर चलना होता तो गधे पर सामान लादने की होड़ लग जाती थी उन सब में। आप सब भी उस गधे से कम नहीं हो मनुष्य होकर भी पशुवत जीए जा रहे हो। कह सकते हो कि- “मनुष्य: देवतानाम पशुः ” सभी लोग पूज रहे हैं-कहीं दुर्गा को, कहीं काली माँ को, कहीं संतोषी माँ को, कहीं सरस्वती जी को, कहीं कुत्ता जी को, कहीं चूहा को। हर एक देवता को गधे की तरह पूजते हो किन्तु कोई दुःख में, विपत्ति में नहीं पूछने आता।
एक सरदार जी थे। शिष्य बने थे। मैंने पूछा कैसा चल रहा है? कहते हैं गुरु जी धन नहीं आ रहा है। गुप्त विज्ञान लिया था। जब सुदर्शन चक्र छोड़ता हूँ तो उसी से आप, भगवान विष्णु एवं नानक देव भी निकल आते हैं। आप सर्व समर्थ हैं फिर भी हमारी कामना पूर्ण क्यों नहीं होती? मैंने कहा ये बताओ- क्या तुम गुरुद्वारे नहीं जाते हो? बात चुभ जाती है। इसीलिए कहता हूँ कि लोग पशु की तरह मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर जा रहे हैं। रामायण, कुरान, बाइबिल के अनुसार जीवन जीए जा रहे हैं। जब तुम सब की धारणा ही एकाग्र नहीं है। गुरु- गोविन्द के प्रति समर्पण ही नहीं है, विश्वास ही नहीं है, धारणा तो तुम्हारी बिखरी हुई है ।
आध्यत्मिक व्यक्ति को यही देवी-देवता लोग चक्कर में डालते हैं कि मेरा पालतू पशु मेरे को छोड़कर कहाँ जा रहा है? देवता लोग दैहिक, दैविक, भौतिक ताप, दुःख देने लगते हैं। देवी-देवताओं की ही ठाकुराई रही है क्यों बात नहीं मानेगा? कोई-कोई व्यक्ति जो इन देवी-देवताओं छोड़ देता है और गुरु गोविन्द के पीछे लग जाता है, गुरु में ही भगवान देख लेता है तो यही देवी-देवताओं की सेना स्तुति, बंदगी करने लगती हैं। नक्सलवादी भी इसी तरह जब अपने को एकदम से एकाग्र करके कार्य करने (उत्पात करने) में लगा देते हैं तो उनके समर्पित होकर किए कार्यों से प्रशासन भी झुक जाता है। जब तुम भी गुरु-गोविन्द के प्रति दृढ़-विश्वास से, अटूट शृद्धा से झुक जाओगे तो ऋद्धि – सिद्धियां अनुगामिनी हो जाएंगी, मांगना नहीं पड़ेगा। ये स्वयं बरसने लगती हैं। देवी-देवता सेवक बनकर चाकरी करने लगते हैं।
सतपुरुष
इस तरह से समझो आप जितना धनुष की डोर खींचोगे तीर उतना ही अधिक दूर जाता है। जब पत्थर फेंकते हैं तो हाथ को अधिक से अधिक पीछे ले जाना पड़ता है तो पत्थर ज्यादा दूर जाता है। इसलिए जितना बड़ा पाना चाहते हो उसी तरह का त्याग भी करना पड़ेगा।
वेद में भी मिलता है – “शिव: संकल्प: भवति।”
सतपुरुष एक वृक्ष है, निरंजन वाकी डार।
त्रिदेवा शाखा भये, पात भया संसार।।
सतपुरुष परम पुरुष ही वृक्ष की जड़ है। परमब्रह्म वृक्ष का तना है। त्रिदेव (ब्रह्मा , विष्णु, महेश) शाखा हैं। छोटी-छोटी टहनियाँ देवी-देवता हैं। पत्ता संसार है। इन्हीं से संसार बना है। अक्षर पुरुष में ब्रह्मा का अवतरण होता है। ब्रह्मा को ही काल कहते हैं। कृष्ण ने गीता में कहा है- मैं ही ब्रह्मा , विष्णु, महेश का ग्रास करता हूँ। “एकै साधे सब सधे, सब साधे एक जाय।” ̧ तुम सब जड़ रूपी गुरु गोविन्द ( परमब्रह्म के साकार रूप) को छोड़कर पत्तियाँ , तने रूपी क्षर देवी-देवताओं को तृप्त कर रहे हो, पानी छिड़कते फिर रहे हो, जड़ में पानी ही नहीं डालना चाहते हो।
विवेकानन्द एवं मूर्ति पूजा
विवेकानन्द में जब ज्ञान का अवतरण हुआ तो उन्हें एक मूर्ति पूजक व्यक्ति को वृहद मूर्ति पूजा में अत्यधिक समय बर्बाद करते देखकर दुःख हुआ। उस व्यक्ति का नाम भोला था। विवेकानन्द ने भोला की मूर्ति पूजा का जब विरोध किया तो भोला ने कहा-तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है, तू अधार्मिक हो गया है, नास्तिक बन गया है। विवेकानन्द एक बार समाधि अवस्था में मध्यान करते हुए जब पहुँचे तब उन्होंने भोला के लिए मानसिक तरंगें प्रेषित कीं। अब भोला को एकाएक मूर्ति पूजा बेकार लगने लगी। उसने सोचा कि मैं इतने दिन से इन मूर्तियों को पूज रहा हूँ इनसे मुझे क्या मिला। वह एक बोरे में मूर्तियाँ भरकर गंगा में प्रवाहित करने के लिए चल पड़ा। रास्ते में बड़बड़ा रहा था कि नरेन्द्र ठीक ही कह रहा था ये सब किसी लायक (काम के) नहीं हैं। मुझे इनकी गुलामी बर्दाश्त नहीं। तभी रामकृष्ण जी उससे मिल गए, हालचाल पूछा तो उसने बताया कि ये मूर्तियाँ सब बेकार हैं, मैं इन्हें फेंकने जा रहा हूँ। रामकृष्ण समझ गए कि क्यों यह ऐसा कर रहा है? उन्होंने उससे बोरा वहीं रखने को कहा तथा कुछ देर इंतजार करने की सलाह दी।
ध्यानरत विवेकानन्द को ध्यान से उठाया तथा कहा, तुम्हें समाधि अवस्था में जाकर मानसिक संवेग नहीं करना चाहिए। यह प्रक्रिया अस्थाई होती हैं। तुम्हारे मानसिक संदेश भेजने से भोला मूर्तियाँ तो अभी फेंक आएगा परन्तु फिर वह वापस लौटकर मूर्तिपूजा करने लगेगा। यही हुआ, भोला अब अपने को धार्मिक तथा रामकृष्ण व नरेन्द्र को अधार्मिक , नास्तिक कहता हुआ मूर्तियों से भरा बोरा लेकर घर की तरफ चला गया।
रामकृष्ण ने विवेकानन्द को चेताया, समाधि में जाकर किसी के कल्याण अथवा अहित के विषय में नहीं सोचना चाहिए। अपने चाल, चरित्र, चिन्तन से लोगों को प्रभावित करने का प्रयास करना चाहिए। वाणी से समझाने की कोशिश करनी चाहिए। यह स्थायी होगा, प्रभावी होगा, सुन्दर होगा। निर्विचार समाधि आवश्यक है, श्रेष्ठ है। इसके लिए परिपक्वावस्था जरूरी है। भोला फिर अपने मूर्तिपूजा को तर्क देकर श्रेष्ठ बताने लगा। अपनी बात के समर्थन में धर्मशास्त्र की बातें बताने लगा। परमहंस रामकृष्ण को बुरा भला कहने लगा। अतः तुम सब वाणी में बल लाने का प्रयास करो।
आध्यत्मिक ऊर्जा ऐसे तुच्छ कार्यों में मानसिक संप्रेषण नहीं करना चाहिए। निर्विचार होना ही समाधि है। अपने आत्म तत्त्व रमण करना ही समाधि है। तुम अपने में रमण करो। यही मेरी कामना हैं। अपने स्वांसों के माध्यम से अंतर्यात्रा करो। एक समय आएगा कि स्वास रुक जाएगा फिर तुम उसे उपलब्ध हो जाओगे।
एक बार प्रेम से बोलो जय गुरुदेव जय जय गुरुदेव!
।। हरि ओम ।।
‘समय के सद्गुरु’ स्वामी कृष्णानंद जी महाराज
आप सद्विप्र समाज की रचना कर विश्व जनमानस को कल्याण मूलक सन्देश दे रहे हैं| सद्विप्र समाज सेवा एक आध्यात्मिक संस्था है, जो आपके निर्देशन में जीवन के सच्चे मर्म को उजागर कर शाश्वत शांति की ओर समाज को अग्रगति प्रदान करती है| आपने दिव्य गुप्त विज्ञान का अन्वेषण किया है, जिससे साधक शीघ्र ही साधना की ऊँचाई पर पहुँच सकता है| संसार की कठिनाई का सहजता से समाधान कर सकता है|
स्वामी जी के प्रवचन यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध हैं –
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