
अर्थी
अर्थी
एक जीवन का आज अंत हो गया
मात्र कुछ वर्षों ही में एक युग संपूर्ण हो गया
मैं, आज अपनी अर्थी पर सो गया।
अनंत में खो गया या सानंद में खो गया,
कई जीवन की श्रृंखलाओं की एक कड़ी में खो गया।
मैं, आज अपनी अर्थी पर सो गया।
बंधु मिले बाँधव मिले,
रिपु मिले मित्र मिले,
इस युग मे हर क्षण कई युग मिले।
मिलकर भी, आज फिर सब कुछ खो गया।
मैं, आज अपनी अर्थी पर सो गया।
जीवन के अभेद्य रहस्य को,
इस लोक से उस लोक को,
ज्ञातव्य की उद्विग्नता से, फिर विवश हो गया,
मैं, आज अपनी अर्थी पर सो गया।
माया के जाल को,
आये हुए काल को,
जानकर भी अज्ञान हो गया,
मैं, आज अपनी अर्थी पर सो गया।
परिस्थितियों के बंधनों में,
मोह की आसक्ति में,
स्वजनों के कोप का भागीदार हो गया,
मैं, आज अपनी अर्थी पर सो गया।
बाह्य शोकाकुल परिजनों के
प्रसन्न अंतःकरण को देख,
यथार्थ से परिचित हो गया,
मैं, आज अपनी अर्थी पर सो गया।
मैं, आज अपनी अर्थी पर सो गया।
रचयिता-
आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”
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