
रोटी का मान
रोटी का मान
मिट्टी में गिरकर,
बारिश में भीगकर,
धूप में सूखकर,
90 दिनों में उगकर,
वह बाजार
पहुंचती है।
चक्की में पीसकर,
पैकेट में बंधकर,
घर का रूख करती है।
हांथो में गूंथकर,
ममता में मिलकर,
तवे पर सेककर,
रोटी बनती है।
लंबा सफर तयकर,
कई हाथों से गुजरकर,
यह रोटी मुख का
कौर बनती है।
पर हर किसी को वह
नसीब नहीं होती।
पर हर किसी को वह
नसीब नहीं होती।
कोई उसे पाता है,
सिर से उसे लगाता है,
मुख का निवाला बनाता है।
और
कोई पर आस लिए बैठा रहता,
बस देखता रह जाता है।
फिर चाहे वह इंसान हो
या जानवर,
लाचारों में फर्क कहां
रह जाता है।
इस रोटी का ना तुम
अपमान करो,
जिन्होंने पहुंचाया तुम तक
उनका तो सम्मान करो।
दिनेश कुमार सिंह
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