
गुब्बारे वाला
गुब्बारे वाला
खुद पर हंसने वाले,
खुद का चुटकला
बनाने वाले,
हंसते जाते हैं,
एक खत्म हो,
दूसरा चुटकला
बनाते है।
वह अपने साथ
जीवन के गुब्बारे ले
चलते हैं,
बेचते नही, पर
बच्चों सा
बिखरते है।
गुब्बारों सा फूलते नही
फूलों सा खिलते है, खिलाते है
हंसते है और हंसाते है।
काली रातों के जूगनू सा
जगमगाते है।
दूसरों का मज़ाक उड़ाने
वालों से बचे, वो जो
आपको मज़ाक बनाते है
पर अपनी कोई कर दे तो,
राई का पहाड़ बनाते हैं।
पर वह गुब्बारे वाला,
मिल जाए अगर तो
हंस लेना, खिलखिला लेना,
गुब्बारे की हवा में
उड़ते उड़ते
थोड़ा जी लेना।
क्योंकि वक्त तो फिर
गुजरना है।
ऐसा वक्त कहाँ फिर
रहना है।
कहाँ फिर रहना है।
रचयिता
दिनेश कुमार सिंह
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