
धुंध
धुंध
न दिन हैं, न रात हैं,
धुंध का पहरा है।
उजाला करू या फिर
आँखों को साफ करू,
प्रश्न यह गहरा है।
रिश्ते निभाते उम्र बीत गई।
खुले दिल से,
कभी जी नहीं पाया,
कभी कुछ होने के डर से,
कभी कुछ खोने के डर से,
कहना, करना, बहुत कुछ था,
पर,
कभी कर नहीं पाया।
कर्ज़ का बोझ लेकर चल रहा हूँ।
कर्ज़, जो कि नए रिश्तों से मिले,
या फिर,
फ़र्ज़ से जुड़े हैं।
अब तो लगता है कि
सबको विराम दे दूं
और शुरू से सब
शुरुआत करू।
भीड़ को भाड़ में जाने दू,
अपने आप से पहले
मुलाकात करू।
बस इसी धुंध में फंसा हुआ
मै खुद को तलाश रहा हूँ।
रचयिता- दिनेश कुमार सिंह
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