मन

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ashish kumar tripathi

22 Jul 20241 min read

Published in poetry

मन

गतिशील, मतिशील,
     भावों से उन्मत्त, प्रगतिशील – मन|
क्षणभंगुर जीवन की क्षणिकता से अनभिज्ञ,
     अधीर, अभीक, निरंतर अभिलाषाओं का अधीन – मन|
अनियंत्रित कामनाओं से प्रभावित,
     हर क्षण प्रसन्न, अप्रसन्न – मन|
जीव से जीवन को, अरि से हरि को,
     पृथक करता – मन |
हर्ष की प्रतीक्षा में, कस्तूरी मृग बन,
     वन वन, छन छन भटकता – मन|
परिधियों के परिवेश में, परिजनों के द्वेष के पराधीन – मन|
कदाचित् भाग्य में दुर्भाग्य को, दुर्भाग्य में सौभाग्य को,
     खोजता, ढूंढता – मन|

जर्जर करता, अधर में ढकेलता, ग्लानी का कारक – मन|
     फिर उत्साह वर्धित, आकाश अर्जित, असीमित,
उज्जवलित प्रकाश को समेटता – मन|
कर लो, कर लो, फिर वश में इसे, अधीन अपने हठ में इसे,
     नियंत्रित हो उड़ान इसकी, कर लो फिर जढ में इसे|
कि उड़े तो साहस लिए, बढ़े तो औरों के लिए,
     गढ़े तो भले के लिए और चढ़े तो आत्म-उत्थान के लिए|
करे तो उसके लिए, धरे तो उसके लिए,
     गिरे तो उसके लिए, मरे तो उसके लिए|
शक्ति समाहित हो इसमें, मात्र पर-कल्याण के लिए|

 

रचयिता – आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”

 

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22 Jul 20241 min read

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मन

गतिशील, मतिशील,
     भावों से उन्मत्त, प्रगतिशील – मन|
क्षणभंगुर जीवन की क्षणिकता से अनभिज्ञ,
     अधीर, अभीक, निरंतर अभिलाषाओं का अधीन – मन|
अनियंत्रित कामनाओं से प्रभावित,
     हर क्षण प्रसन्न, अप्रसन्न – मन|
जीव से जीवन को, अरि से हरि को,
     पृथक करता – मन |
हर्ष की प्रतीक्षा में, कस्तूरी मृग बन,
     वन वन, छन छन भटकता – मन|
परिधियों के परिवेश में, परिजनों के द्वेष के पराधीन – मन|
कदाचित् भाग्य में दुर्भाग्य को, दुर्भाग्य में सौभाग्य को,
     खोजता, ढूंढता – मन|

जर्जर करता, अधर में ढकेलता, ग्लानी का कारक – मन|
     फिर उत्साह वर्धित, आकाश अर्जित, असीमित,
उज्जवलित प्रकाश को समेटता – मन|
कर लो, कर लो, फिर वश में इसे, अधीन अपने हठ में इसे,
     नियंत्रित हो उड़ान इसकी, कर लो फिर जढ में इसे|
कि उड़े तो साहस लिए, बढ़े तो औरों के लिए,
     गढ़े तो भले के लिए और चढ़े तो आत्म-उत्थान के लिए|
करे तो उसके लिए, धरे तो उसके लिए,
     गिरे तो उसके लिए, मरे तो उसके लिए|
शक्ति समाहित हो इसमें, मात्र पर-कल्याण के लिए|

 

रचयिता – आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”

 

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