
रूठना-मनाना
रूठना-मनाना
मैंने कहा ऐ दिल चल अब लौट आ,
बस बहुत हुआ, वो नहीं आएगा वापस,
दिल ने कहा, ‘बिना कोशिश, तुमने कैसे मान लिया’,
मैंने कहा चल अब कहीं और बसेरा ढूंढते हैं,
मगर ये दिल हठ करकें बैठा था,
मजबूरन मुझे यह बात उसे बतानी पड़ी,
शाम में गई थीं उसे मनाने,
मगर वो किसी और के बाहों का हार पहन चुका था,
ये देख तकलीफ़ होती ऐ दिल,
इसलिए तुम तक यह खबर मैंने पहुंचने नहीं दी,
अब तो चल ऐ मेरे दिल, तू चल अब मेरे साथ,
दिल ने फिर थामा मेरा हाथ, और हम चल पड़े एक दूसरे के साथ।
अगर रूठना-मनाना होता आसान,
तो कोर्ट-कचहरी में ना बढ़ते तादाद।
गैरों को हम माफ कर देते हैं,
मगर अपनों से उम्मीद क्यों बढ़ा देते हैं?
अपने भी इंसान है गैरों की तरह,
ना समझो उन्हें फरिश्तों की तरह।
बरसों बीत जाते हैं यह सोच कि वो आएंगे हमें मनाने,
मगर यह गलती हम बार-बार करते हैं।
तो छोड़ दो ये उम्मीद दूसरों से लगाना,
और थाम लो अपना ही हाथ, फिर आगे बढ़ जाना।
रचयिता,
स्वेता गुप्ता
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