कुम्हार

Avatar
ashish kumar tripathi

22 Jul 20242 min read

Published in poetry

इस कविता को दो अर्थों से समझ जा सकता है।
एक शाब्दिक अर्थ से, जिसमें कुम्हार मिट्टी को रूप दे रहा है, और मटका अपने मन की बात कह रहा है।
दूसरा अर्थ आध्यात्मिक है। यह मनुष्य शरीर (मटका) के मन की बात, उसके निर्माण और उसके निर्माता (भगवान) को लेकर है।

पाठक जिस भी रूप में चाहें इसको ले सकते हैं।

 

कुम्हार

वह ढ़ालता मुझे था,
    बड़े चाह और जतन से
मैं और निखर था जाता,
    तन से और मन से।

हाथों की उँगलियों की,
    लचन और स्पर्श से,
दिए नए आकार
    सप्रेम भर के हर्ष से।

वह गूंथता मुझे था,
    माटी में जल को भर के,
अहम् को था गलाया,
    फिर आर्द्र मुझको कर के।

मन को कठोर कर के,
    शिला हृदय पर रख के,
फिर मुझको था तपाया,
    अंगार आग कर के।

अब मैं बन खड़ा हूँ,
    पूर्ण रूप घट में,
घर से निकल पड़ा हूँ,
    किसी और घर के घर में।

कुछ कर्म है अब करना,
    घर घर में जल को भरना,
प्रेम और सहृदय से,
    तृष्णा है मन की हरना।

रखना मुझे जतन से,
    मन से और वचन से,
मैं घर में हूँ तुम्हारे,
    सत्य मन कथन से।

रचा है जिसने मुझको,
    है कोटि नमन उसको।

आशीष तनय है जिससे,
    इतनी विनय है उससे,
अब मैं ठहर ना जाऊं,
    बस पर-कार्य में ही आऊं,

ठहरूँ तो अंत पर अब,
    पर-ब्रह्म में मिलन कर।

 

 

रचयिता: आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”

 

Comments (0)

Please login to share your comments.



कुम्हार

Avatar
ashish kumar tripathi

22 Jul 20242 min read

Published in poetry

इस कविता को दो अर्थों से समझ जा सकता है।
एक शाब्दिक अर्थ से, जिसमें कुम्हार मिट्टी को रूप दे रहा है, और मटका अपने मन की बात कह रहा है।
दूसरा अर्थ आध्यात्मिक है। यह मनुष्य शरीर (मटका) के मन की बात, उसके निर्माण और उसके निर्माता (भगवान) को लेकर है।

पाठक जिस भी रूप में चाहें इसको ले सकते हैं।

 

कुम्हार

वह ढ़ालता मुझे था,
    बड़े चाह और जतन से
मैं और निखर था जाता,
    तन से और मन से।

हाथों की उँगलियों की,
    लचन और स्पर्श से,
दिए नए आकार
    सप्रेम भर के हर्ष से।

वह गूंथता मुझे था,
    माटी में जल को भर के,
अहम् को था गलाया,
    फिर आर्द्र मुझको कर के।

मन को कठोर कर के,
    शिला हृदय पर रख के,
फिर मुझको था तपाया,
    अंगार आग कर के।

अब मैं बन खड़ा हूँ,
    पूर्ण रूप घट में,
घर से निकल पड़ा हूँ,
    किसी और घर के घर में।

कुछ कर्म है अब करना,
    घर घर में जल को भरना,
प्रेम और सहृदय से,
    तृष्णा है मन की हरना।

रखना मुझे जतन से,
    मन से और वचन से,
मैं घर में हूँ तुम्हारे,
    सत्य मन कथन से।

रचा है जिसने मुझको,
    है कोटि नमन उसको।

आशीष तनय है जिससे,
    इतनी विनय है उससे,
अब मैं ठहर ना जाऊं,
    बस पर-कार्य में ही आऊं,

ठहरूँ तो अंत पर अब,
    पर-ब्रह्म में मिलन कर।

 

 

रचयिता: आशीष कुमार त्रिपाठी “अलबेला”

 

Comments (0)

Please login to share your comments.